लेटरल एंट्री की राजनीति : सिर्फ कोटा से उत्कृष्टता नहीं मिलेगी

Edited By ,Updated: 28 Aug, 2024 05:19 AM

politics of lateral entry quotas alone will not lead to excellence

आरक्षण राशन तमाशा फिर से राजनीतिक थाली में परोस दिया गया है क्योंकि हमारे नेता अपना वोट बैंक हासिल करने के लिए लोकलुभावन हो-हल्ला मचाना जारी रखते हैं, जो नौकरशाही में पाश्र्व प्रवेश (लेटरल एंट्री) की एक बड़ी चुनौती बन गया और राजनीतिक तू-तू मैं-मैं...

आरक्षण राशन तमाशा फिर से राजनीतिक थाली में परोस दिया गया है क्योंकि हमारे नेता अपना वोट बैंक हासिल करने के लिए लोकलुभावन हो-हल्ला मचाना जारी रखते हैं, जो नौकरशाही में पाश्र्व प्रवेश (लेटरल एंट्री) की एक बड़ी चुनौती बन गया और राजनीतिक तू-तू मैं-मैं का शिकार हो गया। कोटा के चश्मे के माध्यम से राजनीतिक लड़ाई में अच्छी नीतियों के नुकसान होने का एक क्लासिक मामला। प्रासंगिक रूप से, यू.पी.एस.सी. ने 18 अगस्त को अनुबंध के आधार पर या प्रतिनियुक्ति के जरिए पाश्र्व प्रवेश के माध्यम से 24 केंद्रीय मंत्रालयों में कई भूमिकाओं के लिए 45 पदों का विज्ञापन दिया। इनमें 10 संयुक्त सचिव और 35 निदेशक/उप सचिव के पद शामिल थे। जाहिर तौर पर इसने विपक्ष के साथ-साथ भाजपा के सहयोगियों (जद (यू), लोजपा) को भी परेशान किया, जिनका कहना था कि भाजपा को आरक्षण के मुद्दे ने काफी नुकसान पहुंचाया, जैसा कि हालिया लोकसभा चुनावों में स्पष्ट हुआ। 

इससे पार्टी को अहसास हो गया कि आरक्षण अपने आप में चुनावी दृष्टि से अति संवेदनशील मुद्दा है, इसलिए उसने अपना रुख बदल लिया। दिलचस्प बात यह है कि जब कांग्रेस के राहुल गांधी आरक्षण को छोटा करने और सरकारी नौकरियों में एस.सी., एस.टी., ओ.बी.सी. आरक्षण को छीनने के लिए एक ‘राष्ट्र-विरोधी कदम’ के रूप में लेटरल एंट्री की आलोचना कर रहे हैं, तो वह यह आसानी से भूल गए कि उनकी यू.पी.ए. सरकार ने ही लेटरल एंट्री की अवधारणा विकसित की थी और 2005 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग (ए.आर.सी.) स्थापित किया था। वास्तव में, इसका सबसे बड़ा उदाहरण पूर्व वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे, जो ‘बाहरी विशेषज्ञ’ थे। इसी तरह इंफोसिस के पूर्व प्रमुख नंदन नीलेकणि भी हैं, जिन्होंने आधार की अगुवाई की। इसके अलावा, सिंह के कार्यकाल के दौरान ऊर्जा मंत्रालय ने नामांकन के आधार पर एक प्रमुख औद्योगिक घराने की पृष्ठभूमि वाले एक वरिष्ठ अधिकारी को नियुक्त किया। 

छठे वेतन आयोग 2013, नीति आयोग 2017 ने भी इसे दोहराया, जिसमें मध्यम और वरिष्ठ प्रबंधन स्तर पर अधिकारियों को 3 साल के अनुबंध पर शामिल करने का समर्थन किया गया, जिसे बढ़ाकर 5 साल किया जा सकता था, जो तब तक केवल आई.ए.एस. और केंद्रीय सिविल सेवाओं के नौकरशाह ही करते थे। 2019 में 6,077 संयुक्त सचिव आवेदनों में से 9 को 9 मंत्रालयों में नियुक्त किया गया, इसके बाद 2021, 2023 में तीन दौर की नियुक्ति की गई। हाल ही में, सरकार ने राज्यसभा को बताया कि पिछले 5 वर्षों में 63 लेटरल एंट्री नियुक्तियां की गई हैं। वर्तमान में, 57 लेटरल एंट्री केंद्रीय मंत्रालयों में तैनात हैं। 

