संसद : एक नई शुरूआत, उत्थान के लिए या पतन के लिए?

Edited By ,Updated: 26 Jun, 2024 05:20 AM

parliament a new beginning for rise or fall

ऐसे संस्थान और क्षण होते हैं, जो राजनीति से ऊपर उठकर अपनी ऊंचाइयों को छूते हैं। लोकतंत्र का मंदिर संसद एक ऐसा ही मंदिर है, जिसके दो सदन लोकसभा और राज्यसभा इसके दिल और दिमाग हैं, जहां पर चर्चाएं होती हैं, जहां पर लोगों के प्रतिनिधियों के माध्यम से...

ऐसे संस्थान और क्षण होते हैं, जो राजनीति से ऊपर उठकर अपनी ऊंचाइयों को छूते हैं। लोकतंत्र का मंदिर संसद एक ऐसा ही मंदिर है, जिसके दो सदन लोकसभा और राज्यसभा इसके दिल और दिमाग हैं, जहां पर चर्चाएं होती हैं, जहां पर लोगों के प्रतिनिधियों के माध्यम से उनकी आवाज सुनी जाती है और सरकार को जवाबदेह ठहराया जाता है। सोमवार 18वीं लोक सभा का पहला दिन था और यहां पर नए सदस्य और उनकी नई महत्वाकांक्षाएं देखने को मिली हैं जहां पर प्रधानमंत्री मोदी का भाजपानीत राजग लगातार तीसरे कार्यकाल में सत्ता पक्ष में बैठा और सशक्त विपक्ष इसलिए उत्साहित है कि उसका प्रदर्शन अपेक्षा से अच्छा रहा है। 

किंतु कटु राजनीतिक बातें, एक-दूसरे से आगे बढऩे की चाह, वैमनस्य तथा वाक् युद्ध इस बात को दर्शाता है कि कुछ भी नहीं बदला। राजनीति यथावत जारी है, विश्वास का अभाव है तथा विपक्ष और मोदी सरकार के बीच गहरी खाई बनी हुई है। इसकी शुरुआत विपक्ष ने 7 बार सांसद रह चुके भाजपा के भतृहरि महताब को अंतरिम अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किए जाने के विरोधस्वरूप की है। विपक्ष का कहना है कि महताब के स्थान पर कोडीकोनिल सुरेश को अंतरिम अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए था क्योंकि वे 8 बार लोकसभा के लिए नियुक्त हुए हैं। कांग्रेस चाहती है कि परिपाटी के अनुसार उपाध्यक्ष का पद उसे मिले। 

क्या अध्यक्ष की नियुक्ति आम सहमति से होगी या उसका चुनाव होगा, यह महत्वपूर्ण नहीं है। एक बार चुने जाने के बाद उन्हें सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच कड़वाहट और टकराव को दूर करने का प्रयास करना होगा तथा उनके बीच संवाद खोलना होगा, ताकि सदन अपनी पूर्ण क्षमता के साथ कार्य कर सके। उन्हें दोनों पक्षों को मुद्दों को उठाने, उनकी जांच करने तथा कानूनों पर चर्चा करने के लिए समय देना होगा, ताकि सदन में शोर-शराबा न हो। सत्ता की लालसा में स्थिति ऐसी हो गई है कि कानून बनाने का स्थान पद, पैसा और संरक्षण ले रहा है। आंकड़े यह सब कुछ बता देते हैं। संसद में 10 प्रतिशत से कम समय विधायी कार्यों में व्यतीत किया गया। देश के समक्ष चुनौतियां कई गुणा बढ़ गई हैं। आज देश में बेरोजगारी बढ़ी हुई है, महंगाई आसमान छू रही है, नीट परीक्षा एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है, सामाजिक तनाव बढ़ रहा है और इन सब बातों पर युक्तियुक्त चर्चा होनी चाहिए। 

अध्यक्ष को चर्चाओं को अधिक सार्थक और केन्द्रित बनाना होगा और इसके लिए उन्हें समय सीमा का पालन करना होगा। उन्हें लचीलापन अपनाना होगा और एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि संसद कार्य करे और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को यह सुनिश्चित करना ही पड़ेगा। एर्सकाइन मे के अनुसार, अध्यक्ष के बिना सदन का कोई संवैधानिक अस्तित्व नहीं है। सदन के कार्य के बारे में निर्णय करने या सदस्यों द्वारा प्रश्न पूछने या मुद्दों पर चर्चा करने के लिए पूर्व अनुमति के मामले में वे अंतिम प्राधिकारी हैं, फलत: उन्हें कार्रवाई से ऐसी टिप्पणियों को निकालने की शक्ति प्राप्त है जिन्हें असंसदीय माना जाता है। 

