Edited By ,Updated: 18 Feb, 2025 05:32 AM
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भारत में विधि का शासन है। कानूनों की रक्षा व उनको कार्यान्वित करने का दायित्व पुलिस तंत्र को दिया गया है। कानूनों का उल्लंघन व मानवधिकारों के हनन संबंधी घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से पुलिस की कार्यप्रणाली से जोड़ा गया है। पुलिस को देखकर आम लोगों को...
भारत में विधि का शासन है। कानूनों की रक्षा व उनको कार्यान्वित करने का दायित्व पुलिस तंत्र को दिया गया है। कानूनों का उल्लंघन व मानवधिकारों के हनन संबंधी घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से पुलिस की कार्यप्रणाली से जोड़ा गया है। पुलिस को देखकर आम लोगों को सुकून व राहत मिलनी चाहिए वहीं दूसरी तरफ खूंखार अपराधियों को पुलिस का खौफ महसूस होना चाहिए। पुलिस, गली-कूचे के आम असामाजिक व अराजक शरारती तत्वों से लेकर खूंखार, दुर्दांत, आतंकवादी व विघटनकारी तत्वों से दिन-रात जूझती रहती है तथा कई बार लोगों को राहत पहुंचाने व अपराधियों पर शिकंजा कसते समय ज्यादतियां भी कर बैठती है जिसका परिणाम उन्हें अपने करियर की कीमत पर भुगतना पड़ता है। जब कोई अपराधी घिनौना अपराध जैसे कि रेप व हत्या इत्यादि कर देता है तब पुलिस पर जनता, सरकार, मीडिया व दूसरी तरफ कानूनी प्रक्रिया पूरा करने का इतना दबाव होता है कि मानो उसे दोधारी तलवार पर चलकर गुजरना होता है। कोई भी संगीन अपराध हो जाने पर पुलिस की स्थिति सांप के मुंह में छिपकली वाली हो जाती है जो कि उसे न मारे तो उसे कोहड़ी व मार देने पर कलंकी की संज्ञा दे दी जाती है।
पुलिस के हाथ में कोई जादू की ऐसी छड़ी नहीं होती जिसे घुमाए जाने पर अपराधियों का एकदम पता लगाया जा सके। संगीन अपराधियों को समय रहते पकड़े न जाने पर जनता इतने आक्रोश में आ जाती है कि थानों में आग लगा दी जाती है तथा कई बार तो पुलिस वालों की हत्या कर दी जाती है। पुलिस के पास ऐसा कोई अलादीन का चिराग नहीं होता जिसकी रोशनी से अपराधियों को तुरंत पकड़ लिया जाए। आमतौर पर देखा गया है कि यदि पुलिस की लापरवाही से किसी व्यक्ति को कोई नुकसान हो जाता है तो न्यायालय संबधित पुलिस वाले के साथ समाज के दुश्मन की तरह व्यवहार करती है। यह बात ठीक है कि कुछ पुलिस कर्मी किसी निजी स्वार्थ के कारण अपराधियों के साथ मिलीभगत कर लेते हैं मगर यह बात भी सही है कि कुछ ईमानदार कत्र्तव्यनिष्ठ व संवेदनशील अधिकारी भी होते हैं जो दूसरों की समस्या को अपनी समस्या समझकर निर्भीकता व निष्ठा से काम करते हैं तथा कई बार अपना दायित्व निभाते हुए उनसे कोई गलती भी हो जाती है।
