Edited By ,Updated: 17 Sep, 2024 05:15 AM
औपनिवेशक काल में अंग्रेजों ने परिस्थितियों के अनुसार भारतीय दंड संहिता (1860), दंड प्रक्रिया संहिता (1862) संशोधित (1973) व भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 का प्रचलन किया। हालांकि इन कानूनों को बड़े तर्कसंगत व व्यापक रूप से बनाया गया था, मगर समय की मांग...
औपनिवेशक काल में अंग्रेजों ने परिस्थितियों के अनुसार भारतीय दंड संहिता (1860), दंड प्रक्रिया संहिता (1862) संशोधित (1973) व भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 का प्रचलन किया। हालांकि इन कानूनों को बड़े तर्कसंगत व व्यापक रूप से बनाया गया था, मगर समय की मांग के अनुसार इनमें परिवर्तन लाना आवश्यक था। इसके लिए विभिन्न अंतरालों में कई समितियां बनाई गईं। उदाहरणत: जस्टिस मलीमथ समिति, न्यायमूर्ति वर्मा समिति, रणवीर सिंह समिति व अंत में विधि आयोग ने अपनी-अपनी रिपोर्टों में अपराधों में त्वरित व अधिक सजा रखने की सिफारिशें की थीं। अंतत: इन तीनों कानूनों का नया प्रारूप तैयार किया गया जिनका नाम क्रमश: भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक संहिता व भारतीय साक्ष्य संहिता रखा गया है। यह तीनों एक्ट इसी वर्ष प्रथम जुलाई से लागू कर दिए गए हैं। इन कानूनों में जिन आधारभूत बातों में परिवर्तन लाया गया है, इनका विवरण इस प्रकार से है:-
1) नए कानूनों में दंड़ की जगह त्वरित न्याय देने पर बल दिया गया है।
2) तीन वर्ष की सजा वाले मुकद्दमों में दोनों पक्षों की सहमति से मुकद्दमों का निष्पादन किया जा सकता है ।
3) साधारण प्रवृत्ति वाले मुकद्दमों में सजा के स्थान पर सामाजिक कार्यों के लिए बाधित किया जाएगा। बलात्कार व मॉबलिंचिंग जैसे अपराधों में फांसी तक की सजा का प्रावधान किया गया है ।
4) किसी भी मुकद्दमे को पुलिस द्वारा 6 माह से ज्यादा लम्बित नहीं रखा जाएगा।
5) पुलिस को 90 दिनों के भीतर पीड़ित व्यक्ति को मुकद्दमे की मौजूदा स्थिति के बारे में अवगत करवाना होगा।
6) यदि कोई मुकद्दमा रद्द किया जाना है तो फरियादी को इस संबंध में अवगत करवाना आवश्यक है।
7) 15 साल तक के बच्चों, महिलाओं व 60 वर्ष से अधिक आयु वाले लोगों को थाने में नहीं बुलाया जाएगा।
8) प्रथम सूचना रिपोर्ट (स्न.ढ्ढ.क्र.) किसी भी थाने में लिखवाई जा सकती है।
9) सात साल से अधिक सजा वाले मुकद्दमों में फारैंसिक अन्वेषण करना आवश्यक बनाया गया है।
10) तलाशी व जब्ती के समय वीडियोग्राफी करना न केवल आवश्यक बल्कि उसकी एक डिजीटल कॉपी 48 घंटे के अंदर न्यायालय तक पहुंचानी होगी।
11) किसी भी बड़ी सजा को पूरी तरह से माफ नहीं किया जा सकता। मृत्युदंड को आजीवन कारावास में, 10 वर्ष की सजा को 7 वर्ष तक व 7 वर्ष तक की सजा को 3 वर्ष तक माफ किया जा सकता है।
