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सभी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करे संसद

Edited By ,Updated: 06 Dec, 2024 05:29 AM

parliament should protect the rights of all citizens

जब 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद संसद का पुनर्गठन हुआ, तो आपके स्तंभकार ने 8 कानूनों की एक सूची तैयार की थी, जिन पर केंद्र सरकार को विचार करना चाहिए और सभी  नागरिकों के लिए न्याय, समानता, स्वतंत्रता सुनिश्चित करनी चाहिए।

जब 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद संसद का पुनर्गठन हुआ, तो आपके स्तंभकार ने 8 कानूनों की एक सूची तैयार की थी, जिन पर केंद्र सरकार को विचार करना चाहिए और सभी  नागरिकों के लिए न्याय, समानता, स्वतंत्रता सुनिश्चित करनी चाहिए। अब, संसद का शीतकालीन सत्र आधा बीत जाने के साथ, आइए उस सूची में 4 और कानून जोड़ें- 1. धर्मांतरण विरोधी कानून;  2. भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में पुलिस हिरासत; 3. गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम; 4. बॉम्बे प्रिवैंशन ऑफ बेगिंग एक्ट, 1959। 

ये कानून हाशिए पर रहने वाले समुदायों को असंगत रूप से नुकसान पहुंचाते हैं, व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करते हैं और संवैधानिक सुरक्षा उपायों का उल्लंघन करते हैं। अब समय आ गया है कि संसद लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने और सभी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए इन 4 कानूनों पर विचार-विमर्श, गंभीर रूप से पुनर्मूल्यांकन और निरस्त करे।

धर्मांतरण विरोधी कानून

धर्मांतरण विरोधी कानून 1960 के दशक के हैं लेकिन गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश राज्यों में इन कानूनों को पारित करने के कुछ हालिया उदाहरण हैं। ये कानून क्रमश: अनुच्छेद 25 और अनुच्छेद 21 के तहत संविधान द्वारा प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता और गोपनीयता के मौलिक अधिकारों को कमजोर करते हैं। 

धर्मांतरण के लिए पूर्व सूचना या राज्य की मंजूरी की आवश्यकता के कारण, ये कानून पितृसत्तात्मक प्रतिबंध लगाते हैं, जिससे अक्सर उत्पीडऩ, सांप्रदायिक तनाव और व्यक्तिगत स्वायत्तता का उल्लंघन होता है। वे असंगत रूप से अंतरधार्मिक विवाहों को निशाना बनाते हैं और ‘लव जिहाद’ जैसी भेदभावपूर्ण रूढि़वादिता को कायम रखते हैं। ये कानून गहरी व्यक्तिगत पसंद की बजाय निगरानी जैसी स्थिति को बढ़ावा देते हैं, जो हमारे महान राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक लोकाचार के विपरीत है।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में पुलिस हिरासत

जल्दबाजी में बनाए गए नए आपराधिक कानूनों में, पुलिस हिरासत के बारे में बात करने वाले अनुभाग से, ‘पुलिस की हिरासत के अलावा अन्यथा’ शब्द हटा दिए गए हैं। मौजूदा ढांचे के तहत, समग्र हिरासत अवधि के बावजूद, प्रारंभिक अवधि के भीतर पुलिस हिरासत 15 दिनों तक सीमित थी। यह सीमा सत्ता के दुरुपयोग और हिरासत में दुरुपयोग के खिलाफ एक महत्वपूर्ण सुरक्षा उपाय है। 

हालांकि, नया प्रावधान प्रभावी रूप से 15-दिन की हिरासत अवधि को विभाजित करने और संपूर्ण रिमांड अवधि में फैलाने की अनुमति देता है। इसका मतलब है कि किसी व्यक्ति को अपराध की गंभीरता के आधार पर, 60 या 90 दिनों की हिरासत के दौरान अंतराल पर बार-बार पुलिस हिरासत में रखा जा सकता है। इससे संभावित रूप से लंबे समय तक और रुक-रुक कर हिरासत में रहना पड़ सकता है, हिरासत में दुव्र्यवहार का खतरा बढ़ सकता है, व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन हो सकता है और मनमानी हिरासत के खिलाफ सुरक्षा उपायों को कमजोर किया जा सकता है।

गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम

गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यू.ए.पी.ए.) भारत में मौलिक अधिकारों और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता के लिए गंभीर खतरा है। स्वतंत्र भाषण और असहमति को अपराध बनाकर, यह संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 को कमजोर करता है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। कानून ‘गैर-कानूनी गतिविधि’  को बहुत अस्पष्ट रूप से परिभाषित करता है जो सरकार को निष्पक्ष सुनवाई के बिना व्यक्तियों या संगठनों को ‘आतंकवादी’  के रूप में नामित करने की अनुमति देता है। 

इसने कार्यकर्ताओ, पत्रकारों और छात्रों को लक्षित करने में प्रावधान के मनमाने ढंग से उपयोग को सक्षम किया है। यू.ए.पी.ए. संपत्ति की जब्ती और 180 दिनों तक बिना किसी आरोप के हिरासत में रखने की अनुमति देकर उचित प्रक्रिया को और भी कमजोर कर देता है। कानून का दुरुपयोग केवल 3 प्रतिशत की निराशाजनक सजा दर से बढ़ जाता है। यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि यू.ए.पी.ए के अधीन अधिकांश व्यक्तियों को पर्याप्त सबूत की आवश्यकता के बिना लंबे समय तक कैद में रहना पड़ता है। 

यह अनुच्छेद 22 के तहत निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन करता है और न्याय और समानता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को धूमिल करता है। यू.ए.पी.ए., अपने वर्तमान स्वरूप में, एक कठोर वातावरण बनाता है जहां असहमति को अपराध घोषित कर दिया जाता है, और नागरिकों को मौलिक स्वतंत्रता से वंचित कर दिया जाता है।

बॉम्बे प्रिवैंशन ऑफ बैगिंग एक्ट, 1959

2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 4,13,670 लोग भीख मांगते थे। बॉम्बे प्रिवैंशन ऑफ बैङ्क्षगग एक्ट, 1959 भीख मांगने को एक अपराध मानता है, जिसमें धारा 2(1)(द्ब) जैसी अस्पष्ट परिभाषाओं का उपयोग करते हुए भिक्षा मांगना या पैसे के लिए सड़कों पर प्रदर्शन करना शामिल है। यह गरीब और अनौपचारिक श्रमिकों को गलत तरीके से निशाना बनाता है। धारा 5 जैसे प्रावधान, जो भीख मांगते हुए पकड़े गए लोगों को भीड़भाड़ वाले ‘प्रमाणित संस्थानों’ में 3 साल तक हिरासत में रखने की अनुमति देते हैं, व्यक्तियों से उनकी गरिमा छीन लेते हैं। इसी तरह, धारा 11, जो बिना वारंट के गिरफ्तारी की अनुमति देती है, दुव्र्यवहार और उत्पीडऩ का द्वार खोलती है।

बेघरता और बेरोजगारी जैसे मूल कारणों को संबोधित करने के बजाय, यह अधिनियम लोगों को उनकी गरीबी के लिए दंडित करता है। इस कठोर, पुराने कानून को निरस्त करने से अधिक मानवीय दृष्टिकोण अपनाने, गरीबी को एक सामाजिक मुद्दा मानने और कमजोर समुदायों को सम्मान और देखभाल के साथ मदद करने की अनुमति मिलेगी। -डेरेक ओ’ब्रायन (संसद सदस्य और टी.एम.सी. संसदीय दल (राज्यसभा) के नेता) (शोध श्रेय : चाहत मंगतानी)
 

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