पिछले वर्ष पूर्व अध्यक्ष ओम बिरला पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी और उद्योगपति गौतम अडानी के बीच कथित संबंधों के बारे में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की टिप्पणी को सदन की कार्रवाई से निकालने का आदेश देकर पक्षपात किया  तथा कुछ लोग कहते हैं कि अध्यक्ष ने विपक्षी सदस्यों के विरुद्ध सदस्यों में कदाचार के लिए सदस्यों को निलंबित करने की शक्ति का अत्यधिक इस्तेमाल किया है और एक कांग्रेस नेता को मोदी के विरुद्ध टिप्पणी करने पर निलंबित किया गया किंतु एक भाजपा सांसद, जिन्होंने बसपा के सदस्य के विरुद्ध सांप्रदायिक टिप्पणी की, उसे केवल चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। हालांकि लोकसभा की प्रक्रिया के नियम अधिकतर वैस्टमिंस्टर मॉडल पर आधारित हैं, जिसके अधीन अध्यक्ष चुने जाने पर सांसद पार्टी से त्यागपत्र दे देता है और बाद के चुनाव में अध्यक्ष हाऊस ऑफ कामंस के लिए निर्विरोध पुन: निर्वाचित होता है। 

अध्यक्ष को दलगत राजनीति से ऊपर होना चाहिए और उसे पार्टी के अनुसार नहीं चलना चाहिए। किंतु जैसा कि एक पूर्व लोकसभा अध्यक्ष ने कहा है कि हम पार्टी के पैसे से पार्टी के टिकट पर  चुने जाते हैं। हम किस तरह सुगमता का दावा कर सकते हैं और यदि हम अध्यक्ष बनने के बाद त्यागपत्र दे भी देते हैं तो हमें अगले चुनाव में टिकट के लिए उसी पार्टी के पास जाना पड़ता है। मूल मुद्दा यह है कि हमारे जनसेवकों को कानून निर्माण के लिए इच्छा प्रकट करनी होगी तथा इस संबंध में ईमानदारी बरतनी होगी। उन्हें व्यवधान की बजाय चर्चा पर ध्यान देना होगा और निर्णय लेने में अधिक विवेक का प्रयोग करना तथा दीर्घकालीन हितों को ध्यान में रखना होगा तथा सदन में शोर-शराबा और व्यवधान डालने तथा बहिर्गमन करने आदि की ओर ध्यान देना होगा। 

17वीं लोकसभा में केवल 13 प्रतिशत विधेयक समितियों को भेजे गए, जबकि 16वीं लोकसभा में 27 प्रतिशत। कोई भी पिछले 5 वर्षों की पुनरावृत्ति नहीं करना चाहता, जिनके बारे में यह आलोचना की जाती रही कि इस दौरान कानूनों को जल्दबाजी में पारित किया गया। संसदीय प्रक्रिया को सुदृढ़ करना होगा क्योंकि इसका मुख्य कार्य सरकार द्वारा तैयार किए गए विधेयकों की समीक्षा करना है और इसकी उपेक्षा हो रही है। कानून निर्माताओं को इस बात पर ध्यान देना होगा कि महत्वपूर्ण विधेयकों की समीक्षा करने के लिए पर्याप्त समय और गुंजाइश मिले। संसद विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का केन्द्र ङ्क्षबदू है और यह लोकतांत्रिक शासन के वायदे को पूरा करने का मुख्य वाहक है और संसद में इस विश्वास व सम्मान को बहाल तथा एक नए अध्याय के माध्यम से अध्यक्ष द्वारा इसका निर्माण किया जाना चाहिए। हमारे नेतागणों को दलगत राजनीति से ऊपर उठना होगा, अन्यथा इतिहास उन्हें माफ  नहीं करेगा। उन्हें नई संसद को एक सार्थक संसद बनाना होगा क्योंकि भारत का लोकतंत्र बहुमूल्य है।-पूनम आई. कौशिश
 

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