Edited By ,Updated: 23 Oct, 2024 05:15 AM
कोटा और जाति भारत में चुनावों में सबसे बड़े मार्गदर्शक होते हैं और ये मुद्दे फिर राजनीतिक क्षितिज पर छाने लगे हैं। राजनीतिक दल अपने वोट बैंक को तुष्ट करने के लिए आरक्षण को मूंगफलियों की तरह बांट रहे हैं। यह इस बात को रेखांकित करता है कि 21वीं सदी का...
कोटा और जाति भारत में चुनावों में सबसे बड़े मार्गदर्शक होते हैं और ये मुद्दे फिर राजनीतिक क्षितिज पर छाने लगे हैं। राजनीतिक दल अपने वोट बैंक को तुष्ट करने के लिए आरक्षण को मूंगफलियों की तरह बांट रहे हैं। यह इस बात को रेखांकित करता है कि 21वीं सदी का भारत भी जस का तस बना हुआ है। पिछले सप्ताह भाजपा सरकार का हरियाणा देश का पहला ऐसा राज्य बना जिसने अगस्त में उच्चतम न्यायालय की 7 सदस्यीय खंडपीठ द्वारा दिए गए निर्णय को लागू किया। इस निर्णय में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण के उप वर्गीकरण की अनुमति दी गई थी।
इस प्रकार अनुसूचित जातियों को 2 वर्गों में बांटा गया है। वंचित अनुसूचित जातियां, जिसमें वाल्मीकि, धनका, मजहबी सिख, खटीक जैसे 36 समूह हैं और अन्य अनुसूचित जनजातियां, जिसमें चमार, जटिया चमार, रहगर, रैगार, रामदासी, रविदासी और जाटव शामिल हैं और एक समूह को राज्य में सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जातियों के लिए निर्धारित 20 प्रतिशत कोटा का आधा कोटा मिलेगा। इसका मूल उद्देश्य एक बड़े समूह के अंतर्गत असमानता को दूर करना है, जो एक धु्रवीकरण का मुद्दा बन गया है क्योंकि शक्तिशाली दलित समूह इसका विरोध कर रहे हैं। यह भाजपा द्वारा इस समुदाय के अंतर्गत मतभेदों को भुनाने का प्रयास भी है क्योंकि ऐतिहासिक दृष्टि से अनुसूचित जातियां भाजपा विरोधी दलों का समर्थन करती रही हैं और अब भाजपा उनका वोट प्राप्त करने का प्रयास कर रही है।
इस बार के चुनाव में 17 आरक्षित सीटों में से भाजपा ने 8 सीटों पर जीत दर्ज की है जो 2019 से 5 सीटें अधिक हैं। यही नहीं, अन्य पिछड़े वर्गों को वर्चस्ववादी और गैर-वर्चस्ववादी वर्गों में बांटने के बाद पार्टी अब अनुसूचित जातियों के वोटों पर ध्यान केन्द्रित कर रही है। महाराष्ट्र में भाजपा, शिवसेना-शिंदे और राकांपा-अजीत की महायुति सरकार भी चुनावों के लिए तैयार है और उसने भी अनुसूचित जातियों के कोटे को उपजातियों में वर्गीकृत करने के लिए एक समिति का गठन किया है।
दलितों का उपवर्गीकरण पहली बार किया जाएगा, किंतु आज दलित शक्तिशाली वर्ग बन गया है और यह इसके अंतर्गत दलितों को एकजुट करने के पैटर्न को बदल देगा। व्यापक दृष्टि से देखें तो उपवर्गीकरण एक सकारात्मक कदम है क्योंकि दलितों में संपन्न वर्ग आरक्षण का अधिक लाभ उठा रहे हैं और हाशिए पर तथा सीमान्त वर्ग इससे वंचित रह रहे हैं। अनुसूचित जातियों की श्रेणियां बढ़ रही हैं और इस श्रेणी में नए समूहों को जोड़ा जा रहा है, इसलिए सीमान्त समूहों को रोजगार, शिक्षा, छात्रवृत्ति आदि मिलने के बेहतर आसार हैं। यदि उपवर्गीकरण को कुशलता और ईमानदारी से किया जाए तो आरक्षण अधिक समावेशी बनेगा क्योंकि इसमें उन वर्गों की पहचान होगी जो सबसे ज्यादा वंचित हैं।
