Edited By ,Updated: 04 Oct, 2024 06:01 AM
बेशक भारत की आजादी का श्रेय कांग्रेस पार्टी को जाता है, लेकिन भारत के स्वतंत्रता संग्राम की पहली जीत का श्रेय महात्मा गांधी, शिरोमणि अकाली दल और भारत को गुलाम बनाने वाले ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष में किए गए अपार बलिदानों को जाता है। देश की आजादी...
बेशक भारत की आजादी का श्रेय कांग्रेस पार्टी को जाता है, लेकिन भारत के स्वतंत्रता संग्राम की पहली जीत का श्रेय महात्मा गांधी, शिरोमणि अकाली दल और भारत को गुलाम बनाने वाले ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष में किए गए अपार बलिदानों को जाता है। देश की आजादी का रास्ता आसान करने का श्रेय भी अकाली दल को जाता है। अपने अस्तित्व के 104 वर्षों के इतिहास के दौरान शिरोमणि अकाली दल पंथ और देश के लिए किए गए बलिदानों के कारण पंजाबियों के एक बड़े हिस्से के दिलों पर राज करता रहा है। पिछले कुछ सालों से अकाली दल नेतृत्व द्वारा लिए गए फैसलों फिर चाहे वे धार्मिक हों, आर्थिक या सामाजिक हों, से पंजाब के लोग विशेषकर सिख समुदाय संतुष्ट नहीं था और इसी वजह से पिछले कई चुनावों में शिरोमणि अकाली दल को बड़ी हार का सामना करना पड़ा और सत्ता से बाहर रहना पड़ा।
सत्ता से बाहर होने के कारण अकाली दल के नेताओं में बेचैनी होने लगी और धीरे-धीरे अकाली नेतृत्व ने हाईकमान से बगावत करना शुरू कर दिया, इसलिए हाल के दिनों में अकाली दल न केवल टूट गया है बल्कि सिखों के मन से भी उतर गया है। 2 मुख्य अकाली गुटों, सुखबीर सिंह बादल के नेतृत्व वाला गुट और गुरप्रताप सिंह वडाला के नेतृत्व वाला अकाली दल सुधार आंदोलन का लगभग पूरा नेतृत्व किसी न किसी तरह से खुद को दोषी मानने लगा। इसके चलते सभी नेता श्री अकाल तख्त पर उपस्थित होकर अकाल तख्त के जत्थेदार को सफाई दे रहे हैं और श्री अकाल तख्त की सर्वोच्चता स्वीकार करने की बात कर रहे हैं।
सिख संगत अन्य राजनीतिक दलों की ऐसी गलतियों को माफ कर सकती है क्योंकि वे दल सिख अधिकारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं और न ही खुद को सिखों की पार्टी के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इसलिए यदि कोई अन्य पार्टी सिखों के हितों के खिलाफ कुछ फैसले लेती है तो सिख संगत को वह फैसले उतने बुरे नहीं लगते जितने कि सिखों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी अकाली दल के फैसले। यही एक बड़ा कारण है कि कांग्रेस द्वारा सिखों के साथ की गई अनगिनत ज्यादतियों के बावजूद कांग्रेस कई बार सिखों का वोट पाने में सफल रही है। हालांकि कांग्रेस की तुलना में अकाली दल ने सिखों के साथ ऐसी कोई ज्यादती नहीं की है, लेकिन सिख समुदाय अकाली दल की कुछ गलतियों को माफ करने के मूड में नहीं दिख रहा, भले ही उसने अकाली दल को सजा दे दी हो पिछले कई चुनावों में हरा कर।
इससे पता चलता है कि सिख समुदाय स्थापित नेतृत्व पर भरोसा नहीं कर रहा है। इसी वजह से पिछले विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को और लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को बहुमत मिला था।जालंधर उप-चुनाव ने सिख नेतृत्व पर सिखों के अविश्वास की पक्की मोहर लगा दी। इसलिए यह दीवार पर लिखी इबारत की तरह स्पष्ट है कि सिख समुदाय पहले से आजमाए और परखे हुए सिख नेतृत्व पर दोबारा भरोसा नहीं करेगा। हालांकि, सिख संगत सिख हितों को सर्वोपरि रखते हुए पंजाब में शिरोमणि अकाली दल को एक मजबूत पार्टी के रूप में देखना चाहती है, यहां तक कि अकाली दल के विपक्षी दल भी कह रहे हैं कि पंजाब में अकाली दल का मजबूत होना राज्य के हित में है।
लेकिन आज की स्थिति में यह संभव नहीं लगता। यदि अकाली दल नेतृत्व ईमानदारी से अकाली दल को पुनर्जीवित करना चाहता है, तो पूरे नेतृत्व को त्याग की भावना दिखानी होगी और खुद को पीछे हटाना होगा और अकाली दल की बागडोर एक ऐसे व्यक्ति के हाथों में सौंपनी होगी, जिससे सिखों को कोई शिकायत नहीं हो। सवाल उठता है कि ऐसे व्यक्ति को कैसे खोजा जाए? आमतौर पर कहा जाता है कि उनके अलावा ऐसा कौन है जो अकाली दल को अच्छे से चला सके। सुखबीर सिंह बादल के समर्थक अक्सर कहते हैं कि बिना पैसे के पार्टी नहीं चल सकती, हालांकि यह बात कुछ हद तक सही भी हो सकती है।
सिख समुदाय नेताओं के लिए अपना सब कुछ कुर्बान करने से नहीं कतराता। हमारी आस्था का ताजा उदाहरण आम आदमी पार्टी है, जिसके पास न तो कोई संगठन था और न ही मजबूत आर्थिक आधार। लेकिन लोगों का उस पर विश्वास हो गया जिस कारण लोगों ने इस पार्टी पर वोट और नोट की बारिश कर दी। इसलिए, यदि अकाली दल की कमान ऐसे व्यक्ति के हाथों में दी जाए जो उपरोक्त बातों पर खरा उतरे और लोग उस पर विश्वास कर सकें तो निश्चित रूप से सिख संगत शक्ति, साहस और धन के साथ ऐसे नेता का समर्थन करेगी बशर्ते कि सिख संगत सबसे पहले किसी वयस्क व्यक्तित्व को नेता के रूप में स्वीकार करने की परंपरा से बाहर निकले।
जिन व्यक्तियों को हम स्वीकार करेंगे उनमें से एक श्री दरबार साहिब अमृतसर के पूर्व रागी भाई बलदेव सिंह वडाला, और दूसरे श्रीनगर के भाई मनिंदर सिंह हैं, जिन्होंने सिख नेतृत्व की मनमानी कार्रवाइयों के खिलाफ सिख संगत को चेतावनी दी थी। इन दोनों शख्सियतों को चाहे इसके लिए आर्थिक और सामाजिक नुकसान उठाना पड़ा लेकिन वे अपने रुख पर कायम रहे और सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। -इकबाल सिंह चन्नी (भाजपा प्रवक्ता पंजाब)