राष्ट्रीय दलों की परजीवी राजनीति

Edited By ,Updated: 11 Jul, 2024 05:56 AM

parasitic politics of national parties

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर लोकसभा में चर्चा का उत्तर देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस को एक नया नाम दिया ‘परजीवी’। 18वीं लोकसभा के चुनाव परिणामों के हवाले से मोदी ने बताया कि कांग्रेस अपने बल पर नहीं, बल्कि सहयोगी...

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर लोकसभा में चर्चा का उत्तर देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस को एक नया नाम दिया ‘परजीवी’। 18वीं लोकसभा के चुनाव परिणामों के हवाले से मोदी ने बताया कि कांग्रेस अपने बल पर नहीं, बल्कि सहयोगी दलों के दम पर आगे बढ़ी है। बेशक इन चुनावों में कांग्रेस 52 से 99 सीटों तक पहुंची, तो उसमें ‘इंडिया’ गठबंधन के घटकों के बीच तालमेल का बड़ा योगदान है। जिस उत्तरप्रदेश में कांग्रेस पिछली बार रायबरेली की सीट पर सिमट गई थी, समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर लड़ी 8 सीटों में से 5 जीत गई। गठबंधन किए ही परस्पर लाभ के गणित के आधार पर जाते हैं। परस्पर स्वार्थ पर बने रिश्ते तभी तक चल पाते हैं, जब तक दोनों का स्वार्थ सिद्ध होता है। यह भी सच है कि अक्सर बड़े दल छोटे दलों को निगल जाते हैं, वर्ना कमजोर अवश्य करते हैं। इस मामले में कोई भी राष्ट्रीय दल अपवाद नहीं। 

चुनाव के तुरंत बाद पुराने रिश्ते तोड़ नए रिश्ते बनाने के उदाहरण भी हैं। अब भाजपानीत राजग में भाजपा के बाद जो तेलुगू देशम पार्टी दूसरा बड़ा दल है, वह कभी तेलुगू सिनेमा के सुपर स्टार एन.टी. रामाराव ने बनाई थी। जनता के जबरदस्त समर्थन से वह आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने। एन.टी.आर. के निधन के बाद दामाद चंद्रबाबू नायडू पर तेदेपा पर कब्जा करने के आरोप लगे और उनकी विधवा लक्ष्मी पार्वती ने अलग एन.टी.आर. तेदेपा बना ली। 1998 के चुनाव भाजपा ने उसी एन.टी.आर. तेदेपा से गठबंधन कर लड़े थे, लेकिन जब परिणाम चंद्रबाबू नायडू की तेदेपा के पक्ष में गए तो पुराना रिश्ता तोड़ नया रिश्ता बनाने में देर नहीं लगाई क्योंकि गठबंधन का मकसद आंध्र प्रदेश में अपने पैर जमाना था। नायडू से भाजपा की दोस्ती लंबी चली। 

अहं के टकराव के चलते बीच में टूटी तो राजनीतिक जरूरतों ने फिर साथ ला दिया। अब दोनों ही रिश्ते में जैसी गर्मजोशी दिखा रहे हैं, उसे देख कर कोई विश्वास नहीं कर सकता कि 2018 के बाद ये ही परस्पर आरोप-प्रत्यारोप में न्यूनतम शिष्टाचार की भी सीमाएं लांघ गए थे। दरअसल राजनीति, अब ‘राज’ की ‘नीति’ भर बन कर रह गई है। राज जैसे भी मिले और फिर बना रहे इसी उद्देश्य से तमाम राजनीतिक कवायद की जाती है। बिहार का उदाहरण भी देख लीजिए। 1996 में जब भाजपा के विरुद्ध राजनीतिक अस्पृश्यता चरम पर थी, तब जॉर्ज फर्नांडीज के नेतृत्व वाली समता पार्टी ने प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी के समर्थन का जोखिम लिया था। उसी समता पार्टी का नया नामकरण जनता दल यूनाइटेड हुआ। 

इस लिहाज से जद-यू भाजपा के सबसे पुराने राजनीतिक मित्रों में से है, लेकिन नीतीश कुमार के 2 बार अलगाव के समय दोनों ही दलों ने एक-दूसरे के प्रति जिस गलत शब्दावली का इस्तेमाल किया, वह तो सामान्य व्यवहार में भी उचित नहीं मानी जाती, लेकिन बदलती राजनीतिक जरूरतों के बीच बार-बार रिश्ते भी नि:संकोच बदलते रहे। जद-यू को कमजोर करने के आरोप भी भाजपा पर लगे। 2020 के विधानसभा चुनाव में गठबंधन के बावजूद जद-यू के उम्मीदवारों को हराने के लिए चिराग पासवान की लोजपा के इस्तेमाल का आरोप खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लगाया। 

