बार-बार चुनाव लोकतंत्र की तौहीन

Edited By ,Updated: 16 Nov, 2024 05:29 AM

repeated elections are an insult to democracy

भारत  विश्व का सबसे बड़ा एवं गौरवमयी प्रजातांत्रिक पद्धति सम्पन्न राष्ट्र है। पवित्र संविधान के लागू होने के पश्चात पहली बार 1952 में चुनाव आजादाना गैर-जानिबदाराना और अमनो-अमान के साथ 5 महीनों में पूरे हुए। भारतीयों के लिए यह चुनाव सबसे बड़ा उत्सव...

भारत विश्व का सबसे बड़ा एवं गौरवमयी प्रजातांत्रिक पद्धति सम्पन्न राष्ट्र है। पवित्र संविधान के लागू होने के पश्चात पहली बार 1952 में चुनाव आजादाना गैर-जानिबदाराना और अमनो-अमान के साथ 5 महीनों में पूरे हुए। भारतीयों के लिए यह चुनाव सबसे बड़ा उत्सव था क्योंकि पहली बार इतिहास में मजहबों मिल्लत, अमीर और गरीब के भेदभाव कों दर-किनार करके सबको समान मतदान करने का अधिकार मिला था। लोग कई मील पैदल चल कर, बैलगाडिय़ों में बैठ कर तथा कई ढोल-बाजों के साथ काफी संख्या में इकट्ठे होकर वोट डालने के लिए पोलिंग बूथों पर पहुंचे थे। देश में पहली बार केन्द्र और राज्यों के चुनाव एक साथ हुए थे। 

हकीकत में यहीं से एक राष्ट्र एक चुनाव की सुनहरी परम्परा शुरू हुई थी। भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी और सुविख्यात स्टेट्समैन पंडित नेहरू को प्रथम प्रधानमंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। इसके पश्चात 1957, 1962, 1967 में संसद और विधानसभाओं के चुनाव एक  साथ होते रहे और राष्ट्र विकास के पथ पर बिना रुकावट चलता रहा। 1967 के चुनाव में केन्द्र में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस  सत्तासीन हो गई परंतु तमिलनाडु समेत 9 राज्यों में उसे हार का मुंह देखना पड़ा। इन राज्यों में छोटे-बड़े दलों ने मिलकर संयुक्त सरकारें बनाईं जिन्हें मजाक में खिचड़ी सरकारें भी कहते थे। इन सरकारों की न तो एक नीति थी, न एक विचारधारा और न ही विकास का कोई सुनियोजित और सुनिश्चित प्रोग्राम। हकीकत में यह भानुमती का कुनबा था। इस तरह पहली बार कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों का बोलबाला हो गया। इस बड़े राजनीतिक परिवर्तन के कई कारण थे। प्रथम 1962 में भारत-चीन  युद्ध, 1965 में भारत-पाक युद्ध, देश में अनाज की कमी से बढ़ती हुई महंगाई तथा  राष्ट्र के 2 अति लोकप्रिय महान नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री का दुनिया से रुखस्त हो जाना।

राष्ट्र में राजनीतिक उथल-पुथल शुरू हो गई। तमिलनाडु में ङ्क्षहदी के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन शुरू हुआ। पंजाब में पंजाबी सूबा आंदोलन ने जोर पकड़ा। कई प्रदेशों में बेकारी के कारण नौजवान सड़कों पर उतर आए। कई प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के खुले आरोप लगने लगे जिसके परिणामस्वरूप प्रदेशों में गैर-कांग्रेस सरकारें अस्तित्व में आ गईं परंतु किसी का कार्यकाल 8 महीने, किसी का 9 महीने कोई एक साल बाद दम तोड़ गया। इस तरह राज्यों में चुनाव पर चुनाव होने लगे जो आज भी लगातार जारी है। देश के 28 राज्यों और केंद्र शासित राज्यों में हर वर्ष 3 से 5 राज्यों में चुनाव होने लगे जिससे एकरूपता, एकसारता और एकजुटता की कडिय़ों में बिखराव आ गया। 

