Edited By ,Updated: 27 Nov, 2024 05:41 AM
आधुनिक विकास और औद्योगीकरण की जो नीति दुनिया ने अपनाई है, उससे हमारे पर्यावरण में भारी बदलाव हुआ। इसका नतीजा है कि आज संास लेने के लिए हमारे पास न तो शुद्ध हवा है और न पीने के लिए साफ पानी। भोजन पहले से ही प्रदूषित हो चुका है।
आधुनिक विकास और औद्योगीकरण की जो नीति दुनिया ने अपनाई है, उससे हमारे पर्यावरण में भारी बदलाव हुआ। इसका नतीजा है कि आज संास लेने के लिए हमारे पास न तो शुद्ध हवा है और न पीने के लिए साफ पानी। भोजन पहले से ही प्रदूषित हो चुका है। उधर घनी आबादी वाले देशों में पर्यावरण का संकट गहराता जा रहा है। उत्तर भारत के कई शहरों, नगरों और कस्बों में वायु प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि सांस लेना मुश्किल हो गया है। हमारा देश दुनिया के उन देशों में से एक है जहां वायु प्रदूषण उच्चतम स्तर पर है। डब्ल्यू.एच.ओ. के आंकड़ों के अनुसार, दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में 13 भारत में हैं। भारत में हर साल करीब 11 लाख लोगों की मौत होती है और इनमें से ज्यादातर मौतें सांस लेने से हो रही हैं।
अमरीका के दो संस्थानों ने मिलकर दुनिया भर में प्रदूषण से मरने वालों पर स्टडी की है। इस अध्ययन में पाया गया है कि वायु प्रदूषण से सबसे ज्यादा लोग भारत और चीन में मरते हैं। भारत की हालत चीन से भी गम्भीर है। स्टडी के मुताबिक, चीन में प्रदूषण से मरने वालों की संख्या 2005 के बाद नहीं बढ़ी लेकिन भारत में यह आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। वायु प्रदूषण मृत्यु दर को बढ़ाने वाली विभिन्न घातक बीमारियों, जैसे कि फेफड़े के विभिन्न विकारों और फेफड़े के कैंसर के प्रसार में योगदान दे रहा है। हमारी सांस के साथ हवा में व्याप्त जहरीले सूक्ष्म कण शरीर में घुसकर कैंसर, पार्किन्सन, दिल का दौरा, सांस की तकलीफ, खांसी, आंखों की जलन, एलर्जी, दमा जैसे रोग पैदा कर रहे हैं। प्रदूषित वायु सांस के माध्यम से शरीर में घुसकर दिल, फेफड़े और मस्तिष्क की कोशिकाओं में पहुंच कर उन्हें क्षति पहुंचाती है।
देश की राजधानी दिल्ली की दशा तो सबसे अधिक खराब है, जहां हवा एकदम दमघोटू हो गई है। दिल्ली में इस समय डब्ल्यू.एच.ओ. की निर्धारित सीमा से 60 गुना ज्यादा जहरीली हवा है। इस प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह है तेजी से बढ़ती हुई गाडिय़ां, औद्योगिक यूनिट्स, लगातार हो रहा निर्माण, 24 घंटे जलने वाले कचरे के पहाड़, डीजल इंजन, एयर कंडीशनर और थर्मल प्लांट्स। साल 2000 में दिल्ली में मात्र 34 लाख गाडिय़ां थीं, जो 2021-22 में बढ़कर 1.22 करोड़ से ज्यादा हो चुकी हैं, जिनसे कार्बन डाईऑक्साइड, सल्फर डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड जैसी जहरीली गैसें निकलती हैं। दिल्ली में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और राजस्थान से बहने वाली हवाओं के साथ धूल आती है, जिसका साथ देता है पराली का धुआं, जो पैदा होता है पंजाब-हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों से। इसके बाद ठंड का मौसम, यानी हवाओं में गति कम, नमी ज्यादा, धूल और पराली के धुएं को हिमालय रोकता है, जिसकी वजह से पूरी दिल्ली से लेकर उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों तक स्मॉग और कोहरे की परत दिखती रहती है।
उत्तर भारत में जहरीली हवा की वजह से सांसों पर संकट छाया हुआ है, जिसमें रहने के लिए लोग मजबूर हैं और प्रदूषण का स्तर 400 के ऊपर बना हुआ है। दिल्ली, गाजियाबाद, कानपुर जैसे उत्तरी इलाकों में दक्षिणी राज्यों की तुलना में ज्यादा औद्योगिक गतिविधियां होती हैं जिसकी वजह से वायु प्रदूषण होता है। उधर कोलंबिया में दुनियाभर के एक हजार वैज्ञानिक जुटे। उन्होंने धरती से पेड़ों के विलुप्त होने का अंदेशा जताया है। एक रिसर्च रिपोर्ट पेश करके पेड़ों को बचाने की अपील दुनिया से की गई। पेड़ों की करीब 38 प्रतिशत प्रजातियां खतरे में हैं। यह खुलासा बोटैनिक गार्डन्स कंजर्वेशन इंटरनैशनल और इंटरनैशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर द्वारा प्रकाशित रिसर्च रिपोर्ट में हुआ है। रिसर्च में वैज्ञानिकों ने पाया कि करीब 192 देशों में पेड़ों का जीवन खतरे में है। मैगनोलिया, ओक, मैपल और आबनूस जैसी वृक्ष प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा ज्यादा मंडरा रहा है। जलवायु परिवर्तन भी सूखा और जंगल की आग जैसी समस्याओं के कारण एक अतिरिक्त खतरा पैदा कर रहा है। अगर पेड़ न हों तो मिट्टी का कटाव बढ़ जाएगा और मिट्टी की कृषि क्षमता खत्म हो जाएगी।
पेड़ न होने की वजह से शाकाहारी जीव भूख से मर जाएंगे और शाकाहारी जीवों को खाने वाले मांसाहारी भी मर जाएंगे। पेड़ विलुप्त हुए तो पक्षियों-जानवरों की कई प्रजातियों पर खतरा मंडराएगा। यह वैश्विक जैव विविधता संकट की शुरुआत होगी, जो पूरे ईको-सिस्टम को प्रभावित करेगा। पेड़ों को बचाना जरूरी है, क्योंकि कई परिंदे और जानवर इनमें अपना घर बनाते हैं और वे अनाथ हो जाएंगे। बोटैनिक गार्डन्स कंजर्वेशन इंटरनैशनल की एमिली बीच के अनुसार, हेजहॉग (कांटेदार जंगली चूहा) विलुप्त होने के करीब पहुंच गया है। ब्रिटेन के 4 समुद्री पक्षी ग्रेप्लोवर, डनलिन, टर्नस्टोन और कर्लेव सैंडपाइपर भी लुप्त होने की कगार पर हैं। रॉयल बोटैनिक गार्डन के संरक्षक शोधकत्र्ता स्टीवन बैचमैन ने कहा कि पेड़ों को खोने का मतलब है, उन पर निर्भर कई अन्य प्रजातियों को खोना। इसलिए वे बीज एकत्र करके और नमूने उगाकर पेड़ों को संरक्षित करने का काम कर रहे हैं।-निरंकार सिंह