नेताओं को डा. आंबेडकर का अध्ययन करना चाहिए

Edited By ,Updated: 05 Jan, 2025 05:29 AM

leaders should study dr ambedkar

आज  देश भर में डा. भीम राव आंबेडकर को लेकर हंगामे हो रहे हैं, संसद में गृहमंत्री अमित शाह को घेरा गया है, देश भर में डा. आंबेडकर साहिब को लेकर धरने, जलसे, जलूस, दंगे-फसाद और रोष मार्च निकाले जा रहे हैं परन्तु यह सच है कि आज की युवा पढ़ी-लिखी पीढ़ी...

आज देश भर में डा. भीम राव आंबेडकर को लेकर हंगामे हो रहे हैं, संसद में गृहमंत्री अमित शाह को घेरा गया है, देश भर में डा. आंबेडकर साहिब को लेकर धरने, जलसे, जलूस, दंगे-फसाद और रोष मार्च निकाले जा रहे हैं परन्तु यह सच है कि आज की युवा पढ़ी-लिखी पीढ़ी को बस इतना याद है कि डा. आंबेडकर एक दलित नेता थे। आज की पीढ़ी बापू गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, आचार्य कृपलानी, नेता जी सुभाष चंद्र बोस को बहुत कम जानती है। 

हां, आज के राजनीतिक दल डा. आंबेडकर की छवि को वोटों की राजनीति में जरूर देख रहे हैं। कुछ दलित नेता अपने को डा. भीमराव आंबेडकर के अनुयायी कह कर अपना राजनीतिक स्वार्थ जरूर साध रहे हैं परन्तु इन दलित नेताओं से विनती जरूर करूंगा कि वह डा. साहिब के जीवन, उस समय की सामाजिक व्यवस्था को जरूर जांच लें। 

डा. भीमराव आंबेडकर कोई व्यक्ति नहीं, एक विचार थे, एक स्वयं सिद्ध संस्था थे। भारत में एक नई विचारधाराके पोषक थे। छुआछूत के दंश को उन्होंने स्वयं भी भोगा था। वर्तमान पीढ़ी को बताना चाहूंगा कि जिस समय डा. साहिब का बचपन था तब राजनीति वालों और अनुसूचित, दलित, प्रताडि़त वर्ग के लोगों की बस्तियां अलग-अलग होती थीं। उनके कुएं, तालाब से सवर्ण जाति वालों से दूर और अलग हुआ करते थे। वह सिर्फ ‘कामे’ थे। अगर दलित जाति में कोई बच्चा पैदा होता तो उसका नाम जमींदार से पूछ कर रखना पड़ता था। इसलिए जमींदारों द्वारा दलित  बच्चों के नाम ‘पेठाराम’, ‘छज्जू राम’, ‘देशो’, ‘पुन्नू राम’, ‘रामिया पासी’, ‘मारा’, ‘फकीरा’ इत्यादि रखे जाते थे। अनुसूचित जाति के स्कूली बच्चों को सवर्ण जाति के बच्चों से अलग बिठाया जाता।

पाठक मित्रो, एक ऐसी अनुसूचित जाति  ‘महार’ में 14 अप्रैल, 1891 में डा. भीमराव आंबेडकर का जन्म महाराष्ट्र में हुआ। वह समय भारत की सामाजिक-व्यवस्था में दलितों के लिए संकटमय काल था। डा. आंबेडकर का बचपन कुछ ऐसी ही कठिनाइयों में गुजरा। उन्हें भी टाट-पट्टी स्कूल में अपने घर से ले जाना पड़ता, उन्हें भी उच्च जाति के बच्चों के साथ नहीं बैठने दिया जाता था। डा. साहिब भी तब बच्चे थे, वह भेदभाव और छुआछूत को नहीं जानते थे। परन्तु इस सामाजिक भेदभाव और छुआछूत के दंश का डा. साहिब के कोमल हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा। बाद में यही सामाजिक भेदभाव और छुआछूत डा. भीमराव आंबेडकर के मन में एक विस्फोट बन कर उभरा। समस्त समाज में फैले इस सामाजिक भेदभाव और छुआछूत के जहर ने डा.आंबेडकर को डंस लिया।

सन् 1913 में डा. आंबेडकर अमरीका के ‘कोलम्बिया विश्व विद्यालय’ से एम.ए. ‘इकोनॉमिक्स’ पास कर गए। 1916 में उन्होंने इसी विश्वविद्यालय से ‘ब्रिटिश इंडिया के प्रांतों में वित्तीय स्थिति का विशलेषण’ नामक विषय पर पी.एच.डी. की। सन 1922 में ‘लंडन....विश्वविद्यालय’ से ‘रुपए की समस्या’ पर दूसरी पी.एच.डी. की। अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों ने भारत को आर्थिक संकट में डाल दिया था। डा. साहिब ने उस समय भारतीय सामाजिक व्यवस्था और विदेशों की सामाजिक व्यवस्था का गहरा विशलेषण किया। उन्होंने ङ्क्षचता व्यक्त की कि छुआछूत की कुप्रथा से भारत को बहुत हानि हो रही है। कारण यही था कि डा. साहिब स्वयं इस छुआछूत का शिकार रहे थे। उन्होंने व्यथित हृदय से महसूस किया कि क्या विडम्बना है कि मानव ही मानव को न छुए?  यह ऊंच-नीच का भेद भारत को ले डूबेगा। इस अन्याय को डा. आंबेडकर का मन कभी स्वीकार न कर सका। तब भारत पूरी तरह से अंग्रेजी राज तंत्र से जुड़ चुका था। 

