धर्म, जाति, परिवार और समाज देश के चार स्तंभ, इन्हें मत बांटें

Edited By ,Updated: 17 Aug, 2024 05:11 AM

religion caste family and society are the four pillars of the country

सत्य यह है कि धर्म जन्मजात होता है, जाति तय होती है, माता-पिता और परिवार निश्चित हैं तथा व्यक्ति पहले से निर्धारित परिस्थितियों के अनुरूप ही अपनी जीवन यात्रा शुरू करता है। व्यापक रूप से यही चार जीवन के स्तंभ हैं।

सत्य यह है कि धर्म जन्मजात होता है, जाति तय होती है, माता-पिता और परिवार निश्चित हैं तथा व्यक्ति पहले से निर्धारित परिस्थितियों के अनुरूप ही अपनी जीवन यात्रा शुरू करता है। व्यापक रूप से यही चार जीवन के स्तंभ हैं। प्रश्न यह है कि क्या यह समझा जाए कि क्योंकि जहां जन्म हुआ है, उस घर के लोगों का यह अधिकार हो जाता है कि वे जन्मे शिशु के मालिक हैं और उसे जीवन भर वही करना है जैसा वे कहें? 

धर्म, जाति और समाज : बड़े होने पर जब कोई व्यक्ति अन्य धर्म से प्रभावित होकर या किसी अन्य कारण उसे अपना लेता है तो उसके मूल धर्म के लोग उसका विरोध करते हैं। यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरी जाति के लोगों के साथ उठता-बैठता है तो वह शत्रु हो जाता है और कहीं किसी दूसरे धर्म या जाति में विवाह संबंध हो गया तब तो सामान्य परिवारों में भूकंप आना तय है। परिवार तो मान लीजिए किसी तरह बच्चों की खुशी का मान रखते हुए उन्हें स्वीकार कर भी ले लेकिन समाज इसे स्वीकार नहीं कर पाता। पूरा परिवार निशाने पर आ जाता है। धर्म और जाति से बहिष्कार करने के लिए सभी मार्ग अपनाए जाते हैं। क्या धर्म और जाति इतने असहिष्णु होते हैं कि किसी व्यक्ति की अपनी इच्छा का कोई महत्व ही न हो और धर्म, जाति, परिवार की बेडिय़ों में जकड़कर किसी का जीना ही मुहाल कर दिया जाए? असल में हम जैसे माहौल में रहते हैं, वैसा आचरण करते हैं। समाज और उसकी परंपराओं और मान्यताओं के नाम पर एक-दूसरे को आंखों नहीं सुहाते और यहां तक कि आपस में बिना किसी कारण शत्रुता करने लगते हैं। जुबान से चाहे न कहें पर मन में यही चाहते हैं जो हाव-भाव और भंगिमा से प्रकट हो ही जाता है। 

भारत में मुगल और अंग्रेजी हुकूमत ने धर्म और जाति के आधार पर पड़ी परिवार और समाज की इस नींव को समझा और भारतीयों को मानसिक गुलाम बनाने का काम शुरू कर दिया। इन्हें मोहरा बनाकर भारतीय समाज को एक-दूसरे से लड़वाने, कभी एक न होने देने की बिसात बिछा दी और ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपनाई। बदकिस्मती से आज भी यही हो रहा है। दुर्भाग्य इस बात का भी है कि आजादी के 8 दशक होने वाले हैं और हम सदियों पुरानी दासता निभाए जा रहे हैं। धर्म के नाम पर दंगे होते हैं, जाति को लेकर बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य कृत्य होते हैं।  परिवार और उसके भेस में खानदान की आबरू पर बट्टा लगने की बात होती है। रस्सी जल गई पर ऐंठन नहीं गई की कहावत प्रतिदिन चरितार्थ होते हुए दिखाई देती है। 

