Edited By ,Updated: 12 Mar, 2025 05:31 AM

हिंदी के राजभाषा बनने से हम हिंदी भाषियों को क्या मिला? एक अदद हिंदी दिवस, जिसकी उबाऊ सरकारी रस्म हमें याद दिलाती है कि बाकी 364 दिन अंग्रेजी दिवस हैं। राजभाषा अधिकारियों की चंद नौकरियां, जिसके सहारे हीनताबोध को आक्रामकता में बदला जा सके। राजभाषा...
हिंदी के राजभाषा बनने से हम हिंदी भाषियों को क्या मिला? एक अदद हिंदी दिवस, जिसकी उबाऊ सरकारी रस्म हमें याद दिलाती है कि बाकी 364 दिन अंग्रेजी दिवस हैं। राजभाषा अधिकारियों की चंद नौकरियां, जिसके सहारे हीनताबोध को आक्रामकता में बदला जा सके। राजभाषा विभाग की बनाई एक कृत्रिम भाषा, जिसे न कोई बोलता, न समझता है। एक झूठी ऐंठ। हिंदी पट्टी की दर्जनों भाषाओं से सौतेला रिश्ता। और गैर हिंदी भाषियों से बिना बात का झगड़ा। इस राजभाषा के झंझट से पिंड क्यों न छुड़ा लिया जाए?
यह सवाल मेरे मन में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के बयान को पढ़कर आया। तमिलनाडु सरकार क्षुब्ध है कि केंद्र ने समग्र शिक्षा योजना के तहत तमिलनाडु की 2000 करोड़ से अधिक राशि इस कारण रोक ली कि वह नई शिक्षा नीति के तहत त्रिभाषा फार्मूले को लागू नहीं कर रही। मुख्यमंत्री का गुस्सा स्वाभाविक था, चूंकि त्रिभाषा फार्मूले से तमिलनाडु की असहमति आज से नहीं, बल्कि 50 साल से जगजाहिर है। इस आधार पर केंद्र के अनुदान को रोकना राजनीतिक शरारत के सिवा कुछ नहीं हो सकता।
वैसे नई शिक्षा नीति के संशोधित त्रिभाषा फार्मूले में हिंदी की कोई अनिवार्यता नहीं है, लेकिन इसे राजनीतिक संदर्भ में डी.एम.के. ने त्रिभाषा सूत्र को पिछले दरवाजे से हिंदी लादने के षड्यंत्र के रूप में देखा और इसके खिलाफ जंग छेड़ दी। मुझे इस बात का दुख हुआ कि केंद्र सरकार की बेजा हरकत के चलते त्रिभाषा सूत्र खामखा बदनाम हो रहा है। दुख और भी गहरा था चूंकि त्रिभाषा सूत्र का सत्यानाश तमिलनाडु ने नहीं, बल्कि हिंदी भाषी राज्यों ने किया था। संस्कृत के बहाने किसी भी गैर हिंदी भाषा को सीखने से छुट्टी लेकर हिंदी भाषी राज्यों ने त्रिभाषा सूत्र की भावना से खिलवाड़ किया। अगर त्रिभाषा सूत्र का मतलब यह है कि गैर हिंदी भाषी तो हिंदी सीखेंगे लेकिन हिंदी भाषी और किसी की भाषा नहीं सीखेंगे तो इससे ङ्क्षहदी के प्रति चिढ़ पैदा होगा स्वाभाविक है।
अपने पलटवार में स्टालिन ने सिर्फ हिंदी लादने की नीति पर ही नहीं, हिंदी भाषा पर भी हमला बोल दिया। अन्य सभी राज्यों के नागरिकों को हिंदी के विस्तारवाद से आगाह करते हुए उन्होंने कहा कि हिंदी भाषा ने उत्तर भारत की दर्जनों भाषाओं को निगल लिया है। अपने बयान में भोजपुरी, मैथिली, अवधी, ब्रज, बुंदेली, गढ़वाली, कुमाउंनी, मगघी, मारवाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, संथाली, अंगिका, हो, खरिया, खोरता, कुर्मली, कुरुक, मुंडारी को गिनाते हुए उन्होंने कहा कि हिंदी ने इन सभी भाषाओं को लगभग खत्म कर दिया है।
किसी राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा एक अन्य भाषा पर ऐसी टिप्पणी मुझे बेजा लगी। यूं भी अनेक भाषाओं को समेट कर एक ‘मानक भाषा’ बनाने का दोष सिर्फ हिंदी को देना गलत होगा। यह प्रक्रिया कमोबेश प्रत्येक आधुनिक भारतीय ‘मानक भाषा’ के निर्माण में दोहराई गई है। मैंने यह कहते हुए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री से अपनी ‘दोस्ताना असहमति’ दर्ज की। बस इतने में उनके सभी समर्थक सोशल मीडिया पर टूट पड़े। मुझे हिंदी वर्चस्ववादी और न जाने क्या-क्या गालियां दी गईं। मुझे दुख तो हुआ, मगर हैरानी नहीं। पिछले कुछ वर्षों में हमने सार्वजनिक संवाद में इस निम्न स्तर की गाली-गलौच और असहिष्णुता की संस्कृति बनाई है कि कुछ बेहतर की उम्मीद करना बेकार होता। लेकिन इस संवाद से मेरे मन में यह सवाल उठा कि अगर हिंदी को राजभाषा का रस्मी दर्जा न होता तो क्या अन्य भारतीय भाषा-भाषियों में हिंदी के प्रति ऐसी शंका और चिढ़ होती? क्या मिला हिंदी को राजभाषा बनने से?
