Edited By ,Updated: 20 Feb, 2024 06:08 AM
जब से किसानों ने एम.एस.पी. के सवाल पर फिर से हुंकार भरी है, तब से सारा सरकारी अमला और दरबारी मीडिया झूठ के पुलिन्दे लेकर पिल पड़ा है। राजनीति में झूठ हमेशा अर्धसत्य के सहारे खड़ा किया जाता है।
जब से किसानों ने एम.एस.पी. के सवाल पर फिर से हुंकार भरी है, तब से सारा सरकारी अमला और दरबारी मीडिया झूठ के पुलिन्दे लेकर पिल पड़ा है। राजनीति में झूठ हमेशा अर्धसत्य के सहारे खड़ा किया जाता है। तिल बराबर सच पर झूठ का अंबार लगाया जाता है। यही किसानों की एम.एस.पी. की मांग के साथ हो रहा है। किसानों की मांग सीधी-सादी है। पिछले साठ साल से सरकारें एम.एस.पी. यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य का ढकोसला चला रही हैं। यानी कि सरकारें खुद मानती हैं कि इन फसलों पर किसानों को कम से कम इतना दाम तो मिलना चाहिए जो सरकार द्वारा घोषित किया जाता है।
किसान बस इतना चाहते हैं कि इस दाम को ठीक से तय किया जाए और तय दाम मिलने की गारंटी हो। परंतु सत्ता को यह मंजूर नहीं। इसलिए अब किसानों की इस मांग को लेकर अनेक झूठ फैलाए जा रहे हैं।
पहला झूठ तो खुद प्रधानमंत्री ने फैलाया था - एम.एस.पी. थी, है और रहेगी। सच यह है कि देश की 85 प्रतिशत से अधिक फसलों को सरकारी एम.एस.पी. नहीं मिलती है। अधिकांश फसलें सरकारी भाव से नीचे बिकती हैं। मतलब, एम.एस.पी. कागज पर थी, है और रहेगी।
दूसरा झूठ : भाव बाजार तय करता है, सरकार नहीं। लेकिन अगर ऐसा है तो सरकार मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन क्यों तय करती है? उपभोक्ता को बचाने के लिए एम.आर.पी. क्यों बांधती है? अगर खाद्यान्न में कोई दखल नहीं देने की नीति है तो आटा-दाल, प्याज आदि का दाम बढऩे पर सरकार बंदिश क्यों लगाती है? पूरा सच रेट तय करने में बाजार और सरकार दोनों की भूमिका है और होनी चाहिए।
तीसरा झूठ : संपूर्ण या सी-2 लागत का डेढ़ गुना का स्वामीनाथन फार्मूला गलत है चूंकि इसमें किसान की अपनी जमीन की कीमत शामिल है। लेकिन अगर व्यापार और उद्योग की लागत में अपनी दुकान या फैक्टरी का किराया जोड़ा जाता है तो किसान के लिए क्यों नहीं? और अगर डा. स्वामीनाथन इतनी गलत सिफारिश कर रहे थे तो उन्हें भारत रत्न से क्यों नवाजा गया? पूरा सच यह फार्मूला सर्वमान्य सिद्धांत पर आधारित है।
चौथा झूठ : किसान बाकी को छोड़कर सिर्फ चुङ्क्षनदा 23 फसलों की गारंटी चाहते हैं। यह सरासर झूठ है। पूरा सच ये 23 फसलें सरकार ने तय की हैं, किसान तो फल-सब्जी, दूध, अंडा समेत सभी फसलों का समर्थन मूल्य चाहते हैं।
पांचवां झूठ : एम.एस.पी. की मांग सिर्फ पंजाब व हरियाणा की मांग है, उन्हें ही फायदा होगा। सच बिल्कुल उलटा है। किसान आंदोलन की मांग है कि एम.एस.पी. का फायदा पूरे देश के सभी राज्यों के किसानों को मिले। पूरा सच इसका असली फायदा तो शेष भारत के उन राज्यों को मिलेगा जो अभी इसके दायरे से बाहर हैं।
छठा झूठ: एम.एस.पी. का फायदा सिर्फ अमीर किसान को होगा। यह बात तब सच होती अगर अपनी फसल बाजार में बेचने वाला हर किसान अमीर मान लिया जाए। सच यह है कि जो किसान अपनी फसल बाजार तक नहीं ले जा सकते उन्हें भी बाजार दाम बढऩे से फायदा होगा। पूरा सच इसका फायदा अंतिम किसान तक पहुंचेगा।
सातवां झूठ : एम.एस.पी. देने से गेहूं और धान पर निर्भरता बढ़ेगी। सच ठीक इसका उलटा है। अगर सरकार गेहूं और धान के अलावा सभी फसलों पर एम.एस.पी. देना शुरू कर दे तो पंजाब और हरियाणा का किसान खुद धान की जगह दूसरी फसल लगाने लग जाएगा। पूरा सच: यह फसल विविधता की प्रभावी गारंटी है।
आठवां झूठ : एम.एस.पी. देने से खजाना खाली हो जाएगा। एम.एस.पी. देने में 10 लाख करोड़ खर्चे की बात करना जनता को डराने की बचकाना कोशिश है। सच यह है कि एम.एस.पी. देने के लिए सारी फसल की सरकारी खरीद की जरूरत नहीं है। वैसे भी सरकार जो फसल खरीदती है, उसे आग नहीं लगा देती, बाद में उसे बेचती भी है। खऱीद मूल्य और बिक्री मूल्य का अंतर सरकार का खर्च है। ‘क्रिसिल’ संस्था के अनुमान के अनुसार पिछले साल सरकार का खर्च सिर्फ 21000 करोड़ था जो केंद्र सरकार के बजट का 0.5 प्रतिशत से भी कम होता।
अगर स्वामीनाथन आयोग के फार्मूले से एम.एस.पी. देने का खर्च 2 लाख करोड़ भी हो तो देश के बहुसंख्यक अन्नदाता के लिए इतना खर्च वाजिब है। यूं भी केंद्र सरकार 2 लाख करोड़ हर साल अपने उद्योगपति मित्रों को टैक्स की छूट और सबसिडी के रूप में देती है। पूरा सच: मित्रों को दिए दान से कम खर्च एम.एस.पी. में होगा।
नौवां झूठ : एम.एस.पी. देने से महंगाई बढ़ेगी। यह बात भी सही नहीं है। चूंकि किसान को तो बहुत छोटा हिस्सा मिलता है। महंगाई के जिम्मेदार बिचौलिए हैं, अगर उन पर काबू पा लिया जाए तो महंगाई नहीं बढ़ेगी। वैसे भी गरीबों को सस्ता खाना देने की जिम्मेदारी गरीब किसान के कंधे पर क्यों? पूरा सच : एम.एस.पी. से दाम पर मामूली असर पड़ेगा, सरकार चाहे तो काबू कर सकती है।
दसवां झूठ : सरकार के लिए कानूनी गारंटी देना असंभव है। अगर ऐसा था तो खुद मोदी जी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में 2011 में एम.एस.पी. को कानूनी दर्जा देने की बात क्यों की थी? यूं भी सरकार अगर राशन और मनरेगा की कानूनी गारंटी दे सकती है तो अन्नदाता को कानूनी गारंटी क्यों नहीं? पूरा सच: इसे लागू करना बाकी सरकारी योजनाओं से आसान है। -योगेन्द्र यादव