ऐसे-ऐसे नियमों की दुहाई दी जाती है जिनका कोई सिर-पैर नहीं होता लेकिन उनका पालन अनिवार्य है। जरा-सी चूक हुई कि धर्म, जाति, परिवार और समाज से बाहर होने या नाक कटने का खतरा हो जाता है। अपनी हद में रहने की नसीहत दी जाने लगती है। यहां तक कि कोई यदि अपने खानदानी पेशे से अलग हटकर कुछ करने की कोशिश करता है तो हजारों रुकावटें खड़ी हो जाती हैं। यही नहीं खानपान को लेकर भी इतनी बंदिशें हैं कि कुछ मत पूछिए, बस मानते चले जाइए वरना अंजाम बुरा होना तय है। मेरा धर्म तेरा धर्म, उसकी जात इसकी जात, उनकी रस्म और हमारे रिवाज, इन्हीं सब बातों में समाज को उलझाए रखना ही असल में उन लोगों का मकसद होता है जो देश के संसाधनों को हड़पने और उन पर अपना एकाधिकार मानकर दिन दूनी रात चौगुनी गति से अमीर बन रहे हैं। 

बेतुकी और आधारहीन बातें : जरा सोचिए कि क्या इस बात में कोई तुक है कि मंदिर में किसी अन्य धर्म या जाति के व्यक्ति के प्रवेश पर रोक लगाई जाए और यदि वह किसी तरह अंदर चला जाए तो उसके जाने के बाद पूरे परिसर की धुलाई हो क्योंकि वह अपवित्र हो गया है और उसे पवित्र करना है। यह केवल एक धर्म या जाति की बात नहीं है, सभी में यही कट्टरता है, स्वरूप भिन्न हो सकते हैं। शुद्धिकरण के नाम पर छुआछूत को बढ़ावा देना क्या तर्कसंगत है, धर्म की आड़ लेकर किसी को नापाक कहना उचित है, जाति के अभिमान के आगे किसी को अपने पैरों पर गिड़गिड़ाते हुए बैठने के लिए कहना न्यायोचित है, धनवान होने के नाते गरीब को हिकारत से देखना अधिकार है और सबसे बड़ी बात यह कि जब ईश्वर ने यह संसार बिना किसी भेदभाव और सबको अपना जीवन अपनी इच्छानुसार जीने देने के लिए बनाया तो क्यों हम उसमें अपनी टांग अड़ाकर प्रकृति के विरोध में खड़े दिखाई देते हैं ? 

परिवर्तन की लहर या साजिश : कुछ धर्मों और जातियों की विडंबना और विरोधाभास तथा कथनी और करनी में अंतर के कारण लोग तंग आकर उन धर्मों की शरण में जाते हैं जिनमें अधिक खुलापन है, सम्मान है, जन्म के आधार पर व्यवहार नहीं होता, संस्कृति और परंपरा के अनुसार चलने की मजबूरी नहीं होती और सोच की परिधि को कैद करके नहीं रखा जाता। बापू गांधी, बाबा साहब अंबेडकर, महात्मा ज्योतिबा फुले सहित अनेक मनीषियों ने इन विसंगतियों को न केवल समझा बल्कि उन्हें दूर करने के प्रयत्न किए। पहले जहां धर्म और जातियों में बंटे लोग एक साधारण-सी बात मान लीजिए भोजन को लेकर आपस में दुराव-छिपाव रखते थे, अब कम से कम एक ही स्थान पर बैठकर अपना-अपना खाना-पीना तो कर सकते हैं। इसी तरह धन और ताकत का नशा भी उतर रहा है। 

महिलाओं को समान अधिकार देने की बात भी होती है। हालांकि अभी भी गांव देहात में धर्म और जाति की पकड़ पूरी तरह ढीली नहीं हुई है, फिर भी संतोष की बात यह है कि चाहे समाज कितना भी अंकुश लगाए, स्वतंत्र चेता लोग विशेषकर पढ़ा-लिखा युवा वर्ग अपने को नए युग की आवश्यकताओं के अनुसार ढाल रहा है।-पूरन चंद सरीन 
 

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