Edited By ,Updated: 20 Apr, 2025 04:28 AM
तेलंगाना ने अनुसूचित जातियों के वर्गीकरण को लेकर एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए न केवल राज्य की सामाजिक संरचना को झकझोर दिया है, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति की दिशा भी बदलने का संकेत दे दिया है। यह कदम 1990 में वी.पी. सिंह की मंडल राजनीति के बाद आरक्षण नीति...
तेलंगाना ने अनुसूचित जातियों के वर्गीकरण को लेकर एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए न केवल राज्य की सामाजिक संरचना को झकझोर दिया है, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति की दिशा भी बदलने का संकेत दे दिया है। यह कदम 1990 में वी.पी. सिंह की मंडल राजनीति के बाद आरक्षण नीति में सबसे बड़ा हस्तक्षेप माना जा रहा है, जिसने उस समय 27 प्रतिशत ओ.बी.सी. आरक्षण लागू कर सत्ता समीकरणों को नए सिरे से परिभाषित किया था। अब तेलंगाना की यह पहल ‘मंडल 2.0' के रूप में जातीय राजनीति के एक नए युग की शुरूआत करती है।
तेलंगाना, जहां फिलहाल कांग्रेस की सरकार है, देश का पहला ऐसा राज्य बन गया है जिसने अनुसूचित जातियों को 4 उपवर्गों ए.बी.सी.और डी.में बांट दिया है। यह वर्गीकरण दशकों पुरानी उस मांग की पूर्ति है, जिसमें कहा जा रहा था कि आरक्षण का लाभ कुछ प्रमुख एस.सी. समुदायों, विशेषकर माला को अनुपातहीन ढंग से मिल रहा है, जबकि मदिगा जैसे समुदाय हाशिए पर पड़े हुए हैं। यह निर्णय मदिगा आरक्षण पोराटा समिति की वर्षों पुरानी लड़ाई की जीत है, जिसने एस.सी.वर्गों के भीतर सामाजिक न्याय की मांग उठाई थी। इस निर्णय से तेलंगाना सामाजिक न्याय की प्रयोगशाला बन गया है, जहां पारंपरिक आरक्षण नीति से आगे जाकर समुदायों के भीतर के अंतर को मान्यता दी जा रही है।
संवैधानिक और कानूनी आयाम : हालांकि, यह फैसला सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट की व्याख्याओं से टकरा सकता है। 2005 में ई.वी. चिनैया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने एस.सी. वर्गों के राज्य स्तरीय वर्गीकरण को असंवैधानिक ठहराया था। अदालत का मानना था कि संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत एस.सी. की सूची केवल राष्ट्रपति की अधिसूचना और संसद की मंजूरी से बदली जा सकती है। इसके बावजूद तेलंगाना सरकार ने इस संवैधानिक जटिलता को दरकिनार कर निर्णय लिया है। हाल ही में कोर्ट ने स्थगन हटाया जरूर है, लेकिन मामला न्यायिक परीक्षण के अधीन रह सकता है। सामाजिक ताना-बाना और राजनीति में प्रभाव: तेलंगाना का यह कदम एस.सी. समुदायों के बीच पहले से मौजूद तनाव को और गहरा कर सकता है। माला और मदिगा समुदायों के बीच आरक्षण लाभ के असंतुलन को लेकर दशकों से विवाद रहा है। अब जबकि आरक्षण में पुनर्वितरण हो रहा है, तो यह सामाजिक विघटन, आंदोलन और यहां तक कि हिंसा की आशंका को जन्म दे सकता है।