केन्द्र में भी श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद निश्चित समय के एक साल पहले चुनाव करवा दिया। इस तरह केंद्र में भी गठजोड़ सरकारें बनती, टूटती गईं और फिर कई बार नए चुनाव करवाने पड़े। हकीकत में 1967 से लेकर आज तक केंद्र और राज्यों में एक समय पर चुनाव करवाने की सुनहरी परम्परा पटरी से उतर गई। अब हर वर्ष कई प्रदेशों में चुनाव होते रहते हैं।

केंद्र में बार-बार सरकारों का बदलना और प्रदेशों में सरकारों के बनने और टूटने से देश की समूची राजनीतिक व्यवस्था, प्रशासनिक व्यवस्था और समाज पर बुरे प्रभाव पडऩे लगे। संयुक्त सरकारों के समय देश में भ्रष्टाचार का दौर शुरू हो गया जो आज तक समूचे समाज में कैंसर की तरह गहरी जड़ें पकड़ता जा रहा है। ईमानदार, दयानतदार, बेदाग और योग्य नेताओं के स्थान पर कई अपराधी तत्वों का राजनीति में बोलबाला हो गया। प्रशासनिक व्यवस्था अक्षमता की तरफ बढऩे लगी और छोटे-छोटे काम करवाने के लिए लोगों को रिश्वत के साथ-साथ परेशानियों का भी सामना करना पड़ा। 

प्रशासन में अनावश्यक दखलअंदाजी से कानून-व्यवस्था भी बिगडऩे लगी। विकास के कार्य भी धीमे होने लगे। प्रजातंत्र ‘अमीरों की बांधी’ का रूप धारण करने लगा। बार-बार चुनावों में वोट हासिल करने के लिए राजनेताओं ने विकास के स्थान पर मुफ्तखोरी का प्रलोभन देना शुरू कर दिया जबकि ऐतिहासिक हकीकत यह है कि मुफ्तखोरी से लोगों में संघर्ष करने की भावना कम होने लगती है और आलस की नई बीमारी जन्म ले लेती है। बार-बार चुनावों से राजनीतिक दलों में गैर-जरूरी तनाव पैदा होने लगता है। वेनेजुएला और श्रीलंका की जबरदस्त बर्बादी इस मुफ्तखोरी के कारण हुई। 2024 के संसदीय चुनाव में एक अरब 35 हजार करोड़ रुपया खर्च किया गया। यह केवल सरकारी खर्च है, इसके अतिरिक्त संसदीय उम्मीदवारों ने कितना खर्च किया यह हिसाब से ही बाहर है। हर वर्ष यदि 3 से 5 राज्यों में चुनाव किए जाएं तो उस पर भी करोड़ोंं रुपया खर्च होता है जो लोगों पर एक बहुत बड़ा बोझ है।

यदि 5 वर्षों में एक बार केंद्र और राज्यों के चुनाव करवा दिए जाएं तो धन भी कम खर्च होगा और बचे हुए धन से विकास के कार्यों को खूबसूरत तरीके से अंजाम दिया जा सकेगा। बार-बार चुनावों से प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्री और प्रदेश की सरकारों और पड़ोसी राज्यों के नेताओं की सारी शक्ति चुनाव जीतने में लग जाती है जिससे प्रशासनिक व्यवस्था में शिथिलता आ जाती है और लोगों को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

एक राष्ट्र-एक चुनाव के साथ एक ही मतदाता सूची भी होनी चाहिए  ताकि पंचायतों, नगर कौंसिलों, निगमों, विधानसभाओं और संसदीय चुनावों में वोट डालते समय किसी परेशानी का सामना न करना पड़े। चुनावों के लिए 5 वर्षों में 3 महीने निश्चित कर दिए जाएं ताकि शेष समय में सरकारें राष्ट्र के विकास की तरफ ध्यान दे सकें और इससे रोज-रोज की अमर्यादित और अभद्र भाषा का इस्तेमाल भी खत्म हो जाएगा। एक राष्ट्र-एक चुनाव के विरोधियों के लिए 2 पंक्तियां अर्ज करता हूं-
बार-बार चुनाव हकीकत में जम्हूरियत की तौहीन है। एक राष्ट्र एक चुनाव में ही सबका यकीं है।-प्रो. दरबारी लाल पूर्व डिप्टी स्पीकर, पंजाब विधानसभा
 

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