Edited By ,Updated: 30 Jul, 2024 05:05 AM
संसद के बजट सत्र की हंगामेदार शुरूआत ने इन आशंकाओं को सही साबित कर दिया है कि 18 वीं लोकसभा और अपने तीसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी सरकार की डगर आसान नहीं होगी। संसद के अंदर और बाहर, सरकार को कठघरे में खड़ा करने का कोई मौका विपक्ष चूकता नजर नहीं आ...
संसद के बजट सत्र की हंगामेदार शुरूआत ने इन आशंकाओं को सही साबित कर दिया है कि 18 वीं लोकसभा और अपने तीसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी सरकार की डगर आसान नहीं होगी। संसद के अंदर और बाहर, सरकार को कठघरे में खड़ा करने का कोई मौका विपक्ष चूकता नजर नहीं आ रहा। प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा न मानें लेकिन बहुमत के आंकड़े से 32 सीटें पीछे छूट जाने और सरकार की स्थिरता के लिए तेलगू देशम पार्टी (तेदेपा), जनता दल यूनाइटिड , (जद-यू) और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) जैसे सहयोगियों पर निर्भरता का असर साफ दिख रहा है।
543 की लोकसभा में 240 सीटों पर सिमट जाने से भाजपा का डगमगाया आत्मविश्वास नई संसद के पहले विशेष सत्र में भी साफ दिखा था, जब 234 सीटें जीत लेने वाला विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ हर मौके पर सरकार पर हमलावर नजर आया। 10 साल बाद संसद में ऐसा नजारा दिखा। ध्यान रहे कि 10 साल बाद ही विपक्ष को, राहुल गांधी के रूप में नेता प्रतिपक्ष मिला है। 18वीं लोकसभा के नवनिर्वाचित सदस्यों के शपथ ग्रहण के बाद राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान मोदी बनाम राहुल का जो टकराव नजर आया था, वह बजट सत्र में और भी ज्यादा तीखा होता दिख रहा है। बेशक नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के भाषण के बीच मंत्रियों द्वारा लगातार टोकाटाकी और प्रधानमंत्री के जवाब के बीच विपक्ष की लगातार नारेबाजी को उचित नहीं माना जा सकता। ऐसा लगता है कि संसदीय परंपरा और मर्यादा अब बीते जमाने की बातें बन कर रह गई हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि हम संसद के बजट सत्र में भी सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच उसी टकरावपूर्ण व्यवहार का विस्तार देख रहे हैं। कोई भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि संसद देश और समाज के हित में काम करने के लिए है, न कि दलगत राजनीति का अखाड़ा बनाने के लिए।
ऐसा पहली बार नहीं है कि सत्तापक्ष अपने बजट को देश के सर्वांगीण विकास का दस्तावेज बता रहा है तो विपक्ष उसे दिशाहीन करार दे रहा है, पर बिहार और आंध्र प्रदेश को विभिन्न मदों में लगभग एक लाख करोड़ की विशेष सहायता की घोषणाओं ने वर्ष 2024-25 के बजट को राजनीतिक ‘एंगल’ दे दिया है। इसी को मुद्दा बनाते हुए विपक्ष ने इसे ‘कुर्सी बचाओ बजट’ करार दिया और संसद परिसर में प्रदर्शन भी किया। भाजपा के बहुमत से 32 सीटें पीछे 240 पर सिमट जाने से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली यह तीसरी केंद्र सरकार, खासकर तेदेपा और जद (यू) के समर्थन पर टिकी है। दोनों ही राज्य लंबे समय से अपने लिए विशेष राज्य का दर्जा और विशेष पैकेज मांगते रहे हैं।
तेदेपा प्रमुख चंद्रबाबू नायडू तो इसी मांग पर 2018 में राजग छोड़ कर विपक्ष के खेमे में चले गए थे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी अलग-अलग मुद्दों पर कई बार पाला बदल चुके हैं। इस बार जब तेदेपा और जद (यू), राजग में लौटे तो राजनीतिक जरूरतों के अलावा सरकार बनने पर विशेष आर्थिक मदद की उम्मीद भी बड़ा कारण रही। मौजूदा प्रावधानों के मुताबिक बिहार और आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता। मोदी सरकार ने बजट से पहले ही तेदेपा और जद (यू) को यह संदेश दे दिया, लेकिन फिर भी बजट में बिहार और आंध्र को कई मदों में मिला कर लगभग एक लाख करोड़ रुपए की अतिरिक्त सहायता का ऐलान बताता है कि दबाव में और सत्ता की खातिर यह रास्ता निकाला गया है।
इतनी बड़ी राशि देने के लिए कहीं-न-कहीं बड़ी कटौतियां भी की गई होंगी। राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे द्वारा तीखे प्रहारों के बीच वित्त मंत्री ने सफाई अवश्य दी कि बजट भाषण में नाम न लिए जाने का यह अर्थ हरगिज नहीं कि अन्य राज्यों को कुछ नहीं दिया गया, पर विपक्ष संतुष्ट नहीं हुआ और वॉकआऊट कर गया। ममता बनर्जी के भतीजे और तृणमूल कांग्रेस सांसद अभिषेक बनर्जी ने 2021 के विधानसभा चुनाव के बाद पश्चिम बंगाल को केंद्रीय मदद पर श्वेत पत्र की मांग कर सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की।
नोटबंदी और प्रधानमंत्री का उल्लेख करने पर स्पीकर ओम बिड़ला द्वारा टोके जाने पर अभिषेक बनर्जी ने जिस तरह उन्हें निष्पक्षता की याद दिलाई उससे तो साफ हो गया कि उनके लिए भी सदन चला पाना पिछली लोकसभा जितना आसान नहीं होगा। अभिषेक से पहले राहुल गांधी और अखिलेश यादव भी अपने-अपने अंदाज में स्पीकर यानी आसन की सर्वोच्चता और निष्पक्षता की ओर इशारा कर निशाना साध चुके हैं। याद रहे कि 17वीं लोकसभा में रिकार्ड संख्या में विपक्षी सांसदों को निलंबित किया गया था। सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच बढ़ते टकराव का असर बजट के पारित होने पर शायद न भी पड़े लेकिन संसद की कार्रवाई पर पडऩा तय है। संसदीय लोकतंत्र में विश्वास करने वालों के लिए यह बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए।
मोदी सरकार द्वारा 2015 में योजना आयोग की जगह बनाए गए नीति आयोग की 27 जुलाई को हुई बैठक में 10 राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भाग नहीं लिया। इनमें बिहार के नीतीश कुमार और पुड्डुचेरी के एन. रंगासामी के अलावा सभी गैर राजग दलों के मुख्यमंत्री हैं। विपक्षी खेमे से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ही इस बैठक में पहुंचीं, लेकिन 5 मिनट बाद ही अपना माइक बंद कर दिए जाने का आरोप लगाते हुए बाहर निकल आईं। नीति आयोग ने हर मुख्यमंत्री के लिए समय आबंटन का स्पष्टीकरण दिया है, लेकिन इस विवाद से सत्तापक्ष और विपक्ष में टकराव बढ़ेगा ही।-राज कुमार सिंह