विधानसभा में मात्र 43 सीटों के साथ तीसरे नंबर पर फिसल कर जद-यू कमजोर हुआ भी। आर.सी.पी. सिंह प्रकरण को भी जद-यू को कमजोर करने की कवायद के रूप में देखा गया, पर हाल के लोकसभा चुनावों से कुछ ही पहले फिर जद-यू और भाजपा फिर दोस्त बन गए। बाल ठाकरे की शिवसेना भी भाजपा के पुराने मित्रों में रही। महाराष्ट्र की राजनीति में भाजपा, शिवसेना के सहारे ही आगे बढ़ी। भाजपा जूनियर पार्टनर थी, इसलिए जनादेश मिलने पर मुख्यमंत्री पद शिवसेना को मिलता रहा और भाजपा को उप-मुख्यमंत्री पद। बाल ठाकरे के निधन के बाद भी शिवसेना से भाजपा का गठबंधन तो बना रहा, पर महत्वाकांक्षाएं बढ़ गईं जिनका परिणाम 2019 में अलगाव के रूप में आया। 

उद्धव ठाकरे ने दावा किया कि चुनाव से पहले अढ़ाई-अढ़ाई साल के मुख्यमंत्रित्वकाल पर समझौता हुआ था, लेकिन भाजपा ने उससे साफ इंकार कर दिया। शरद पवार के तो ठाकरे परिवार से पुराने रिश्ते हैं, पर भाजपा से रिश्तों में आई तल्खी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उद्धव ने उस कांग्रेस से भी हाथ मिला लिया, जिसके विरुद्ध बाल ठाकरे ने शिवसेना बनाई थी। तल्खी एकतरफा नहीं थी। जो भाजपा उद्धव को अढ़ाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद देने को तैयार नहीं हुई, उसी ने शिवसेना तोड़ कर बागी गुट के नेता एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनवा दिया।जद (यू) और शिवसेना की तरह शिरोमणि अकाली दल भी भाजपा का पुराना मित्र रहा। अटल बिहारी वाजपेयी और प्रकाश सिंह बादल ने जिस दोस्ती की बुनियाद रखी, वह पंजाब में दशकों चली। अकाली दल और भाजपा ने पंजाब में गठबंधन सरकार चलाई और केंद्र में भी भागीदार रहे, लेकिन महत्वाकांक्षाओं के टकराव से रिश्ते कमजोर होने लगे। 

जिन नवजोत सिंह सिद्धू ने भाजपा में रहते हुए बादल परिवार के विरुद्ध मोर्चा खोला था, वह तो अंतत: कांग्रेस में चले गए, लेकिन विवादास्पद कृषि कानूनों के विरुद्ध किसान आंदोलन से अकाली दल को राजग छोडऩे का मौका मिल गया। पिछले कुछ सालों से अकाली दल में तो असंतोष और बगावत देखने को मिली है, वह सुखबीर सिंह बादल की नेतृत्व क्षमता का संकेत तो हरगिज नहीं, पर उसके तार भाजपा से भी जोड़े जाते रहे हैं।
इन लोकसभा चुनाव से पहले तेदेपा की तरह अकाली दल से भी फिर हाथ मिलाने की कोशिश की गई, लेकिन अविश्वास की खाई पाटी नहीं जा सकी। जाहिर है, छोटे दलों का इस्तेमाल करने में कोई भी राष्ट्रीय दल संकोच नहीं करता। कई राज्यों में बड़े दल सरकार बनाते ही सबसे पहले समर्थक छोटे दलों को ही तोड़ते हैं। इस लिहाज से पश्चिम बंगाल में 3 दशक से भी ज्यादा समय तक शासन करने वाला वाम मोर्चा अपवाद रहा, जिसमें किसी दल ने दूसरे दल को तोडऩे की कोशिश नहीं की।  शायद इसलिए कि उसका आधार समान विचारधारा थी। वैसे कई बार पासा पलट भी जाता है। उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस की कमजोरी को कई प्रेक्षक उन क्षेत्रीय दलों से गठबंधन का परिणाम भी मानते हैं, जिन्होंने उसका जनाधार छीन लिया।-राज कुमार सिंह
 

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