दूसरे राज्यों जैसे आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पंजाब में जहां एस.सी. समुदाय सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से विषम हैं, वहां भी अब ऐसी मांगें उठने की संभावना है। इससे आरक्षण नीति अधिक राज्य-विशिष्ट, संवेदनशील और राजनीतिक रूप से चुनौतीपूर्ण बन जाएगी।
भाजपा की रणनीतिक उलझन : यह निर्णय भाजपा के लिए एक दोधारी तलवार की तरह है। यदि वह इसका समर्थन करती है तो यू.पी. और पंजाब जैसे राज्यों में माला-जाटव-चमार जैसे प्रमुख एस.सी. समुदाय नाराज हो सकते हैं। यदि वह चुप रहती है तो मदिगा जैसे वंचित समुदायों की नाराजगी का शिकार बन सकती है, खासकर दक्षिण भारत में। भाजपा की रणनीति संभवत: निम्नलिखित बिंदुओं पर आधारित होगी-
1.चुनिंदा समर्थन : दक्षिणी राज्यों में जहां मदिगा जैसे समुदाय प्रभावशाली हैं, वहां भाजपा इस वर्गीकरण का समर्थन कर सकती है।
2.संवैधानिक सतर्कता : केंद्र सरकार सीधे अनुच्छेद 341 में संशोधन की पहल करने से बचेगी और सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निर्णय का इंतजार करेगी।
3.राजनीतिक वर्णनात्मक नियंत्रण : भाजपा अन्य दलों को सामाजिक विभाजन के लिए दोषी ठहराते हुए स्वयं को समग्र एस.सी. समुदायों का संरक्षक साबित करने की कोशिश करेगी।
4.मौन रणनीति: बिना सार्वजनिक समर्थन के, भाजपा बूथ स्तर पर वंचित एस.सी. समुदायों के बीच कल्याण योजनाओं के माध्यम से समर्थन बढ़ाएगी।
विपक्ष की रणनीतिक संभावनाएं : कांग्रेस और ‘इंडिया’ गठबंधन के लिए यह एक सुनहरा अवसर है। कांग्रेस इस कदम को सामाजिक न्याय की पुनर्परिभाषा के रूप में प्रस्तुत कर सकती है और दक्षिण भारत में एस.सी. समुदायों, विशेष रूप से मदिगा, के बीच अपनी खोई राजनीतिक जमीन वापस पा सकती है। डी.एम.के., सपा, आर.जे.डी. और जे.डी.यू जैसे क्षेत्रीय दल, जो जातीय आंदोलनों से निकले हैं, इस मॉडल को अपनाकर अपने को वंचित वर्गों के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में पुन: स्थापित कर सकते हैं।
दलित राजनीति का नया विमर्श: यह पहल दलित राजनीति की पारंपरिक समझ को चुनौती देती है। पहले दलित आंदोलन सामूहिक एकता और ऊंची जातियों के खिलाफ संघर्ष के इर्द-गिर्द घूमता था। अब विमर्श बदल रहा है और दलितों के भीतर भी सामाजिक न्याय की मांग उठ रही है।
यह दलित राजनीति को 2 हिस्सों में विभाजित कर सकता है एक ओर वे जो आरक्षण का ऐतिहासिक लाभ पा चुके हैं, और दूसरी ओर वे जो आज भी सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हैं। यह नई पहचान की राजनीति है जो वोट बैंक की पारंपरिक सोच को उलट सकती है।
निष्कर्ष: तेलंगाना का यह निर्णय भारतीय राजनीति के लिए एक टर्निंग प्वाइंट है। इससे केवल राज्य की नीति ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय दलों की रणनीति, संविधान की व्याख्या, और सामाजिक न्याय की धारणा तक प्रभावित हो सकती है। यह स्पष्ट है कि आरक्षण की राजनीति अब प्रतीकों से आगे बढ़कर ठोस वर्गीय न्याय की ओर अग्रसर है। भाजपा और विपक्ष दोनों के लिए यह एक चुनौतीपूर्ण मोड़ है। यह समय राजनीतिक साहस और संवैधानिक दूरदृष्टि दिखाने का है ताकि आरक्षण केवल संख्या नहीं, बल्कि न्याय का पर्याय बन सके।-के.एस. तोमर