Edited By ,Updated: 13 Jan, 2025 07:13 AM
इस साल दुनिया का सबसे बड़ा मानवीय समागम का महाकुंभ पर्वोत्सव उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में गंगा, यमुना और अदृश्य त्रिवेणी के संगम पर 13 जनवरी से शुरू होकर 26 फरवरी तक चलेगा। अनेकता में एकता का जीता-जागता प्रतीक पर्व है कुंभ मेला।
इस साल दुनिया का सबसे बड़ा मानवीय समागम का महाकुंभ पर्वोत्सव उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में गंगा, यमुना और अदृश्य त्रिवेणी के संगम पर 13 जनवरी से शुरू होकर 26 फरवरी तक चलेगा। अनेकता में एकता का जीता-जागता प्रतीक पर्व है कुंभ मेला। लोक-पर्व होकर यह मेला सहस्त्र वर्षों से जन-विश्वास का आधार बना रहा है। सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक चेतना से जुड़ा यह महाकुंभ पर्व, भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक अवधारणाओं का जीवन प्रतीक है। कुंभ पर्व, देश के समवेत सांस्कृतिक जीवन का व्यावहारिक उदाहरण है। इन्हीं पर्वों-मेलों ने हमारी भारतीयता (राष्ट्रीयता) को प्राणवान बनाए रखा है।
हजारों वर्षों से चली आ रही कुंभ पर्व की इस सांस्कृतिक विरासत को हमारे देश के मनीषी चिन्तकों, पुराणकारों ऋषि-मुनियों, दार्शनिकों, धर्माधिकारियों अथवा साधु-सन्तों ने लोकांचलों में निवास करने वाले पठित-अपठित साधारण जनों तक पहुंचाया है। इस पर्व भावना के पीछे जीवंत आस्था और निष्ठा भाव ही कार्यशील रहा है। भारत भूमि का यह खंड यदि पवित्र और महत्वपूर्ण है तो इसलिए कि वह बाकी विश्व से जोड़ता है, इसलिए नहीं कि वह उसे दूसरों से अलग करके भूगोल की राष्ट्रीय सीमाओं में बांध देता है। विश्वासों की इन मर्यादाओं के परिवेश में ही एक मानव समूह की जीवन धारा, उसकी लय और लौ रूपायित होती है। यह उसकी सांस्कृतिक चेतना का मुख्य प्रेरणा स्रोत भी है। यह भावना भारत को या भारतीय सभ्यता को आधुनिक दुनिया के राष्ट्रों और राज्य-तंत्रों से अलग कर देती है। इसलिए हमारी संस्कृति सभ्यता को गुलामी के कालखंड से नष्ट करने की तमाम कोशिशों के बावजूद हम ज्यूं के त्यूं खड़े हुए हैं। कुंभ या महाकुंभ जैसे पर्वोत्सव मेलों से भी हमें यह शक्ति प्राप्त होती रही है।
इस प्रकार शरीर रूपी घट में निहित अमृत तत्व की अनुभूति का विषय हो तो कुंभ-पर्व के रूप में अमृत पद प्राप्ति के लिए युग-युगों से भारतीय जन जीवन को आस्थाशील बनाए हुए है। कुंभ रूप इस लोक पर्व में भी ‘मृत्यंर्मामूतं गमय’ की कामना, मरणशील मानव के मन को उद्वेलित एवं प्रेरित करती रही है। वही प्रेरणा, अनादि स्रोत सलिला सरिताओं के तट की ओर, भारतीय मन को सदा से आकॢषत करती रही है। निष्कर्ष रूप में कहें तो कह सकते हैं कि इन कुंभ पर्वों ने भौगोलिक एेतिहासिक एवं सांस्कृतिक एकता बनाए रखकर राष्ट्रीय जीवन संदर्भों के प्रति जातीय अस्मिता को जागृत करने में अहम भूमिका निभाई है। जब कोई महाकुंभ पड़ता है तब जन भावना, उमंगित हृदय और संकल्पित मस्तिष्क को लेकर कुंभ स्थलों की ओर उमड़ पड़ती है। हर आयु वर्ग एवं जाति-वर्ग के लोग, प्रदेशों की सीमाओं को लांघते हुए गरीब-अमीर के दायरों को तोड़ते हुए अनेक भाषा-बोलियों में शब्द-साधना करते हुए परम अमृत की कामना से अपने ‘स्व’ (सीमित) को ‘पर’ (परम) में समर्पित करने के लिए संकल्पशील दिखाई देते हैं।
सागर-सरिताओं के तट पर ऐसे आस्थाशील श्रद्धालुओं के गतिशील चरण, भारत भूमि के कण-कण को, रागात्मक संबंधों से जोड़ते हुए महाराग का वस्त्र बुनते रहे हैं। सरिताओं के तट पर विशाल जन समाज को देखकर एेसा लगता है मानो नए भाव-विधान वाले ऐसे आस्थाशील लोगों का एक नया नगर ही बस गया हो। यह जन-आस्था निर्जन प्रदेश को भी जनाकूल बना देती है। सालों साल प्रयाग के त्रिवेणी के तट पर कुंभ या अद्र्धकुंभ के बाद इस बार महाकुंभ का पावन अवसर आया है। जहां सैंकड़ों झोंपडिय़ां, लाखों ध्वजा पताकाएं दिखाई देती हैं। यहां नाना वेशधारी साधु-सन्तों के संगठनों की अथवा नाना योगियों की जमातें अपनी परम्पराओं को निभाने के लिए अपनी आन-बान-शान के साथ अपना नाम अस्तित्व प्रदॢशत कर रही हैं। पवित्र कुंभ का रंग ही एेसा होता है, जो हर तरह के पर्यटकों को अपनी ओर सहज ही आकर्षित करता है। जो लोग भारत दर्शन के लिए आना चाहते हैं, उन्हें पूरे भारत की विविधता एक जगह सिमटी हुई मिल जाती है और जो लोग आध्यात्मिक टूरिज्म पर आना चाहते हैं, उनके लिए तो इससे भव्य आयोजन कोई हो ही नहीं सकता।
चीनी यात्री ह्यू एन सांग(सन् 629-45ई$) ने अपने यात्रा विवरणों में सम्राट हर्षवर्धन द्वारा प्रयाग के कुंभ-अद्र्धकुंभ पर्वों पर सर्वस्व दान करने का उल्लेख किया है। इसी प्रकार हरिद्वार में सम्पन्न होने वाले कुंभोत्सवों का भी अपना विशेष महत्व रहा है। अकबर बादशाह ने ऐसे ही अवसरों पर तीर्थ यात्रियों पर लगने वाला जजिया सन् 1564 ई. में उठा लिया था किन्तु औरंगजेब ने हरिद्वार में पडऩे वाले कुंभ से पहले ही सन् 1678-79 में जजिया फिर से लगा दिया था। इस बार के महाकुंभ को योगी आदित्यनाथ ने दिव्य भव्यता के साथ डिजिटल भी बना दिया है। आज सामाजिक-सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों के अवमूल्यन के माहौल में जातीय अस्मिता एवं राष्ट्रीय एकता के खतरों को ध्यान में रखते हुए एेसे सांस्कृतिक उत्सवों के समायोजन की बड़ी आवश्यकता अनुभव की जाती है।-निरंकार सिंह