ऐसे हालात में डा. साहिब को ‘स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एवं पोलिटिकल साइंस’ में एडमिशन मिल चुका था। परन्तु महाराजा गायकवाड़ से अनुबंध के कारण पढ़ाई छोडऩी पड़ी और उन्हें बड़ौदा राज्य में ‘मिलिट्री सचिव’ नियुक्त किया गया। सन 1926 में डा. आंबेडकर ने ‘हिल्टन-यंग’ आयोग के सामने पेश होकर ‘विनिमय दर व्यवस्था’ पर ऐसे तर्क दिए जो इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दोहराए जाएंगे। डा. आंबेडकर महात्मा गांधी की नीतियों से भी सहमत नहीं थे। डा. साहिब शहरीकरण और ‘प्रजातांत्रिक संसदीय प्रणाली’ को सुदृढ़ बनाना चाहते थे। वह जानते थे कि प्रजातंत्र में मनुष्य अपनी स्वतंत्रता का आनंद ले सकता है।’

सन 1927 में डा. साहिब ने ‘बहिष्कृत भारत’ नामक एक पाक्षिक समाचार पत्र निकाला। ‘इंडिपैंडैंट लेबर पार्टी’ की स्थापना की जिसके द्वारा उन्होंने दलित मजदूरों और किसानों की समस्याओं का उल्लेख किया। सन 1937 में बम्बई के चुनावों में डा. साहिब की पार्टी को 15 में से 13 सीटें प्राप्त हुईं। यद्यपि डा. साहिब गांधी के दलितोद्धार से सहमत नहीं थे परन्तु अपनी  मौलिक विचारधारा से कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं का ध्यान अपनी ओर खींचा। यद्यपि बापू गांधी को जवाहर लाल नेहरू प्रिय थे परन्तु फिर भी बापू गांधी डा. आंबेडकर की माडर्न नीतियों से बहुत प्रभावित हुए क्योंकि किसी भी नेता, विचारक या ङ्क्षचतक के पास डा. आंबेडकर जैसी पैनी दृष्टि नहीं थी। डा. आंबेडकर की भारत को देखने-परखने की अपनी अलग दृष्टि थी।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद डा. आंबेडकर साहिब को भारत का विधि (कानून) मंत्री बनाया गया। 21 अगस्त 1947 को भारत की ‘संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। डा. साहिब की अध्यक्षता में भारत को लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष एवं समाजवादी संविधान प्राप्त हुआ जिसमें भारत के लोगों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा की गई है। 26 जनवरी 1950 को यह संविधान भारत के लोगों को सौंप दिया गया। 25 मई, 1950 को डा. साहिब ने ‘आंबेडकर भवन का दिल्ली में शिलान्यास रखा। अध्यक्ष पद पर रहते हुए उन्होंने ‘ङ्क्षहदू कोड बिल’ पारित किया। इस बिल का मुख्य उद्देश्य महिलाओं को पैतृक संपत्ति का हकदार बनाना था। तलाक की इस बिल में व्यवस्था की गई। 27 दिसम्बर 1951 को डा. साहिब ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से त्याग पत्र दे दिया। परन्तु जीवन में जो प्रतिष्ठा डा. साहिब को मिली ऐसी प्रतिष्ठा किसी विरले राजनेता को ही प्राप्त होती है। परन्तु डा. साहिब संतुष्ट नहीं थे। 4 अक्तूबर 1956 को डा. साहिब ने ‘बौद्ध धर्म अपना लिया। 
उनका दृढ़ विश्वास था कि सरकारी या सामूहिक खेती द्वारा ही दलितों का उद्धार हो सकता है। उनका ध्यान सारी उम्र दलितों के उत्थान पर टिका रहा। 

दलितों को आरक्षण मिले, यह डा. आंबेडकर ही थे जिनके कारण दलित, प्रताडि़त, अनुसूचित जाति वालों को समाज में समानता का हक मिला। उन्हें पहचान मिली। उन्हीं की नीतियों को लेकर बाबू कांशीराम राज पटल पर आए। बाबू कांशीराम एक क्रांतिकारी दलित नेता कहलाए। उन्होंने ‘बहुजन समाज पार्टी’ बनाकर राजनीति में ‘उथल-पुथल ला दी। वर्तमान में सुश्री मायावती कांशी राम की धरोहर को राजनीति में संभाले बैठी हैं। देश की सभी राजनीतिक पाॢटयां दलितों का वोट हासिल करने की नीति बना रही हैं। यही कारण है कि गृहमंत्री को डा. आंबेडकर पर की गई टिप्पणी पर सब राजनीतिक दल, सब स्थानों पर हंगामा बरपा रहे हैं परन्तु मेरा निवेदन यह है कि आंबेडकर के नाम पर हंगामा करने से पहले उन्हें जानना-समझना जरूरी है।-मा. मोहन लाल(पूर्व परिवहन मंत्री, पंजाब)

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