Edited By ,Updated: 11 Nov, 2024 04:52 AM
मुफ्त की रेवडिय़ों की चुनावी राजनीति फिर चर्चा में है। इस पर प्रतिबंध के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक और याचिका दाखिल हुई है, तो महाराष्ट्र व झारखंड के विधानसभा चुनावों में मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त की रेवडिय़ों की बारिश का मौसम है।
मुफ्त की रेवडिय़ों की चुनावी राजनीति फिर चर्चा में है। इस पर प्रतिबंध के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक और याचिका दाखिल हुई है, तो महाराष्ट्र व झारखंड के विधानसभा चुनावों में मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त की रेवडिय़ों की बारिश का मौसम है। चुनावी राज्यों में अक्सर ‘त्यौहारी सेल’ जैसा माहौल होता है, जहां ग्राहक को आकॢषत करने में दुकानदार कोई कसर नहीं छोड़ते। ग्राहकों को ऑफर का लाभ उठाने के लिए फिर भी अपनी जेब कुछ ढीली करनी पड़ती है, लेकिन राजनीति में तो करदाता की कमाई से राजनीतिक दल ‘दानवीर’ बन कर वोट बटोरते हैं। देश के विकास की कीमत पर अपने वोट बैंक का विकास करते हुए सत्ता कब्जाते हैं और हर कोई मूकदर्शक बना रहता है।
महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनावों में भी मुफ्त की रेवडिय़ां बांटने का यह बेलगाम खेल तब चल रहा है, जब देश के दो बड़े दलों और नेताओं में ऐसी गारंटियों पर वाकयुद्ध चला। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जो पांच गारंटियां दी थीं, उनमें महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा की ‘शक्ति’ गारंटी भी है। पिछले दिनों कर्नाटक के उप मुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार का बयान आया कि कुछ महिलाओं ने टिकट ले कर यात्रा करने की इच्छा जताई है, इसलिए ‘शक्ति’ योजना पर पुनॢवचार संभव है। महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव के बीच आए इस बयान पर शिवकुमार की पार्टी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने नसीहत दी कि वे ही चुनावी वायदे किए जाने चाहिएं, जिन्हें पूरा करना संभव हो। निश्चय ही खरगे को आशंका रही कि शिवकुमार के बयान से कांग्रेस द्वारा किए जाने वाले चुनावी वायदों की विश्वसनीयता पर असर पड़ सकता है।
कांग्रेस और भाजपा में जारी वाकयुद्ध के बीच भी भाजपानीत राजग और विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ ने महाराष्ट्र और झारखंड में चुनाव जीतने के लिए मुफ्त की रेवडिय़ों के वायदे करने में संकोच नहीं किया। पहले से भारी कर्ज में डूबे महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था पर मुफ्त की रेवडिय़ां बांटने की इस होड़ का क्या असर पड़ेगा, इसकी ङ्क्षचता किसी को नहीं। यही बात आदिवासी बहुल राज्य झारखंड की बाबत कही जा सकती है। चुनाव जीतने के लिए लोक लुभावन वायदों की राजनीतिक प्रवृत्ति तो पुरानी है, लेकिन मुफ्त की रेवडिय़ां अब चुनाव जीतने का आसान कारगर नुस्खा बनती दिख रही हैं। देश भर में मोदी लहर के बावजूद दिल्ली में ‘आप’ की चुनावी सफलता में मुफ्त पानी-बिजली जैसे वायदों ने निर्णायक भूमिका निभाई। दिल्ली में चुनाव-दर-चुनाव सफलता से उत्साहित अरविंद केजरीवाल अपने चुनावी वायदों को ‘गारंटी’ बताने लगे, जिसका लाभ ‘आप’ को पंजाब में भी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता के रूप में मिला।
