Edited By ,Updated: 28 Jun, 2024 05:22 AM
मैं हर्ष मंदर का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं जो एक भूतपूर्व आई.ए.एस. अधिकारी हैं, जिन्होंने 2002 में गुजरात सरकार द्वारा निर्दोष मुसलमानों के नरसंहार को नियंत्रित करने के अपने राजधर्म को निभाने में विफल रहने के विरोध में इस्तीफा दे दिया था।
मैं हर्ष मंदर का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं जो एक भूतपूर्व आई.ए.एस. अधिकारी हैं, जिन्होंने 2002 में गुजरात सरकार द्वारा निर्दोष मुसलमानों के नरसंहार को नियंत्रित करने के अपने राजधर्म को निभाने में विफल रहने के विरोध में इस्तीफा दे दिया था। मुझमें हर्ष जैसा साहस नहीं है और न ही मुझमें कभी उस स्तर का साहस था। हर्ष ने अपने असंख्य प्रशंसकों को, जिनमें मैं भी शामिल हूं बताया कि उनका अगला लेख ‘हाल के चुनावों में भारतीय मुसलमानों के राजनीतिक दानवीकरण, विलोपन और परित्याग’ के विषय पर होगा। उन्होंने इसे ‘अपरिचित होने का संकट’ कहा। उत्तर प्रदेश में मतदान के दौरान हुई एक घटना ने मेरा ध्यान खींचा। एक आधुनिक, शिक्षित, मुस्लिम लड़की अपनी बहन के साथ बूथ पर आई। बूथ पर ड्यूटी पर मौजूद अधिकारियों ने अपने पास मौजूद सूचियों के पन्नों को देखा और लड़कियों को बताया कि उनका नाम उसमें नहीं है।
जिस लड़की ने इस घटना की सूचना दी, वह मतदाता सूची की जांच के लिए पहले ही केंद्र पर गई थी। उसका और उसकी बहन का नाम सूची में था। उसने दोबारा जांच की मांग की, जो अधिकारियों ने की। उनके नाम सूची में थे। लड़कियों ने अपने अधिकार और कत्र्तव्य के रूप में मतदान किया। वे पढ़ी-लिखी लड़कियां थीं, उन्हें अपनी क्षमताओं पर भरोसा था। मतदान केंद्र से बाहर निकलने पर उन्हें बुर्का पहने महिलाओं का समूह मिला, जिन्हें बताया गया था कि वे मतदान नहीं कर सकतीं क्योंकि उनका नाम सूची में नहीं है। वे हमारी लड़की की तरह समझदार नहीं थीं कि अपनी बात से पलट जातीं। भाजपा जानती थी कि अल्पसंख्यकों का वोट उनके खिलाफ जाएगा। ऐसी अफवाह थी कि उन्होंने जीत सुनिश्चित करने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाए। फिर भी भाजपा शासित उत्तर प्रदेश में यह विफल रहा।
चुनाव आयोग को साहसी लड़की की शिकायत पर कार्रवाई करनी चाहिए थी। मैंने खुद इसे इंटरनैट पर पढ़ा। चुनाव आयोग ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की। ऐसे स्पष्ट चुनावी अपराधों की जांच के लिए नैट और सोशल मीडिया को कवर किया जाना चाहिए था, खासकर तब जब इसमें चुनाव ड्यूटी पर मौजूद अधिकारी शामिल थे। मैं हर्ष से सहमत हूं कि मोदी/शाह की भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद भारतीय मुसलमानों की स्थिति डांवाडोल हो गई है। भाजपा की प्रचार टीम इस बात से इन्कार कर सकती है ताकि पार्टी की पीठ थपथपाई जा सके और पश्चिमी ताकतें, जिनके साथ हम अब जुड़े हुए हैं, हमारी सरकार के बारे में अच्छा सोचें। लेकिन मुस्लिम समुदाय अपनी छवि बदलने के लिए बहुत कुछ कर सकता है।
