Edited By ,Updated: 23 Sep, 2024 05:25 AM
अचानक, मोदी सरकार ने अगले सत्र में संसद में विवादास्पद ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ विधेयक लाने का फैसला किया है। समय बहुत बढिय़ा था क्योंकि इसकी घोषणा उस दिन की गई जिस दिन मोदी ने अपने तीसरे कार्यकाल में 100 दिन पूरे किए। हालांकि यह विचार उचित लगता है और...
अचानक, मोदी सरकार ने अगले सत्र में संसद में विवादास्पद ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ विधेयक लाने का फैसला किया है। समय बहुत बढिय़ा था क्योंकि इसकी घोषणा उस दिन की गई जिस दिन मोदी ने अपने तीसरे कार्यकाल में 100 दिन पूरे किए। हालांकि यह विचार उचित लगता है और हमें धीरे-धीरे इस अवधारणा की ओर बढऩा चाहिए, लेकिन क्या देश इस विचार के लिए तैयार है? क्या इस तरह के कदम के लिए राजनीतिक दलों में आम सहमति है? क्या मोदी के पास संसद में विधेयक पारित कराने के लिए आवश्यक बहुमत है? जबकि भाजपा शासित राज्यों को मनाना अधिक सुलभ हो सकता है। क्या विपक्ष शासित राज्य इस पर सहमत होंगे? ऐसे कई सवाल हैं। कुल मिलाकर, लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत के लिए आवश्यक संख्या जुटाए बिना, संवैधानिक संशोधन पारित नहीं किया जा सकता है। विपक्षी दल इस अवधारणा के पक्ष में नहीं हैं। इनमें कांग्रेस, वामपंथी दल, तृणमूल कांग्रेस और क्षेत्रीय और छोटे दल शामिल हैं। उन्हें डर है कि समकालिक चुनाव भाजपा के पक्ष में हो सकते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी लगातार चुनावों के कारण होने वाली बाधाओं को रोकने के लिए एक राष्ट्र, एक चुनाव की अवधारणा पर जोर दे रहे हैं। मोदी और भाजपा को लगता है कि यह भाजपा के लिए फायदेमंद होगा। उन्होंने अपने पहले 2 कार्यकालों में इसे लाने की कोशिश की, लेकिन असफल रहे। इसके अलावा, भाजपा के घोषणापत्रों में भी इस विचार को शामिल करने का वादा किया गया था। सरकार ने पिछले साल पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था। अपनी रिपोर्ट में पूर्व राष्ट्रपति ने सरकार के प्रस्ताव का समर्थन किया है। समिति ने कार्यान्वयन की निगरानी के लिए एक समिति के गठन का सुझाव दिया है। हालांकि सत्तारूढ़ पार्टी और कोविंद समिति इस विचार का समर्थन करती है, लेकिन इस उपाय को संवैधानिक, कानूनी, राजनीतिक और अन्य बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है। वर्तमान में, राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव अलग-अलग होते हैं, लेकिन 1952 से 1967 तक, भारत में एक ही चुनाव हुआ था। अलग-अलग चुनाव कराने का यह चलन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय में शुरू हुआ था। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करके राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया था, जिसके परिणामस्वरूप चुनाव चक्र बाधित हो गया था।
विधि आयोग 2029 तक सरकार के तीनों स्तरों-लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और स्थानीय निकायों में समकालिक चुनाव कराने का प्रस्ताव भी दे सकता है। प्रधानमंत्री के अलावा, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी मोदी के तीसरे कार्यकाल के 100 दिन पूरे होने पर इस प्रस्ताव के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई। कोविंद समिति ने सभी चुनावों के लिए एक संयुक्त मतदाता सूची का सुझाव दिया है, ताकि मतदाता राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय चुनावों के लिए एक ही सूची का उपयोग करें। इससे मतदाता पंजीकरण में होने वाली त्रुटियों में कमी आएगी। पारदर्शिता और समावेश को बढ़ावा देने के लिए, पैनल का लक्ष्य विभिन्न हितधारकों से प्रतिक्रिया एकत्र करने के लिए देश भर में विस्तृत चर्चा करना है। समिति ने 2 चरणों में कार्यान्वयन का सुझाव दिया है। पहले चरण में लोकसभा और विधानसभाओं के लिए चुनाव होंगे। दूसरे चरण में स्थानीय निकायों और शहरी स्थानीय निकायों के लिए चुनाव होंगे। विपक्षी दलों ने अभी तक इस पर सहमति नहीं जताई है, क्योंकि उनका मानना है कि एक साथ चुनाव कराने से भाजपा को फायदा होगा। कांग्रेस, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी), तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है।
अगली बाधा संविधान में संशोधन की है। यह मुश्किल हो सकता है क्योंकि मोदी के पास लोकसभा में बहुमत नहीं है। संविधान में संशोधन के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है, और भाजपा उससे बहुत दूर है। साथ ही, भारत का संविधान इस बात पर चुप है कि चुनाव एक साथ होने चाहिएं या नहीं। तीसरी चुनौती पर्याप्त सुरक्षा बलों की तैनाती है। चुनाव आयोग को 24 लाख इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों और मतदाता-सत्यापनीय पेपर ऑडिट ट्रेल मशीनों की आवश्यकता होगी। इन रसद चुनौतियों का समाधान किया जाना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात राजनीतिक सहमति है। सरकार विपक्षी दलों को एक राष्ट्र-एक चुनाव के विचार पर सहमत होने के लिए कैसे राजी करेगी? केंद्र को हर राजनीतिक दल से परामर्श करना चाहिए और उन्हें मनाना चाहिए। भले ही यह विधेयक संसद में गिर जाए, मोदी हमेशा दावा कर सकते हैं कि उन्होंने अपने चुनावी वायदे को पूरा करने के लिए वह इसे संसद में लेकर आए थे लेकिन विपक्ष ने इसे विफल कर दिया। हालांकि यह तुरंत संभव नहीं हो सकता है, फिर भी इस पर बहस करने और अंतत: ऐसा करने के तरीके खोजने लायक हैं।-कल्याणी शंकर