Edited By ,Updated: 30 May, 2024 05:43 AM
गत शनिवार (25 मई) पाकिस्तानी पंजाब फिर गलत वजह से सुर्खियों में रहा। यहां सरगोधा जिले स्थित मुजाहिद कॉलोनी में मुसलमानों की उन्मादी भीड़ ने ईशनिंदा के आरोप में दो ईसाई परिवारों और एक चर्च पर हमला करके बुजुर्ग की हत्या कर दी।
गत शनिवार (25 मई) पाकिस्तानी पंजाब फिर गलत वजह से सुर्खियों में रहा। यहां सरगोधा जिले स्थित मुजाहिद कॉलोनी में मुसलमानों की उन्मादी भीड़ ने ईशनिंदा के आरोप में दो ईसाई परिवारों और एक चर्च पर हमला करके बुजुर्ग की हत्या कर दी। गुस्साई भीड़ ने घर में घुसकर तोडफ़ोड़ की, फिर उनकी जूतों की फैक्ट्री को लूटकर फूंक दिया।
गत वर्ष भी पाकिस्तानी पंजाब में कट्टरपंथियों ने 21 चर्चों को आग के हवाले कर दिया था। मुल्ला-मौलवियों का आरोप है कि चर्च, ईशनिंदा को बढ़ावा दे रहे हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि पाकिस्तान में अन्य अल्पसंख्यक हिंदू और सिख भी जिहादियों के निशाने पर रहते हैं। क्या यह सब किसी भी सूरत में ‘पंजाबियत’ के मुताबिक है? दरअसल, 1947 में मुल्क के तकसीम होते ही पाकिस्तानी पंजाब में ‘पंजाबियत’ को इस्लामीकरण के बुखार ने निगल लिया। यहां के निजी-सरकारी दफ्तरों, सार्वजनिक संवाद और सूचना-पट्टों में उर्दू भाषा का उपयोग होता है। बंटवारे के बाद 77 साल बाद पाकिस्तानी पंजाब की मरियम सरकार ने स्कूलों में पंजाबी भाषा पढ़ाने का ऐलान तो किया है, परंतु वह सिख गुरु परंपरा से निकली सत्कार-योग्य गुरमुखी के बजाय फारसी-अरबी शाहमुखी लिपि के मुताबिक होगी।
बड़ा सवाल यही है कि क्या इस पर अमल होगा और अगर ऐसा हुआ भी तो यह कब तक कायम रहेगा? इस सूबे के ज्यादातर, तो मुल्क के 40 फीसदी बाशिंदे पंजाबी में बात करते हैं जिन्हें हीन-दृष्टि से देखा जाता है। खुद को पढ़ा-लिखा समझने वाले शहरी और ऊंचे-अमीर घराने उर्दू में गुफ्तगू करना पसंद करते है। यह घालमेल की इंतिहा है कि पाकिस्तान का राष्ट्रगान अपनी किसी आधिकारिक (अंग्रेजी और उर्दू) या स्थानीय भाषा (पंजाबी, सिंधी, पश्तो, बलोच सहित) के बजाय उस गैर-मुल्की फारसी जुबान में है, जिसे बोलने-समझने वाले पाकिस्तान में काफी कम हैं।
पाकिस्तान में यह हालात उसके वैचारिक अमले द्वारा अपनी मूल संस्कृति से कटकर खुद को मध्यपूर्वी-अरब संस्कृति से जोडऩे की कोशिशों का नतीजा है। पाकिस्तानी पंजाब को भी उसकी जड़ों से काटना इसी साजिश का एक हिस्सा है। इसलिए आजादी से पहले अविभाजित पंजाब की धरती पर जन्मे लाला लाजपत राय, भगत सिंह, सुखदेव, उधम सिंह, मदनलाल ढींगरा, हरनाम सिंह सैनी आदि क्रांतिकारियों के नाम पर पाकिस्तानी पंजाब में न तो कोई सड़क है, न ही कोई यादगार है और न ही उनके लिए कोई इज्जत। 2 शताब्दी पहले लाहौर, महाराजा रणजीत सिंह की राजधानी हुआ करती थी।
