Edited By ,Updated: 02 Oct, 2024 06:52 AM
इन सबकी शुरुआत पवित्र लड्डुओं से हुई है। विवाद का मुद्दा आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू का यह वक्तव्य है कि आंध्र प्रदेश के तिरुपति मंदिर में लड्डू बनाने के लिए घी में पशुओं की चर्बी पाई गई है और इसके बाद एक बड़ा राजनीतिक विवाद पैदा...
इन सबकी शुरुआत पवित्र लड्डुओं से हुई है। विवाद का मुद्दा आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू का यह वक्तव्य है कि आंध्र प्रदेश के तिरुपति मंदिर में लड्डू बनाने के लिए घी में पशुओं की चर्बी पाई गई है और इसके बाद एक बड़ा राजनीतिक विवाद पैदा हुआ। नायडू ने अपने प्रतिद्वंद्वी तथा पूर्व मुख्यमंत्री जगनमोहन रैड्डी पर आरोप लगाया कि उन्होंने पवित्र प्रसादम को दूषित किया, जिसका करोड़ों हिन्दुओं के दिलों में एक विशेष स्थान है। रैड्डी ने इसका प्रत्युत्तर नायडू पर यह हमला करते हुए किया कि वह राजनीतिक लाभ के लिए झूठ फैला और सामाजिक जिम्मेदारी के बिना कार्य कर रहे हैं।
इससे नाराज उच्चतम न्यायालय ने कल तिरुपति में भगवान और भक्तों को दूषित प्रसाद के बारे में याचिकाओं की सुनवाई करते हुए नायडू सरकार को फटकार लगाई और कहा कि मुख्यमंत्री एक संवैधानिक पद पर हैं। हम अपेक्षा करते हैं कि ईश्वर को राजनीति से अलग रखा जाए और साथ ही धर्म को भी राजनीति से अलग रखा जाए। आपको धार्मिक भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। लैब की रिपोर्ट जुलाई में आ गई थी और आपने वक्तव्य सितंबर में दिया। लैब रिपोर्ट स्पष्ट नहीं है या यह प्रमाणित नहीं करती कि मछली का तेल, पशुओं की चर्बी लड्डू बनाने के लिए घी में मिलाई गई। इससे मूल प्रश्न की ओर ध्यान जाता है कि राजनीति में धर्म का इस्तेमाल हमारे नेता मतदाताओं को लुभाने के लिए निरंतर करते हैं। हम धर्म का खुल्लम-खुल्ला राजनीतिकरण देख रहे हैं। हमारे नेताओं ने धर्म को भारतीय राजनीति का मुख्य अंग बना दिया है। इसलिए प्रतिस्पर्धी लोकतंत्र के वातावरण में विकास पीछे छूट जाता है।
आज राजनीति धु्रवीकरण और तुष्टीकरण तक सीमित हो गई है, जिसके चलते न केवल घृणा फैलाई जा रही है अपितु सांप्रदायिक मतभेद भी बढ़ रहे हैं। विभिन्न धर्मों को समान आदर देने की कोई इच्छा नहीं दिखाई देती। इस बात की किसी को परवाह नहीं कि यह विनाशकारी हो सकता है, जिससे सांप्रदायिक हिंसा बढ़ सकती है और यह घोर सांप्रदायिकता के बीज बो सकता है। जब स्वार्थी वोट बैंक की राजनीति हमारे राजनेताओं की राजनीतिक विचारधारा और दृष्टिकोण को निर्देशित करती है तो वे इसे अपने चुनावी लाभ के अनुरूप बना देते हैं और इस संबंध में सभी नेता एक ही रंग में रंगे हुए हैं। राजनेता ‘गॉडमैन’ का अनुसरण करते हैं। इसका कारण यह है कि उनके पक्के चेले और शिष्यों से उन्हें समॢपत वोट बैंक मिल जाता है, जिसके चलते वे सत्ता का केन्द्र बन जाते हैं। इसका एक उदाहरण यह है कि हरियाणा में 5 अक्तूबर को विधानसभा चुनावों के मतदान के बीच राज्य सरकार ने जेल प्रशासन से अनुरोध किया है कि डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख राम रहीम को पैरोल पर रिहा किया जाए और यह अनुरोध राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को भेजा गया, जिसने राज्य सरकार से कहा कि राम रहीम को पैरोल देने की परिस्थितियों का औचित्य बताएं। विशेषकर इसलिए कि जब उन्होंने हाल ही में 21 दिन की फरलो पूरी की और वह 2 सितंबर को जेल में वापस आए हैं।