पंजाब में अनुसूचित जातियों की संख्या 32 प्रतिशत है और उसने 1975 में इनके आरक्षण में उपवर्गीकरण की आवश्यकता को महसूस किया तथा वाल्मीकि तथा मजहबी सिखों के लिए अनुसूचित जातियों के आरक्षण का 50 प्रतिशत आरक्षित किया। तमिलनाडु में भी सामाजिक न्याय के लिए ऐसा किया गया। नि:संदेह सामाजिक न्याय एक वांछनीय और प्रशंसनीय लक्ष्य है और साथ ही सरकार का उद्देश्य लोगों को शिक्षित करना, सबको समान अवसर तथा जीवन की बेहतर गुणवत्ता उपलब्ध कराना है। आरक्षण दशकों से सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण बुनियादी शिक्षा उपलब्ध न करा पाने का प्रतिस्थापन बन गया है, परिणामस्वरूप अदूरदर्शिता से आरक्षण का विस्तार किया गया, जिसके चलते विभिन्न समूहों में संकीर्ण पहचान मुखर हुई और स्थिति यहां तक बन गई कि चुनावी सत्ता की राजनीति में संख्या की दृष्टि से बड़े समूह अन्य समूहों की कीमत पर लाभ उठा रहे हैं।
सरकारी और निजी क्षेत्र में रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं, जिसके चलते जातीय प्रमाण पत्र घोटाले भी सामने आए हैं। यह बताता है कि हमारी नीति किस तरह विफल रही है क्योंकि आरक्षण लोगों के उत्थान या उनके जीवन को बेहतर बनाने का एकमात्र उपाय नहीं है। 90 के दशक से राजनीतिक दलों ने आरक्षण का उपयोग छोटे समूहों को आकॢषत करने के लिए किया है क्योंकि अब दलित वोट एक जैसे नहीं पड़ते और इससे एक नई राजनीतिक स्थिति बनी है। आगे स्थिति में सुधार इस बात पर निर्भर करेगा कि हम अनुसूचित जातियों में असमानता को स्वीकार करें, उसका निराकरण करें और जमीनी स्तर पर इसे दूर करने का प्रयास करें।
सच्चाई यह है कि आज हम एक दुष्चक्र में फंसे हुए हैं और जिसे हर कीमत पर सत्ता प्राप्त करने के लिए लालायित तुच्छ नेताओं ने और जटिल बना दिया है। यही नहीं, इसमें वर्ग संघर्ष का खतरा भी पैदा हो गया है। हमारे नेताओं और उनके चेलों को समझना होगा कि सामाजिक न्याय और समान अवसर कुछ चुनिंदा लोगों का विशेषाधिकार नहीं है। जाति आधारित आरक्षण विभाजनकारी रहा है और इसका प्रयोजन पूरा नहीं हुआ। हमारे राजनेताओं को यह भी समझना होगा कि वे आज की जैनरेशन भीड़भाड़ भरे रोजगार बाजार में गुणवत्ता के आधार पर नौकरी चाहती है। केवल शिक्षा और रोजगार में आरक्षण से उत्कृष्टता नहीं आएगी। इसके लिए इन वर्गों को प्रशिक्षित करने के लिए नए तरीके विकसित करने होंगे ताकि वे सामान्य श्रेणी के अभ्यर्थियों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें। कुल मिलाकर हमारे नेताओं के लिए आवश्यक है कि वे सभी के लिए समान अवसर उपलब्ध कराएं क्योंकि कोटा विभाजनकारी है और यह अपने उद्देश्यों को पूरा करने में विफल रहा है।-पूनम आई. कौशिश