एक बात तो तय है। राजभाषा बनने से हिंदी भाषा का कोई भला नहीं हुआ। ‘असर’ सर्वे की रिपोर्ट हर साल हमें याद दिलाती है कि हिंदी जनपद के राज्यों में स्कूली बच्चों का हिंदी ज्ञान दयनीय है। 5वीं कक्षा के आधे से अधिक बच्चे ङ्क्षहदी की दूसरी कक्षा की किताब का साधारण सा पैरा भी नहीं पढ़ सकते। मेरा अपना अनुभव है कि इन राज्यों में हिंदी माध्यम से बी.ए. के डिग्रीधारी विद्यार्थी हिंदी व्याकरण तो छोडि़ए, वर्तनी भी नहीं जानते। अधिकांश लोग ‘आशीर्वाद’ को ‘आशिर्वाद’ लिखते हैं। कोई 60 करोड़ लोगों की इस भाषा में एक भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का अखबार नहीं है। साहित्य की कुछ अच्छी पत्रिकाएं हैं, लेकिन देश और दुनिया की विवेचना करने वाली ‘दिनमान’ जैसी एक भी पत्रिका जीवित नहीं है। आज भी ज्ञान और विज्ञान की मूलभूत पाठ्य पुस्तकें हिंदी में नहीं हैं। हिंदी भाषी खुद हिंदी बोलने में झेंपते हैं, टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने में शान समझते हैं। हिंदी भाषी संभ्रांत परिवार अपनी बैठक में हिंदी की पत्र-पत्रिका को रखने में हेठी समझते हैं। यह है उस महारानी की हकीकत, जिसके वर्चस्व से बाकी सब आक्रांत हैं!
हिंदी जगत में बहुत कुछ अच्छा हो रहा है, विस्तार भी हो रहा है। हिंदी के लेखक दुनिया का उत्कृष्ट साहित्य रच रहे हैं। हिंदी सिनेमा नवीन प्रयोग कर रहा है। टी.वी. समाचार के जगत में हिंदी चैनलों का बोलबाला है। क्रिकेट कमैंटरी के लिए दर्शक अब हिंदी पर निर्भर नहीं हैं, फिर भी हिंदी सबसे आगे है। विज्ञापनों की दुनिया में भी हिंदी बढ़ी है, चाहे रोमन लिपि में ही। लेकिन यह सब समाज और बाजार की देन हैं, सरकारी राजभाषा से इनका कोई लेना-देना नहीं है। दरअसल सरकारी राजभाषा की संस्कृतनिष्ठ शब्दावली हिंदी के इस स्वाभाविक विकास के रास्ते में अड़चन है।
राजभाषा से हिंदी को मिला है अन्य भारतीय भाषाओं से अलगाव। अपनी समकक्ष और अपने से पुरानी और समृद्ध भाषाओं से सास जैसा व्यवहार करने की फूहड़ प्रवृत्ति। जिन भाषाओं ने हिंदी का पोषण किया, उन्हें बोलियों का दर्जा देकर उनसे सौतेला रिश्ता बनाया। अंग्रेजी के सामने अलग-अलग खड़े होकर सांस्कृतिक स्वराज की लड़ाई हारने की मजबूरी। यह वरदान नहीं श्राप है। आज की हालत से तो कहीं बेहतर होगा कि हम हिंदी भाषा-भाषी जन खुद राजभाषा रूपी इस सिंहासन को हटाने की मांग करें। मतलब यह नहीं कि हिंदी की बजाय अंग्रेजी को राजभाषा बना दें, बल्कि 8वीं अनुसूची की सभी 22 भाषाओं को राजभाषा का दर्जा देने की मांग करें। गैर हिंदी इलाकों में हिंदी के प्रचार-प्रसार को छोड़कर पहले हम हिंदी क्षेत्र में हिंदी को संपन्न बनाएं। हिंदी भाषा को सरकार की बजाय समाज के हाथ में लौटा दें। हिंदी दिवस को मातृभाषा दिवस बनाने की मांग करें, ताकि अंग्रेजी के वर्चस्व का मुकाबला करने के लिए हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं के साथ खड़ी होकर सांस्कृतिक स्वराज की लड़ाई लड़ सके।-योगेन्द्र यादव