मगर न्यायालय व जनता इन दोनों प्रकार के अधिकारियों की कार्यशैली का विश्लेषण एक ही पैमाने से करते हैं तथा ईमानदार व नि:स्वार्थ अधिकारियों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाई जाती। हाल ही में सी.बी.आई. कोर्ट ने हिमाचल केआई.जी. रैंक के अधिकरी सहित 8 अधिकारियों को अन्वेषण के दौरान हिरासत में रखे गए व्यक्ति को दी गई यातना के कारण हुई मौत के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। यह सजा उनको आई.पी.सी. की धारा 302,120-बी व 201 के अंतर्गत दी गई है। अब प्रश्न उठता है कि इन अधिकारियों ने संदेहजनक व्यक्ति को उसकी हत्या करने के इरादे से पीटा था या फिर सच्चाई का पता लगाने के लिए बिना किसी इरादे के उसकी पिटाई के कारण उसकी मौत हो गई थी। इन दोनों धारणाओं को आई.पी.सी. की धारा 302 व 304 में पूर्ण रूप से स्पष्ट किया गया है मगर न जाने किस अवधारणा के आधार पर इनको 304 आई.पी.सी. की बजाय 302 आई.पी.सी. के अंतर्गत सजा सुनाई गई है। यह ठीक है कि इन अधिकारियों को सजा मिलनी ही चाहिए थी मगर यह सजा अपराध के अनुपातिक ही होनी चाहिए थी। खैर यह तो जज साहिब का अपना विवेक है तथा उनकी अलोचना भी नहीं की जा सकती क्योंकि उनके हाथ भी कानून ने बांध रखे होते हैं। मगर यहां यह लिखना उचित है कि ऐसी कई उदाहरणें हैं जब जज सहिबानों ने अपने परिजनों के साथ घटी घिनौनी घटनाओं का कड़ा व तुरंत संज्ञान लेने के लिए पुलिस पर अनचाहा दबाव डालने की कोशिशें की हैं। कितनी बड़ी विडम्बना है कि अन्वेष्ण के दौरान इस गुडिय़ा कांड केस में उस समय पर शिमला के एस.पी. रहे डी.डब्ल्यू. नेगी को बिना किसी तथ्यों के आधार पर ही गिरफ्तार कर लिया गया तथा इस ईमानदार अधिकारी को अकारण ही लगभग डेढ़ वर्ष हवालात में रखा गया।
इस घटना ने न केवल हिमाचल पुलिस बल्कि पूरे भारत वर्ष की पुलिस को झिंजोड़ कर रख दिया है तथा अब तो पुलिस को इस घटना से सीख लेकर ही अपनी कार्यशैैली में बदलाव लाना ही होगा। इस संबध में कुछ एक सुझाव दिए जा रहे हैं जिनका विवरण इस प्रकार है-
1. जनता व सरकार के दबाव में आकर कोई भी ऐसा कार्य न करें जिससे किसी निर्दोष को काई नुकसान हो। इसी तरह अपनी संवेदनशीलताओं को भी नियंत्रण में रखें।
2. सरकार से वाहवाही लूटने व अपने आप को ज्यादा ही कुशल व कर्मठ अधिकारी की होड़ का हिस्सा न बनें। किसी भी अपराधी को किसी प्रकार की यातना न दें तथा सजा का काम न्यायालय को ही करने दें।
3. अपने सीनियर्स व राजनीतिक आकाओं के गैर-कानूनी आदेशोंं को विनम्रता के साथ सुलझाने व जरूरत पडऩे पर इंकार करने की हिम्मत को जुटाएं तथा अपने स्थानांतरण की परवाह भी न की जाए।
4. यदि किसी अधिकारी की लापरवाही या किसी प्रकार की मिलीभगत के कारण कोई अपराधी सजा मुक्त हो जाता है तो न केवल संबंधित जांच अधिकारी बल्कि उसके प्रवेक्षण अधिकारी व अभियोजन पक्ष के अधिकारियों को भी जिम्मेदार ठहराया जाए।
5. पुलिस को नहीं भूलना चाहिए कि उनके साथ न ही जनमत है और न लोकमत है क्योंकि पुलिस को दमनकारी तौर-तरीकों के कारण जनता पुलिस का सहयोग नहीं करना चाहती।
अब समय आ गया है कि केवल कानून के अनुसार ही कार्य किया जाए भले ही अपराधी खुली हवा में घूमते नजर आएं। ठीक भी है कि अपराध रूपी आग को बुझाते-बुझाते हम खुद ही न जल जाएं।-राजेन्द्र मोहन शर्मा राजेन्द्र मोहन शर्मा डी.आई.जी. (रिटायर्ड) हि.प्र.