यह देखना वाकई दुखद है कि भारत में असंख्य मुस्लिम महिलाओं को जानबूझ कर पिछड़ा रखा जाता है और उनके साथ संपत्ति जैसा व्यवहार किया जाता है। मैं भारतीय मुस्लिम महिलाओं की बात कर रहा हूं। मैं खास तौर पर गरीबी में जी रहे परिवारों की गरीब, अशिक्षित महिलाओं की बात कर रहा हूं। व्यक्तिगत रूप से, मेरे कई मुस्लिम दोस्त हैं,लेकिन वे विशेषाधिकार प्राप्त, संपन्न वर्ग से संबंधित हैं जो मेरी तरह सोचेंगे और जीवन को वैसे ही जीएंगे जैसे मैं सोचता हूं। मैं अभी नैटफ्लिक्स पर ‘ब्लैक मनी’ नामक एक तुर्की धारावाहिक देख रहा हूं। मुस्तफा कमाल अतातुर्क द्वारा शुरू किए गए सुधारों के बाद उस इस्लामी देश में महिलाएं पूरी तरह से आजाद हो गई हैं।
भारत में मुस्लिम समुदाय को आंतरिक सुधार शुरू करने की जरूरत है। सबसे पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनकी सभी महिलाएं साक्षर बनें। इसे आगे बढऩा चाहिए और सुनिश्चित करना चाहिए कि वे शिक्षित हों और खुद के लिए सोचने में सक्षम हों। केरल ने सौ प्रतिशत साक्षरता हासिल कर ली है। इसने मानव प्रजनन दर को नियंत्रित करने में सफलता प्राप्त की है। कांग्रेस के खिलाफ भाजपा का मुख्य आरोप यह था और आज भी है कि कांग्रेस ने वोटों के लिए मुस्लिम समुदाय को लाड़-प्यार दिया। गरीब मुसलमान, पुरुष और महिलाएं आज भी उतने ही असहाय और वंचित हैं जितने पहले थे। मुस्लिम समुदाय में मजबूत नेता उभरने चाहिएं जो मुल्लाओं के ‘फतवों’ को चुनौती दें।
महिलाओं को पराधीन रखना और उन्हें भिक्षुओं के वस्त्र पहनने के लिए मजबूर करना जैसे सभी रूढि़वादी प्रथाएं समाप्त होनी चाहिएं। कोई भी समुदाय जो महिलाओं को पिछड़ा रखता है, आज की अत्यधिक प्रतिस्पर्धी दुनिया में आगे नहीं बढ़ सकता। जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो वे चाहते थे कि मैं जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बन जाऊं। मैं उनसे दिल्ली में उनके निवास पर मिला और अपने जन्म के शहर में शांति और सद्भाव सुनिश्चित करने के लिए जो काम कर रहा था, उसका विवरण उन्हें दिया। लंदन से फारूक अब्दुल्ला ने मुझे जो 2 फोन कॉल किए, उनमें मुझे वही विवरण दोहराना पड़ा। हालांकि सबसे मुश्किल लोग प्रधानमंत्री या जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री नहीं थे, बल्कि पुलिस पदानुक्रम में तत्कालीन पितामह के.एफ. रुस्तमजी थे, जो बी.एस.एफ. और सरकार से सेवानिवृत्त होने के बाद मुंबई में अपनी पत्नी के पारिवारिक फ्लैट में रहने लगे थे।
प्रधानमंत्री ने रुस्तमजी को मुझे अपना प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए मनाने का काम सौंपा था। रुस्तमजी को ‘नहीं’ कहना एक कठिन काम था, लेकिन श्रीमती रुस्तमजी मेरी मदद के लिए आईं। उन्होंने समझा कि हमारे (उनके और मेरे) शहर में सांप्रदायिक शांति की अवधारणा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। मैंने मोहल्ला समिति के कार्यकत्र्ताओं से इस बारे में बात की, जब वे कुछ दिन पहले ही मेरा 95वां जन्मदिन मना रहे थे। वे इस बात से बहुत खुश थे कि उनके गुरु ने उनके काम को राज्यपालों से कहीं ज्यादा अहमियत दी है। अटल बिहारी के शासन में राज्यपालों को विपक्षी सरकारों को गिराने का काम नहीं सौंपा जाता था। यह सम्मान की बात थी। लेकिन झुग्गी-झोपडिय़ों में रहने वाले लोगों के चेहरों पर मुस्कान ज्यादा आकर्षक थी।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)