Edited By ,Updated: 05 Nov, 2024 05:12 AM
वृद्धजनों की कार्यक्षमता व शारीरिक प्रतिरोधक क्षमताएं तो पहले ही जीवन पर्यन्त के तनावों के दुष्प्रभावों एवं बढ़ती आयु की क्षीणतावष दुर्बल हो चुकी होती हैं।
वृद्धजनों की कार्यक्षमता व शारीरिक प्रतिरोधक क्षमताएं तो पहले ही जीवन पर्यन्त के तनावों के दुष्प्रभावों एवं बढ़ती आयु की क्षीणतावष दुर्बल हो चुकी होती हैं। यदि दुर्भाग्यवश दम्पति में से एक साथ छोड़ चुका हो तो दूसरा मानसिक तौर पर टूट चुका होता है। ऊपर से दिवंगत जीवन साथी के सान्निध्य में आयुपर्यन्त गुजारे सुखद क्षणों की यादें जीना दुष्कर कर देती हैं। नाजों से पाली सन्तानें अपने परिवारों में व्यस्त हो चुकी होती हैं। भावी पीढिय़ां भी शिक्षा, रोजगार में व्यस्त होती हैं। रह जाता है बिछड़े साथी की अविस्मृत यादों में भटकता एक वृद्ध, जो नितान्त असहाय, असहज, अकेला, बची-खुची जिन्दगी के बोझ को ढोता है।
यदि दम्पति में दोनों साथी कायम हों तो राहत के कुछ क्षण अवश्य सुकून देते हैं, अन्यथा वृद्ध शारीरिक मौत मरने से पहले एकाकीपन के कारण मानसिक व मनोवैज्ञानिक मृत्यु को प्राप्त करता है। नि:संदेह चिकित्सीय प्रणाली दिल की धड़कन रुक जाने पर व्यक्ति को मृत घोषित करती है। कोमा में चले जाने पर ‘ब्रेन डैड’ भी घोषित कर देती है, परन्तु जब व्यक्ति मृत्यु से पहले नितान्त अकेलेपन की असहाय, असहज, विवश स्थिति में रोज मानसिक यन्त्रणा व तनाव में मरने की प्रतीक्षा करे, तो उसे मनोशब्दावली में मानसिक मृत्यु कहा जाना अप्रासंगिक नहीं।
जब व्यक्ति आखिरी समय का इन्तजार करे या खुद को खत्म करने की सोचे तो उसे मानसिक जीवित अवस्था तो कदापि नहीं कहा जा सकता। अगर व्यक्ति की मानसिक अवस्था मरणासन्न स्थिति पर पहुंच असहनीय एवं विवषता की चर्मोत्कर्ष तक जा पहुंचे तो वह सांसें लेता हुआ भी मृतप्राय: हालत में कहा जा सकता है। अपने मनोबल व इच्छा शक्ति को बढ़ाकर बची-खुची जिन्दगी में नई आशाओं का संचार किया जा सकता है। सर्वप्रथमपर्ण तन्मयता से आत्म-चिन्तन करके अपने पूर्ण समय से प्राकृतिक निवृत्तियों, जलपान-भोजन, योग-ध्यान, व्यायाम एवं पूजा समय निकाल कर देखें कि उसके पास कितना समय बचता है। उसमें से गुणात्मक समय कितना है।
यदि व्यक्ति तकनीकी रोजगार का अभ्यस्त एवं सिद्धहस्त है तो उसी दिशा में कुछ अनवेशक करने का प्रयत्न करे। यदि शिक्षित है तो अपनी शिक्षा, विशेषज्ञता विषय एवं अर्जित अनुभव के अनुकूल उपयुक्त विषय का अध्ययन कर प्राप्त योग्यता व अनुभव के आधार पर वर्तमान प्रणाली के नवीनीकरणानुसार आगे अध्ययन का प्रयास करे।
इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सर विलियम मैकडूगल द्वारा निर्धारित 9 क्रम शृंखला यानी ‘नाइन प्वाइंट स्केल’ प्रणाली का अनुसरण कर अपनी इच्छाशक्ति यानी मनोबल बढ़ाने का उपक्रम करें। जिनमें अपने को पहचानें, यानी ‘नो दाई सैल्फ’ मतलब स्वयं में आत्म चिन्तन व आत्म विश्लेषण कर पहचान करें कि आप में दूसरों से अलग कौन सी विषेष योग्यता है। दूसरा, अपनी विशिष्ट योग्यता का निर्माण करें, जिससे नई सामाजिक पहचान हासिल कर आत्मबल मजबूत करें। यानी ‘बिल्ड दाई सैल्फ’ अर्थात उस व्यक्तिगत विशिष्ट योग्यता को जनमानस विशेषतया सम्बन्धित विषेषज्ञों के समक्ष प्रकट कर पुनुत्र्थान करना।
अगला सचेतक है ‘सैल्फ एक्चुअलाईजेशन’ एवं ‘विजुअलाइजेशन’ यानी विशिष्ट योग्यता के पुनॢनर्माण के रास्ते पर चलने से पूर्व सटीक दृष्टिकोण अपनाना एवं यथार्थ के दायरे में रहना एवं अति उत्साह में जोश, सत्य, अस्तित्व को अंगीकार कर सही मार्ग को अपनाना व अनुसरण करना। फिर है ‘सैल्फ डिटर्मिनेशन’ अर्थात जो भी सोचना, समझना व करना वह पूर्णतया ठोस इरादे व दृढ़ संकल्प से करना। अगला है ‘सैल्फ प्रिजर्वेशन’ यानी स्वयं के अस्तित्व व मानसिकता को सुरक्षित रखने की खातिर उस महान ईश्वरीय ताकत को स्मरण कर उससे वरदहस्त प्राप्त करना, ताकि निराशा के क्षणों में भी उसके सहारे की आशा बंधी रहे। इसके आगे के प्वाइंट्स इन्हीं उपरोक्त मूल्यों के उपप्रत्यय हैं।
इस राह पर पूर्व में अर्जित व संचित धन-सम्पदा को न्यूनतम सीमा तक, अत्यन्त जरूरी परिस्थितियों के अनुसार ही खर्च करें। क्योंकि प्रचलित सारगॢभत कहावत है ‘जैसा पैसा गांठ का, वैसा मित्र न कोय’।गुणवत्तापूर्ण समय व्यतीत करने हेतु कुछ नि:स्वार्थी, हितैशी मित्र अवश्य बना कर रखें, जो विश्वसनीय सन्तान या पारवारिक सदस्य हों, उनसे भी सौहार्द बनाए रख कर उनका परामर्श लेते रहें। उपयुक्त अन्तरंग पौत्र-पौत्रियों पर स्नेह लुटाकर उनके सम्पर्क व सान्निध्य में कुछ समय रोजाना व्यतीत कर आनन्दमयी सुखद क्षणों का अहसास भी जरूर किया करें।
संवेदनशील पारिवारिक परिस्थितियों में अवांछित हस्ताक्षेप से परहेज करें। बिना मांगे परामर्श न दें। खूब धार्मिक एवं पर्यटन यात्राएं करें। सदा प्रसन्न रहने का प्रयास करें, तनाव, दबाव, अत्यधिक जुड़ाव से बचें। प्रभु भक्ति नियमित करें, जरूरतमन्दों की सहायता नियमित करते रहें, परन्तु सामथ्र्यानुसार ही करें। नियमित रूप से चिकित्सीय परामर्श भी लेते रहें। -जे.पी. शर्मा