Edited By ,Updated: 01 Jun, 2024 05:16 AM
इसे सौभाग्य या प्रगति तो नहीं कहा जा सकता। क्या ऐसा होता है कि किसी भी तरह से कमाए गए धन और लोकतांत्रिक तरीके के इस्तेमाल से प्राप्त राजनीतिक सत्ता का घालमेल हो जाए और कुछ भी न किया जा सकता हो? एक ऐसा नशा हो जाए जिसका उतरना सामान्य परिस्थितियों में...
इसे सौभाग्य या प्रगति तो नहीं कहा जा सकता। क्या ऐसा होता है कि किसी भी तरह से कमाए गए धन और लोकतांत्रिक तरीके के इस्तेमाल से प्राप्त राजनीतिक सत्ता का घालमेल हो जाए और कुछ भी न किया जा सकता हो? एक ऐसा नशा हो जाए जिसका उतरना सामान्य परिस्थितियों में संभव न हो। एक तो करेला और ऊपर से नीम चढ़ा जिसे जिसकी लाठी उसकी भैंस भी कह सकते हैं।
क्या यह अपराध नहीं? : हमारे देश के सब से बड़े धनपतियों में से एक अडानी समूह है जिसका विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक, व्यापारिक और औद्योगिक साम्राज्य है। प्रगति में उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। परंतु प्रश्न यह है कि क्या केवल इसी आधार पर इस समूह को वह सब करने की छूट मिलनी चाहिए जो अनुचित है, दुरुपयोग करने के दायरे में आता है और एक बहुत बड़े क्षेत्र और वहां रहने वालों के लिए जीवन भर की त्रासदी बन जाता है। विषय यह है कि समूह ने योजना बनाई कि खनिज पदार्थों से मालामाल, अनुपम सौंदर्य से भरपूर वन संपदा तथा प्राकृतिक संसाधनों की भरमार वाले झारखंड राज्य के एक आदिवासी बहुल इलाके में पॉवर प्लांट लगाया जाए। बहुत अच्छी बात है। इसके लिए 295 हैक्टेयर भूमि चाहिए थी और ऐसे इलाके का चयन कर लिया जाता है जहां कोयले का अपार भंडार है जो पॉवर प्लांट के लिए जरूरी है। इसमें वन्य भूमि 141, निजी स्वामित्व वाली 137 और सरकारी 17 हैक्टेयर है और वह भी ज्यादातर जंगल है।
अब यहां शुरू होता है धन और राजनीति के संगम का खेल जिसके चतुर खिलाड़ी वे सब पांसे फैंकते हैं जिससे उनकी विजय सुनिश्चित हो। इनके सामने वे लोग हैं जिन पर प्रकृति की धरोहर को नष्ट न होने देने की जिम्मेदारी है। इनमें आदिवासी, किसान, वन से प्राप्त होने वाली उपज पर निर्भर तथा सीधे-सादे ग्रामीण हैं जिनकी आजीविका का साधन यही वन हैं। लगभग 50 लाख लोग इस क्षेत्र पर निर्भर हैं। इन्हें इस बात का भी पता नहीं है कि सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार देश के संविधान ने उन्हें दिया हुआ है। वे अपनी जमीन और जंगल को बचाने के लिए संघर्ष की मुद्रा में आ जाते हैं। किसी भी कीमत पर वे प्रकृति की अनोखी विरासत को न छीन लिए जाने के लिए एकजुट हो जाते हैं। अपनी शक्ति भर कोशिश करते हैं। आंदोलन होते हैं लेकिन तुलसीदास की कही बात कि ‘समरथ को नाङ्क्षह दोष गुसाईं’ सिद्ध होने लगती है।
इस बीच पड़ोसी देश बंगलादेश से बिजली देने का करार हो जाता है जिसका उत्पादन इस पॉवर प्लांट से किया जाएगा। इधर सरकारी ऋणदाता पॉवर फाइनांस कारपोरेशन और रूरल इलैक्ट्रिफिकेशन कारपोरेशन उदार शर्तों पर फंडिंग कर देते हैं। कोयले की खदानों पर कब्जा और उनका दोहन करने के प्रबंध हो जाते हैं। प्लांट के लिए पानी चाहिए तो भू जल यानी अंडरग्राऊंड वाटर निकालने की तैयारी कर ली जाती है। एक ओर जलाशय भरते हैं तो दूसरी ओर जमीन सूखने लगती है। मतलब यह कि कृषि चौपट, स्थानीय आबादी की आमदनी के साधन लुप्त और कुदरत की मार झेलने की मजबूरी का व्यापक प्रभाव पडऩा निश्चित हो जाता है।
क्या कुछ बदल सकता है? : एक आंकड़ा है कि यदि 10 अमीर भारतीय अपनी पूंजी का 10 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करें तो देश के विद्यार्थियों को पच्चीस वर्ष तक प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा मुफ्त में मिल सकती है। इसी तरह अगर सिर्फ एक प्रतिशत टैक्स उनसे अधिक लिया जाए तो बेरोजगारों और कामगारों की किस्मत बदल सकती है। वास्तविकता यह है कि इन्हीं अमीरों को सभी तरह की छूट, कर्ज से मुक्ति और बैंकों को चूना लगाकर विदेश भाग जाने की सहूलियत बड़े आराम से मिल जाती है। ऐसा नहीं है कि केवल धनाढ्य ही इस सूची में हैं। हमारे धार्मिक नेता भी हैं। स्वामी नित्यानन्द 10 हजार करोड़ के मालिक हैं और देश से भाग कर कैलाश नाम से एक नए हिंदू राष्ट्र की स्थापना करने की कल्पना साकार करने लगे। स्वामी रामदेव, मां अमृतानंदमयी, श्री श्री रविशंकर भी हजारों करोड़ की नैटवर्थ रखते हैं। यह सूची बहुत लंबी है और इसमें आसाराम से लेकर राम रहीम तक शामिल हैं।
यह कैसी सामाजिक व्यवस्था है जो 100-50 करोड़ के अनेक घर कुछ लोगों के लिए खरीदना बाएं हाथ का खेल बना देती है। नाबालिग के हाथ में करोड़ों की कार की चाबी थमा देती है, निर्दोषों की नृशंस हत्याएं करने वाले को मसीहा बनाने पर तुल जाती है, जघन्य अपराध करने वालों को कोई सबूत या गवाह न मिलने पर खुला छोड़ देती है और घोषित आतंकवादी की रिहाई के लिए न्याय व्यवस्था को निरीह बनाने की कोशिश करती दिखाई देती है।
इसके विपरीत देश की तीन चौथाई आबादी अभाव की कड़वी दवाई पीने के लिए विवश है। ऐसा तो निपट पूंजीवादी और पूरी तरह से साम्यवादी देशों में भी देखने को नहीं मिलता। अगर कहीं मिलता है तो हमारे जैसे देश में जहां चाहे अधिनायकवाद न हो या सम्राटों की परंपरा समाप्त हो गई हो अथवा प्रजातांत्रिक देश होने का दंभ घुट्टी में यानी पैदा होते ही पिलाया जाता हो; कुछ भी, कभी भी और कहीं भी हो सकता है। यहां सब कुछ मुमकिन है लेकिन सामान्य नागरिक, जैसे कि वह पराधीन हो, उसकी रिहाई या राहत मिलना नामुमकिन है।-पूरन चंद सरीन