12) सरकारी मुलाजिम, जो अपराधी हों, की अभियोजन स्वीकृति को 4 महीने के अंदर देना आवश्यक होगा।
13) आवश्यकता अनुसार पुलिस को बिना कोर्ट की इजाजत से मुलजिमों को हथकड़ी लगाने का अधिकार दिया गया है।
14) इसी तरह न्यायालयों के लिए भी त्वरित कार्रवाई करने हेतु कुछ नियम बनाए गए हैं ताकि पेशी दर पेशी वाली प्रथा पर रोक लगाई जा सके। न्यायालय को दोषी पर लगने वाले चाॢजस 60 दिनों के भीतर लगाने होंगे तथा सुनवाई समाप्त होने के 45 दिन के भीतर फैसला सुनाना होगा।
15) इसके अतिरिक्त और भी कई परिवर्तन किए गए हैं जिनसे लोगों को त्वरित न्याय मिल पाएगा।
मगर इन कानूनों में लाए गए परिवर्तनों से पुलिस के कार्य को न केवल वैसे ही यथावत रखा गया है बल्कि काफी पेचीदा भी बना दिया गया है। पुलिस के प्रति अविश्वास की भावना में कोई परिवर्तन नहीं लाया गया है।
1) अभियोजन पक्ष को कहीं भी जिम्मेदार नहीं ठहराया गया है जोकि किसी अपराधी को सजा दिलवाने में मुख्य भूमिका निभाते हैं और जब अपराधी सजामुक्त हो जाते हैं तब पुलिस को दोषी ठहराया जाएगा।
2) पुलिस के पहले की तरह ही (भारतीय नागरिक सुरक्षा अधिनियम की धारा 179 के अंतर्गत) किसी गवाह/ अपराधी के बयानों पर हस्ताक्षर करवाने की मनाही है। कितनी विडम्बना है कि पुलिस द्वारा लिखे गए बयानों से गवाह न्यायालय जाकर मुकर जाते हैं तथा अपराधी सजामुक्त हो जाते हैं।
3) नए एक्ट की धारा 105 के अंतर्गत पुलिस को तलाशी व जब्ती की रिकाॄडग की डिजिटल कॉपी न्यायालय में 48 घंटे के अंतर्गत पहुंचानी होगी। यहां यह बताना उचित है कि कम्प्यूटर में एक विशेष ‘एप’ के अंतर्गत इस रिकाॄडग को सुरक्षित रखा जाता है तथा बयानों की एक ‘हैश वैल्यू’ निकाली जाती है जिसे दोबारा चाहने पर भी बदला नहीं जा सकता तथा ऐसे में इस रिकाॄडग का न्यायालय में 48 घंटे के अंदर भेजने का कोई औचित्य नहीं हैं।
4) पुलिस गवाहों व अपराधियों के बयानों पर दस्तखत नहीं करवा सकती तथा महत्वपूर्ण मुकद्दमों में पुलिस को ऐसे बयान अन्वेषण के दौरान न्यायालय में करवाने पड़ते है। यह प्रावधान पहले धारा 164 के अंतर्गत था तथा अब यह धारा 183 के अंतर्गत करवाने ही पड़ रहे हैं तथा अधिकरियों को कोर्टों के चक्कर यथावत लगाने पड़ रहे हैं। यह अधिकार पुलिस मैजिस्ट्रेटों, पुलिस कमिश्नर पद्धति को भी नहीं दिए गए हैं। क्या यह अधिकार पुलिस के उच्चाधिकारियों को नहीं दिए जा सकते थे? हमारे नेताओं को कानून का ज्यादा पता नहीं होता तथा विधि-विधाता जो प्रारूप बनाकर लाते हैं। उन्हें वैसा ही स्वीकार कर लिया जाता है। न तो पुलिस की सुख-सुविधाओं की ओर वांछित ध्यान दिया जाता है और न ही पुलिस पर विश्वास की भावना को जागृत किया गया है।-राजेन्द्र मोहन शर्मा डी.आई.जी. (रिटायर्ड) हि.प्र.