Edited By ,Updated: 08 Jun, 2024 05:57 AM
राजनीति केवल आंकड़ों का खेल नहीं, अपितु यह राजनीतिक सूझबूझ और हालात के करवट बदलने पर ठीक समय पर ठीक निर्णय लेने की कला भी है। यह अभूतपूर्व गुण बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यूनाइटेड) के अध्यक्ष नीतीश कुमार में विद्यमान है।
राजनीति केवल आंकड़ों का खेल नहीं, अपितु यह राजनीतिक सूझबूझ और हालात के करवट बदलने पर ठीक समय पर ठीक निर्णय लेने की कला भी है। यह अभूतपूर्व गुण बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यूनाइटेड) के अध्यक्ष नीतीश कुमार में विद्यमान है।
18वीं लोकसभा के चुनाव नतीजों के रुझान जैसे ही धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगे और भारतीय जनता पार्टी ‘400 के पार’ के दावों के विपरीत 240 पर जाकर अटक गई, तो सभी की नजरें नीतीश कुमार (जिनके 12 सांसद चुने गए हैं) और चंद्रबाबू नायडू (जिनकी पार्टी तेलुगू देशम पार्टी के 16 सांसद चुने गए हैं) पर टिक गईं। नैशनलिस्ट कांगे्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार ने 4 जून को यूं ही नीतीश को फोन करके राजनीतिक पांसा नही फैंका था, क्योंकि वह भांप गए थे कि नीतीश कुमार की अब वास्तविक राजनीतिक शक्ति कितनी महत्वपूर्ण है। पर नीतीश कुमार और श्री नायडू ने पवार के झांसे में आने से स्पष्ट इंकार कर दिया।
नीतीश कुमार वास्तव में 2024 के आम चुनाव से एक वर्ष पहले ही विपक्ष की एकता के मिशन के सूत्रधार थे और उन्होंने तब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से लेकर दक्षिण भारत के दिग्गजों नवीन पटनायक, चन्द्रबाबू नायडू आदि से स्वयं जाकर मुलाकातें कीं और इस उद्देश्य के लिए उन्हें लामबंद करने लिए अनथक यत्न किए। चुनाव के निकट आने पर कांग्रेस के नेता राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे ने अपनी ओर से विपक्ष को एकजुट करने के लिए शेष विरोधी दलों के नेताओं के साथ-साथ नीतीश को भी इसके लिए निमंत्रित किया था, तो वहां बैठकों में नीतीश कुमार के यत्नों को अनदेखा कर दिया गया। उन्हें विपक्षी गठजोड़ का संयोजक भी न बनाया गया, हालांकि वह इसके हकदार थे।
जब विपक्ष समेत कांगे्रेस की ओर से बुलाई गई लगातार 2 बैठकों में नीतीश को पूरा महत्व देने की बजाय उन्हें किसी योजना के तहत जानबूझ कर दरकिनार कर दिया गया तो यह सलूक देख कर नीतीश ने ऐसी कोशिशों से किनारा कर लिया। इसके पश्चात् मोदी एवं भाजपा नेतृत्व ने नीतीश को सम्मान दिया और वह राजग में लौट आए थे। पंजाबी में कहावत है ‘‘गौं भुुनावे जौं भांवें गिल्ले होन’’-भाव यह कि जब राजनीतिक जरूरत हो तो गीले जौं भी भुनने के लिए स्वीकार्य होते हैं-यही हाल अब विपक्ष का है। नोट करने वाली बात यह भी है कि राहुल गांधी ने चुनाव परिणाम आने पर सीधे नीतीश कुमार को फोन करके सहायता मांगने की अपेक्षा यही काम अपने सहयोगी शरद पवार से कराना उचित समझा क्योंकि यह तो राहुल को भी ज्ञात था कि विपक्ष की एकता के सूत्रधार रहे नीतीश कुमार को किस तरह उन्हीं की बैठकों में दरकिनार कर दिया गया था।
यह अच्छा ही हुआ कि नीतीश कुमार और चन्द्रबाबू नायडू ने भी शरद पवार द्वारा 4 जून को किए गए टैलीफोनों को सुना तो जरूर मगर कोई भाव नहीं दिया। यह तो कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष को भी दिखाई दे रहा था कि आज देश की राजनीति जिस मोड़ पर खड़ी है, वहां से आगे जाने हेतु खेवनहार नीतीश और चंद्रबाबू ही हैं क्योंकि इन दोनों के सामूहिक सांसदों की गिनती 28 बनती है और इसीलिए उन्होंने सोचा कि यह दोनों नेता यदि पाला बदल लें तो नरेंद्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने से रोका जा सकता है। ‘इंडिया’ के 234 उम्मीदवार जीत चुके थे और 234+28=262 का जोड़ अब विपक्ष की नैया को पार लगाने के करीब ला सकता है। कुछ अन्य जीते सांसदों ने भी कांग्रेस का समर्थन करने की बात कह दी थी। इस प्रकार ‘इंडिया’ गठजोड़ जोड़-तोड़ करके 272 के जादुई आंकड़े के पास पहुंचने की आस लगाए बैठा था।
ध्यान से देखा जाए तो नरेंद्र मोदी और भाजपा के नेतृत्व को भी इस बात का श्रेय देना बनता है कि जब नीतीश ने विपक्ष की एकता की मुहिम में ठोकर खाई तो वह स्वतंत्र होकर राजनीति में विचर रहे थे। इसी समय मोदी ने उन्हें पूरे सम्मान सहित अपने खेमे में बुला लिया और वह राजग का हिस्सा बन गए। कहते हैं कि इतिहास अपने आपको दोहराता है। दिल्ली में जब मुगल शासक कमजोर हुए तो दिल्ली दरबार में 2 बड़े दरबारी उभरे, वह जिसे चाहते दिल्ली का बादशाह बना देते और अनचाहे बादशाह को गद्दी से उतार भी देते थे। इन भाइयों को ‘बादशाह-गर भाई’ (किंगमेकर-बादशाह बनाने वाले) के नाम से जाना जाता है। किसी समय ऐसी ही शक्ति कश्मीरी पंडितों के पास भी थी, वह इतने शक्तिशाली होते थे कि राजा को बनाना और गद्दी से उतारना उनका बाएं हाथ का खेल होता था। आज यही बात सही सिद्ध हो रही है कि वही नीतीश कुमार ‘किंग मेकर’ अर्थात प्रधानमंत्री को स्थापित करने की क्षमता वाले नेता के रूप में उजागर हुए हैं।-ओम प्रकाश खेमकरणी