कुछ वर्ष पहले पाकिस्तान ने अपनी गिरती साख बचाने के लिए लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा लगाई थी, जिसे मुस्लिम कट्टरपंथी 3 बार तोड़ चुके हैं। इसकी तुलना में ब्रिटिशराज के दौरान दिल्ली में जन्मे सर सैयद अहमद खां, उत्तर प्रदेश में जन्मे अली बंधु (शौकत अली और मोहम्मद अली जौहर) और पंजाब में जन्मे मोहम्मद इकबाल आदि के नाम पर पाकिस्तान में कई भवन और सड़कें हैं, तो उनके ऐहतराम में डाक टिकट तक जारी हो चुके हैं। बदकिस्मती देखिए कि पाकिस्तान के इन्हीं नायकों के लिए खंडित भारत में एक वर्ग (राजनीतिक सहित) का दिल आज भी धड़कता है, लेकिन लाहौर में अदालती फैसले के सालों बाद भी पाकिस्तानी हुक्मरान शादमान चौक का नाम भगत सिंह को समर्पित नहीं कर पाए हैं।
150 साल पहले तक लाहौर दर्जनों ऐतिहासिक शिवालयों, ठाकुरवाड़ा, जैन मंदिरों और गुरुद्वारों से गुलजार था। कुछ अपवादों को छोड़कर बाकी सब 1947 के बाद या तो मस्जिद/दरगाह बना दिए गए या किसी की निजी संपत्ति हो गई या फिर लावारिस खंडहर में तबदील हो चुके हैं। शताब्दियों तक इस्लामी हमले सहने के बावजूद संयुक्त पंजाब में पंजाबियत ही बहुलतावाद, समरसता और सह-अस्तित्व का प्रतीक रही है। सिख गुरुओं ने स्वयं को हिंदू-मुस्लिमों या सिखों या फिर केवल पंजाब तक सीमित नहीं रखा। इसमें मानवता और समस्त हिंदुस्तान का विचार है। वर्ष 1937 के प्रांतीय चुनाव में पंजाबियों ने कट्टरपंथी मुस्लिम लीग के बजाय ‘सैकुलर’ यूनियनिस्ट पार्टी को चुना। इस दल ने सिकंदर हयात खान के नेतृत्व में अकाली दल और कांग्रेस के साथ मिलकर पंजाब में सरकार बनाई।
मोहम्मद अली जिन्ना से एक समझौता होने पर भी सिकंदर ने 1940 के ‘पाकिस्तान प्रस्तावना’ को खारिज कर दिया। उनके निधन के बाद खिजर हयात तिवाना ने 1942 में पंजाब सरकार की कमान संभाली। वे भी मुस्लिम लीग की विचारधारा और इस्लाम के नाम पर भारत के बंटवारे के खिलाफ थे। पंजाबियत को जीते हुए खंडित भारत के पूर्व प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल के पिता और तत्कालीन पंजाब स्थित झेलम (अब पाकिस्तान में) के कांग्रेस जिलाध्यक्ष अवतार नारायण गुजराल ने पाकिस्तान में रहने का फैसला किया था। वे पाकिस्तान संविधान सभा के सदस्य भी बने।
अवतार ने स्थानीय हिंदुओं और सिखों को समझाया कि पश्चिमी पंजाब में वे सभी सुरक्षित रहेंगे। परंतु वे अपना वायदा पूरा नहीं कर पाए। ‘काफिर-कुफ्र’ प्रेरित मजहबी नरसंहार के बाद असंख्य ङ्क्षहदुओं-सिखों की भांति अवतार भी अपने परिवार के साथ खंडित भारत में लौट आए। इसका जिक्र इंद्रकुमार गुजराल के भाई, लेखक और चित्र-मूर्तिकार सतीश गुजराल ने अपनी आत्मकथा ‘ए ब्रश विद लाइफ’ में किया है। यह ठीक है कि भारतीय पंजाब की अपनी कई समस्याएं हैं। परंतु उसका एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान द्वारा ही दर-आमद है। अपने ‘ब्लीड इंडिया विद थाऊजंड कट्स’ सैन्य सिद्धांत के अंतर्गत, पाकिस्तान यहां चिट्टा पहुंचाकर बेहिसाब नौजवानों को नशे की लत में धकेल चुका है। ब्रितानी पैदावार खालिस्तान के नाम पर पाकिस्तान सिख चरमपंथ की चिंगारी भड़काता रहता है। बेशक, पाकिस्तानी पंजाब कई लाइलाज बीमारियों से जकड़ा है। पाकिस्तानी हुक्मरानों की कोशिश है कि यह रोग भारत में भी फैले। इसलिए उनका पहला निशाना भारतीय पंजाब ही है।-बलबीर पुंज