निस्संदेह, तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में नए विकासशील क्षेत्रों और हाइब्रिड प्रौद्योगिकियों में प्रौद्योगिकी के बढ़ते हस्तक्षेप के कारण सरकारी कार्यकलापों में क्षमताओं को समृद्ध करने के लिए नए विचारों, ऊर्जा और डोमेन विशेषज्ञता के साथ बाहरी लोगों को शामिल करने की आवश्यकता है, ताकि शासन के जटिल कार्यों को तेजी से पूरा किया जा सके और वितरण तंत्र को तेज और कुशल बनाया जा सके। साथ ही वांछित परिणामों के लिए सरकार में सर्वश्रेष्ठ निजी क्षेत्र की संस्कृति को शामिल किया जा सके। अफसोस, समस्या तब होती है जब बौने नेताओं द्वारा संचालित हमारी क्षुद्र राजनीति सामाजिक न्याय और समानता की अनिवार्यताओं के खिलाफ संकीर्ण रूप से परिभाषित आरक्षण शर्तों में ‘विशेषज्ञता’ और ‘योग्यता’ को समान मानती है। नतीजतन, कुछ भी करना मुश्किल हो जाता है क्योंकि इसे एस.टी., एस.सी., ओ.बी.सी. के हितों के खिलाफ माना जाएगा। 

जैसा कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एस.सी., एस.टी. उप-कोटा पर रेखांकित किया है कि योग्यता को समानता और समावेशिता के सामाजिक सामान के संदर्भ में समझा जाना चाहिए, न कि संपन्न और वंचितों या योग्यता और वितरण न्याय के बीच संघर्ष के रूप में। नीतिगत दृष्टि से कोटा पर अत्यधिक जोर शासन को प्रभावित कर सकता है। इससे भी बुरी बात यह है कि नौकरशाह भी सरकार चलाने में निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को स्थान देने में अनिच्छुक हैं। सत्ता और भ्रष्टाचार बाबुओं की सनकी नियंत्रण मानसिकता के माध्यम से प्रवाहित होते हैं। इसके अलावा, लगातार बढ़ते आरक्षण का समर्थन नहीं किया जा सकता। मुझे गलत मत समझिए, निश्चित रूप से सामाजिक न्याय वांछनीय है और समान अवसर और बेहतर जीवन स्तर प्रदान करने के सरकार के मौलिक मिशन के साथ-साथ एक प्रशंसनीय लक्ष्य है। फिर भी, गरीबी के दलदल से उन्हें ऊपर उठाने में भारत की 7 दशकों की ऊब यह दर्शाती है कि असंख्य वर्गों, जातियों, उपजातियों और वंचितों को आरक्षण प्रदान करने के लिए कोई भी कानून गरीबों की स्थिति में सुधार नहीं कर पाया है, भले ही कुछ लोगों को नौकरी मिल गई हो।

इसके अलावा यह पता लगाने के लिए कोई अध्ययन नहीं किया गया है कि कोटा के बाद आरक्षण पाने वालों का मनोबल बढ़ाने के लिए उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए कोई प्रयास किया जाता है या नहीं। कोटा लोगों के उत्थान के लिए एकमात्र रामबाण उपाय नहीं है। इसके अलावा इस बहाने से प्रतिद्वंद्विता को बढ़ावा देना खतरनाक है, कि इससे वंचितों का उत्थान होगा। लेटरल एंट्री सकारात्मक कार्रवाई का साधन नहीं है और कभी नहीं थी। यह विशेषज्ञों के लिए शासन में भाग लेने का एक साधन है जो अन्यथा सरकार में शामिल होने पर विचार नहीं करेंगे। 

सच है, लेटरल एंट्रीकत्र्ता प्रणालीगत बीमारियों और कमियों के लिए कोई जादुई इलाज नहीं हैं और अधिक मौलिक पुनर्गठन के लिए एक मामला बनाया जा सकता है जो विशिष्ट अवधि के लिए अच्छी तरह से परिभाषित उद्देश्यों के लिए विशेषज्ञता और विशेषज्ञता के अंतराल को भरने में मदद कर सकता है। यू.एस., यू.के. जैसे विकसित देश नियमित रूप से सरकार के बाहर से विशेषज्ञों को नियुक्त करते हैं। हमारे नेताओं को पहचानने की जरूरत है कि असमानताएं मौजूद हैं और उन्हें ठीक किया जाना चाहिए। नौकरियों में सिर्फ कोटा होने से उत्कृष्टता नहीं मिलेगी। इस दिशा में, उन्हें योग्य बनाने के लिए अभिनव तरीके विकसित करने की जरूरत है, ताकि वे सामान्य श्रेणी के साथ प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम हो सकें। समय की मांग है कि सभी को समान अवसर प्रदान किए जाएं। हमें ऐसी व्यवस्था की ज़रूरत है जो न तो पीड़ितों को दंडित करे और न ही विजेताओं को पुरस्कृत। आरक्षण के सार्वभौमिकरण का मतलब होगा उत्कृष्टता और मानकों को अलविदा... जो किसी भी आधुनिक राष्ट्र के लिए ‘जरूरी’ हैं, जो आगे बढऩा चाहता है।

समय आ गया है कि केंद्र-राज्य सरकारें आरक्षण नीति पर पुनर्विचार करें और आरक्षण के अंधाधुंध इस्तेमाल को रोकें। अन्यथा हम अक्षमता और सामान्यता के जाल में फंस सकते हैं। आरक्षण पर बार-बार जोर देने से नुकसान हो सकता है और शायद इससे दरारें और बढ़ेंगी।-पूनम आई. कौशिश

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