मुफ्त की रेवडिय़ों या ऐसी गारंटियों के जरिए चुनाव जीतने के लिए अक्सर केजरीवाल को निशाना बनाया जाता है, लेकिन शायद ही कोई दल हो, जो इन चुनावी नुस्खों को न आजमाता हो। विपक्षी दल तो कोरोना काल में शुरू की गई ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’ लगातार बढ़ाए जाने को भी इसी नजर से देखने लगे हैं। महाराष्ट्र में चुनाव की घोषणा से पहले एकनाथ शिंदे मंत्रिमंडल की अंतिम बैठक में लगभग 150 लोक लुभावन घोषणाओं को चुनावी ‘लॉलीपॉप’ के सिवाय और क्या कहा जाएगा? कर्नाटक ही नहीं, हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस द्वारा चुनाव जीतने के लिए दी गई गारंटियों पर अमल को ले कर जब-तब सवाल उठते रहते हैं, पर अन्य दलों द्वारा शासित राज्यों की कहानी भी अलग नहीं। वायदे सरकार बनते ही राज्य के कायाकल्प के किए जाते हैं, पर उनमें से ज्यादातर बड़े वायदे अंतिम समय तक लटके रहते हैं या फिर उन पर प्रतीकात्मक रूप से ही अमल किया जाता है। ऐसा इसलिए भी, क्योंकि हर मतदाता वर्ग को लुभाने के लिए वायदों की बारिश करते समय उनकी व्यवहार्यता और आर्थिक प्रभाव का आकलन ही नहीं किया जाता।
जाहिर है, इन योजनाओं का आर्थिक बोझ ईमानदार करदाताओं पर ही पड़ता है, जिनका प्रतिशत विदेशों की तुलना में हमारे देश में बहुत कम है। यह सवाल भी बार-बार उठता रहा है कि क्या उन करदाताओं से सहमति नहीं ली जानी चाहिए, जो देश के विकास के लिए कई तरह के कर देते हैं, न कि चुनावी ‘रेवडिय़ां’ बांट कर सत्ता हासिल करने की राजनीति के लिए? बेशक नागरिकों को जीवन के लिए आवश्यक और न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध करवाना कल्याणकारी राज की जिम्मेदारी है। सीमित मात्रा में मुफ्त पानी और सस्ती बिजली जैसी सुविधाओं की सोच भी सकारात्मक है। पैट्रोल-डीजल और गैस सिलैंडर जैसी दैनिक उपभोग की चीजें भी आम आदमी की क्रय शक्ति के अंदर रखने की कोशिश की जानी चाहिए, लेकिन लैपटॉप, स्मार्टफोन, साइकिल, टी.वी., फ्रिज आदि मुफ्त बांटना तो मतदाताओं को रिश्वत देने जैसा है। फिर अब तो बात मासिक या सालाना नकद राशि दे कर ‘लाड़’ जताने तक पहुंच गई है। क्या यह ‘लाड़’ वोट का ‘रिटर्न गिफ्ट’ नहीं, जिसकी कीमत ईमानदार करदाता ही चुकाते हैं, जिनकी ङ्क्षचताएं और जरूरतें अब चुनाव केंद्रित राजनीति में किसी के एजैंडा पर नहीं रह गई हैं?
कभी तमिलनाडु से शुरू हुआ मुफ्त की रेवडिय़ों का चुनावी खेल अब पूरे देश में खुल कर खेला जा रहा है। चुनाव-दर-चुनाव मुफ्त की रेवडिय़ों की प्रवृत्ति बढ़ रही है और सरकारी खजाने पर उसका बोझ भी, जिसका नकारात्मक असर विकास कार्यों पर साफ नजर आता है। राजनीतिक दलों में लोक लुभावन घोषणाओं की बढ़ती होड़ से साफ है कि इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से ले कर चुनाव आयोग तक की नसीहतें बेअसर रही हैं। अब आखिरी उम्मीद मतदाताओं पर ही टिकी है कि कभी तो वे मतदान तक सीमित कर दी गई अपनी भूमिका से आगे नागरिक के रूप में अपने वास्तविक अधिकारों और दायित्वों को समझेंगे, ताकि लोकतंत्र को सत्ता का खेल भर बनने से बचाया जा सके।-राज कुमार सिंह