हिंसा से नहीं विकास से होगा नक्सलवाद का खात्मा

Edited By ,Updated: 08 Oct, 2024 06:35 AM

naxalism will be eradicated by development not by violence

लोकतंत्र का रास्ता छोड़ कर हथियारों के बल पर क्रांति  लाने का ख्वाब पाले नक्सलियों को इसकी कीमत अपने खून से लगातार चुकानी पड़ रही है। हथियारों के बल पर हिंसा के जरिए दहशत फैलाने वाले नक्सलियों को यह समझ में नहीं आया कि क्रांति वहां होती है, जहां...

लोकतंत्र का रास्ता छोड़ कर हथियारों के बल पर क्रांति  लाने का ख्वाब पाले नक्सलियों को इसकी कीमत अपने खून से लगातार चुकानी पड़ रही है। हथियारों के बल पर ङ्क्षहसा के जरिए दहशत फैलाने वाले नक्सलियों को यह समझ में नहीं आया कि क्रांति वहां होती है, जहां राजशाही या तानाशाही का शासन हो। लोकतंत्र में लोकतांत्रिक तरीकों से अपनी मांग मनवाई जा सकती है। इसका सीधा रास्ता है चुनाव की प्रक्रिया के जरिए अपने मनपसंद प्रतिनिधियों को चुनना और कानून बनवाना।

इसके विपरीत हथियारों के बलबूते ङ्क्षहसा के रास्ते पर चलने का नतीजा खून-खराबे के अतिरिक्त कुछ नहीं हो सकता। नक्सली प्रभावित इलाकों में सुरक्षा बलों की लगातार कसती जा रही घेराबंदी में बड़ी तादाद में युवा नक्सलियों की जान जा रही है। छत्तीसगढ़ में नारायणपुर-दंतेवाड़ा सीमा के पास सुरक्षाबलों ने नक्सलियों के साथ जंगल में हुई मुठभेड़ में 32 माओवादियों को मौत के घाट उतार दिया। अब तक ऐसी सैंकड़ों मुठभेड़ों में भटके हुए युवा हजारों की संख्या में अपनी जान गंवा चुके हैं। सुरक्षा बलों की संख्या और मजबूती के सामने नक्सली कहीं नहीं टिक सकते। यह जानते हुए भी कि नक्सलवाद एक हारी हुई लड़ाई है, गुमराह नक्सली जान देने पर आमादा हैं।

इससे ज्यादा अफसोसजनक बात क्या हो सकती है, बदलाव के लिए जिन युवाओं के हाथों में कलम, कम्प्यूटर या ऐसे ही समाज और राष्ट्र निर्माण के उपकरण हो सकते हैं, उनके हाथों में हथियार हैं। इसमें भी उन्हें कहीं चैन-सुकून नहीं है। पुलिस की गोली जंगलों में कब उनका काम तमाम कर दे, इसका डर उन्हें दिन-रात सताता रहता है। परिवार और समाज से दूर यायावरों की तरह जंगलों में भटकने वाले नक्सलियों पर हर वक्त मौत का साया मंडराता रहता है। देश की आजादी को 75 साल से ज्यादा हो गए। देश में बदलाव लाने के लिए नक्सलियों के हिंसात्मक आंदोलन को भी 6 दशक से ज्यादा का समय हो गया। नक्सलियों का दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है। 

नक्सलवाद की शुरुआत पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव नक्सलबाड़ी से हुई थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने सरकार के खिलाफ 1967 में एक मुहिम छेड़ी थी। देखते ही देखते यह एक आंदोलन बन गया और चिंगारी फैलने लगी। इस आंदोलन से जुड़े लोगों ने खुद सरकार के खिलाफ हथियार उठा लिए। यह विद्रोह उन किसानों का था, जो जमींदारों के अत्याचार से परेशान हो चुके थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि जंगलों में पैतृक अधिकारों से वंचित आदिवासियों ने सरकारी तंत्र के जुल्म-सितम से तंग आकर कोई विकल्प नहीं देख कर नक्सली विचारधारा का दामन थामा।   

राज्यों की सरकार ने दशकों तक इन इलाकों में विकास को तरजीह नहीं दी। इससे नक्सलियों के कुप्रचार का रास्ता और भी आसान हो गया। यही वजह रही कि पश्चिमी बंगाल से शुरू हुआ नक्सलवाद सीमावर्ती राज्यों में फैलता चला गया। बीते दशकों के दौरान नक्सलियों और सुरक्षाबलों को भारी जनहानि उठानी पड़ी। नक्सलियों के प्रभाव वाले क्षेत्रों में विकास कार्य ठप्प पड़ गए। इसका फायदा उठा कर कट्टर नक्सलियों को युवाओं को बहकाने का मौका मिल गया।

नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिए केंद्र और राज्यों ने दो स्तरीय नीति बनाई। आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए राहत पैकेज और ङ्क्षहसा करने वालों के प्रति सख्ती की नीति अपनाई।
इसी के तहत राज्यों में आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को अनुग्रह राशि देने का प्रावधान किया गया। इनके पुनर्वास की योजना को मंजूरी दी गई। विवाह करने के लिए भी राािश का प्रावधान किया गया ताकि युवा हिंसा का रास्ता छोड़ कर परिवार-समाज के साथ सामान्य जीवन बिता सकें।

इसके अलावा केंद्र और राज्य संयुक्त तौर पर नक्सलियों से निपटने की रणनीति पर लगातार कार्यरत हैं। नक्सलियों के राहत पैकेज की रफ्तार बेशक धीमी हो, किन्तु इसका फायदा उठा कर अब तक बड़ी संख्या में युवा हथियार छोड़ कर सामान्य जीवन व्यतीत करने में सफल रहे हैं। नक्सलियों पर सुरक्षा बलों के दबाव के साथ जरूरत इस बात की है कि विकास की रफ्तार तेज की जाए। नक्सलवाद के जड़ सहित खात्मे के लिए दबाव और विकास की रणनीति जरूरी है। सच्चाई यह भी है कि नक्सल प्रभावित राज्यों में जिस तेजी से विकास होना चाहिए था, वह ऊंट के मुंह में जीरा साबित हुआ है। 

नक्सल प्रभावित इलाके आज भी पानी, बिजली, स्कूल-अस्पताल और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। पिछड़ेपन के ऐसे हालात नक्सलवाद के कुप्रचार का रास्ता आसान बनाते हैं। दशकों तक राज्यों में नक्सली हिंसा की मूल वजह भी विकास में पिछड़ापन रही है। इसके अलावा सरकारी स्तर पर भ्रष्टाचार और लालफीताशाही ने नक्सलवाद की आग में घी का काम किया है। 

इसमें कोई संदेह नहीं कि विकास का आकर्षण नक्सलियों को हथियार डालने के लिए प्रेरित करेगा। देश के अन्य हिस्सों की तरह दुर्गम नक्सली इलाकों में विकास की रफ्तार तेज करनी होगी। नक्सली क्षेत्रों में समर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए पैकेज को प्रचार माध्यमों के जरिए प्रभावी बनाना होगा। राहत पुनर्वास पैकेज की जानकारी नहीं होना भी नक्सलियों के मुख्यधारा में शामिल नहीं होने में प्रमुख बाधा बनी हुई है। इन बाधाओं को हटा कर ही देश के नक्सल प्रभावित राज्यों में अमन-चैन कायम किया जा सकता है। -योगेन्द्र योगी

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