इसका कारण क्या है? राम रहीम, जिसे अपनी दो शिष्याओं के बलात्कार तथा 2017 में एक पत्रकार की हत्या के लिए 20 साल की सजा हुई है, का राज्य में काफी प्रभाव है और वह 2014 से भाजपा का समर्थन कर रहा है। मोदी के भ्रष्टाचार रोधी अभियान में बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर भी शामिल हुए। दोनों ने प्रभावशाली भूमिका निभाई। ऐसे साधु महात्मा राजनीति में क्यों संलिप्त होते हैं। मुख्यतया इसका कारण यह है कि उन सबके गहन राजनीतिक संबंध होते हैं और ये लेन-देन के सिद्धान्त पर कार्य करते हैं। नेता अपनी राजनीति में धार्मिकता लाते हैं, जबकि ये संत-महात्मा सामाजिक सुधार और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात भी करते हैं। आपको याद होगा कि विवादास्पद तांत्रिक चन्द्रास्वामी, जो पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के कार्यकाल के दौरान एक प्रभावशाली सत्ता के दलाल थे और वह ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर, एलिजाबेथ टेलर और अंडरवल्र्ड डॉन दाऊद इब्राहीम के आध्यात्मिक गुरु भी थे, जब उनका नाम राजीव गांधी की हत्या के मामले में उछला तो वह गुमनाम हो गए। उन्हें 1996 में लंदन के एक व्यापारी को धोखा देने के मामले में गिरफ्तार किया गया और उसी वर्ष मई में उनकी मौत हो गई। इसी तरह इंदिरा गांधी के धीरेन्द्र ब्रह्मचारी गुरु थे।
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा भोजनालयों और खाने-पीने की वस्तुएं बेचने वाले रेहड़ी-पटरी वालों को उनके मालिकों के नाम को प्रदॢशत करने के निर्देश को आप किस रूप में देखते हैं। ऐसा कांवड़ यात्रा के दौरान किया गया और इसी को हिमाचल प्रदेश के एक मंत्री ने भी लागू करवाया, हालांकि उच्च कमान से उन्हें फटकार मिली। उल्लेखनीय है कि उच्चतम न्यायालय के 2017 के एक निर्णय में न्यायालय की सात न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने कहा था कि कोई भी राजनेता धर्म या जाति के नाम पर वोट नहीं ले सकता। निश्चित रूप से इन दिशा-निर्देशों का उल्लंघन अधिक किया गया। समय आ गया है कि भारत धार्मिक पूर्वाग्रहों के जाल से बाहर निकले और धर्म को राज्य से अलग करे, राज्य का संविधान के अलावा कोई धर्म नहीं होता। इसके लिए सुदृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। कुल मिलाकर हर कीमत पर सत्ता प्राप्त करने के लिए लालायित हमारे नताओं को वोट बैंक की राजनीति से परे सोचना होगा और धार्मिक मुद्दों को उठाने से बचना होगा। हमारे नेताओं के संवैधानिक पद से अपेक्षा की जाती है कि वे विवेक और संयम का इस्तेमाल करें। पाॢटयों को इस बात को समझना होगा कि उनके कृत्यों के चलते नुकसान स्थायी हो सकता है। घाव पीढिय़ों तक नहीं भरते। क्या नेता इस बात पर ध्यान देंगे?-पूनम आई. कौशिश