Edited By ,Updated: 02 Mar, 2025 05:45 AM
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बिहार का विधानसभा चुनाव अभी 8 महीने दूर है लेकिन सरगर्मियां अभी से शुरू हो गई हैं। इसके साथ ही कयासबाजी भी चरम पर है कि नीतीश कुमार होली पर बड़ा ऐलान करेंगे या फिर अगस्त में यानी विधानसभा चुनाव से 3 महीने पहले। ऐसा इसलिए कि पिछले साल लोकसभा चुनाव से...
बिहार का विधानसभा चुनाव अभी 8 महीने दूर है लेकिन सरगर्मियां अभी से शुरू हो गई हैं। इसके साथ ही कयासबाजी भी चरम पर है कि नीतीश कुमार होली पर बड़ा ऐलान करेंगे या फिर अगस्त में यानी विधानसभा चुनाव से 3 महीने पहले। ऐसा इसलिए कि पिछले साल लोकसभा चुनाव से 3 महीने पहले नीतीश कुमार ने ‘इंडिया’ गठबंधन का दामन छोड़ कर एन.डी.ए. का दामन थाम लिया था। वैसे प्रधानमंत्री मोदी को भागलपुर दौरे के दौरान नीतीश कुमार ने उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने के संकेत देकर पलटी मारने की संभावना को पूरी तरह से नकार दिया था।
मंत्रिमंडल विस्तार में भाजपा के 7-7 मंत्रियों की शपथ करवा के भी नीतीश कुमार ने सियासी हवा के बहने की दिशा बता दी थी। बिहार में मामला दरअसल एक तिहाई का है। तीन बड़े दल हैं , एक-एक तिहाई हिस्से पर असर रखते हैं, जहां 2 दल एक साथ होते हैं वह दो तिहाई हो जाता है। इस हिसाब से अभी से कहा जाने लगा है कि मोदी और नीतीश साथ हैं लिहाजा एन.डी.ए. की वापसी तय है लेकिन क्या वास्तव में यह इतना आसान है? सी वोटर का सर्वे एन.डी.ए. से ज्यादा नीतीश कुमार के लिए चिंता का विषय है। सर्वे बताता है कि 41 फीसदी वोटर तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहता है।
नीतीश को सिर्फ 18 फीसदी वोटर मुख्यमंत्री के रूप में चाहता है। इससे भी बड़ी बात है कि 50 प्रतिशत वोटर कह रहा है कि वह नीतीश कुमार से नाराज है और सरकार की वापसी नहीं चाहता। 22 फीसदी नाराज तो है, पर वापसी चाहता है। सिर्फ 25 प्रतिशत ही खुश है और वापसी भी चाहता है जो यह बताता है कि नीतीश कुमार से लोग ऊब रहे हैं, वह बदलाव चाहते हैं।ऊबने या निराश होने वालों में 45 प्रतिशत वह वोटर है जो बेरोजगारी को मुख्य मुद्दा मानता है, यहां शायद वह तेजस्वी यादव पर ज्यादा यकीन कर रहा है जिन्होंने अपने अल्पकालीन उप-मुख्यमंत्री के राज में एक लाख नौकरियां देने का दावा किया था।
कागजों में देखा जाए तो करीब 17 प्रतिशत मुस्लिम और करीब 14 प्रतिशत यादव वोट के साथ तेजस्वी यादव चुनाव में उतर रहे हैं। इसके साथ वाम दलों और कांग्रेस का वोट बैंक जुड़ कर 40 तक पहुंच जाता है लेकिन यह एन.डी.ए. का 6-7 प्रतिशत कम ही बैठता है, जाहिर है कि जब तक महादलितों और गैर यादव महापिछड़ों का वोट महागठबंधन को नहीं मिलता तब तक मोदी-नीतीश की जोड़ी को हराना बहुत मुश्किल काम है । इसके साथ ही तेजस्वी अगर कांग्रेस को कम से कम सीटें देना चाहते हैं तो कांग्रेस भी अपना आधार मजबूत करने का अवसर तलाश रही है, यानी दिल्ली की तरह, सीट के फार्मूले को लालू यादव और मल्लिकार्जुन खरगे राहुल गांधी के साथ मिलकर तय कर पाएंगे या नहीं, इसका जवाब देना मुश्किल है। अब नीतीश कुमार के बेटे निशांत कुमार भले ही पापा को मुख्यमंत्री घोषित करने की मांग कर रहे हों लेकिन भाजपा इशारे कर रही है कि वह ऐसा नहीं सोचती। मोदी ने भागलपुर रैली में इसका जिक्र तक नहीं किया। अमित शाह ने एक कार्यक्रम में इस विषय को टाल दिया था। बिहार के भाजपा नेता कहते रहे हैं कि उनका मुख्यमंत्री होगा तो ही अटल जी को सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकेगी। यहां तक कि चिराग पासवान कह चुके हैं कि जीतने के बाद विधायक दल की बैठक में ही नेता चुना जाएगा। भाजपा भले ही नीतीश कुमार की जगह अपना मुख्यमंत्री चाहती हो लेकिन वह यह बात अच्छी तरह से जानती है कि बिना नीतीश के सत्ता हासिल नहीं की जा सकती ।
नीतीश के पास अभी भी 15-16 फीसदी वोट है। कुछ जानकारों का कहना है कि यह अब कम होकर 10 फीसदी के आसपास ही रह गया है लेकिन बिहार के जातीय समीकरण कुछ ऐसे हैं कि जहां नीतीश कुमार का 10 फीसदी जुड़ेगा वह सत्ता में आ जाएगा। एक मसला सीट बंटवारे का है। अभी तक नीतीश कुमार भाजपा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ते रहे हैं और कम सीटें हासिल करने के बावजूद मुख्यमंत्री बनते रहे हैं। 2010 में नीतीश को 115 और भाजपा को 91 सीटें मिली थीं। 2015 में भाजपा अलग चुनाव लड़ी और 8 फीसदी ज्यादा वोट लेने के बाद भी 53 पर सिमट गई थी। हालांकि कुछ समय बाद दोनों एक हो गए थे । 2020 में नीतीश 115 सीटों पर लड़ते हैं और 43 सीटें पाते हैं। भाजपा 110 पर लड़ती है और 74 सीटें पाती है।
जाहिर है कि 2025 में 2020 जैसी सीट शेयरिंग नहीं होने वाली है। भाजपा तो 140 से ज्यादा पर लडऩा चाहती है और नीतीश को 70-75 से ज्यादा नहीं देना चाहती। आखिर चिराग, कुशवाहा और मांझी को कुल मिलाकर 50 के आसपास सीटें तो देनी ही होंगी। भाजपा अपने हिस्से से कितनी सीटें दे पाएगी? एक सवाल चिराग और नीतीश के वोट बैंक के टकराव का भी है। बिहार में भाजपा चाहती तो ‘ऑपरेशन महाराष्ट्र’ कर सकती थी यानी शिव सेना और एन.सी.पी. की तर्ज पर जद-यू को तोड़ा जा सकता था लेकिन भाजपा को पता था कि अगर वह जद-यू के 90 फीसदी विधायकों को भी तोड़ लेती है तो भी 10 फीसदी वाले नीतीश कुमार लालू यादव का हाथ पकड़ कर भाजपा को सत्ता से दूर कर सकते हैं । यही वजह है कि नीतीश कुमार लाडले हो गए हैं। उनका लाड रखा जा रहा है लेकिन यह सिलसिला कब तक? -विजय विद्रोही-विजय विद्रोही