साका सरहिंद : साहिबजादों की ‘शहादत’ तो बिल्कुल लासानी है

Edited By ,Updated: 26 Dec, 2019 02:42 AM

saka sirhind the  martyrdom  of sahibzadas is absolutely lasani

सिख धर्म की शहादतों जैसी मिसाल दुनिया में कहीं और नहीं मिलती व इन शहादतों में से दशम पिता साहिब श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के साहिबजादों की शहादत तो बिल्कुल लासानी है जो सिख धर्म को नया और अनूठा धर्म बनाती है। बाबा जोरावर सिंह  और बाबा फतेह सिंह जी की...

सिख धर्म की शहादतों जैसी मिसाल दुनिया में कहीं और नहीं मिलती व इन शहादतों में से दशम पिता साहिब श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के साहिबजादों की शहादत तो बिल्कुल लासानी है जो सिख धर्म को नया और अनूठा धर्म बनाती है। बाबा जोरावर सिंह  और बाबा फतेह सिंह जी की शहादत मानव इतिहास की सबसे ज्यादा दर्दनाक घटना है। मुगल शासकों की दरिंदगी और सिखी सिद्धक के शिखर का साका है साका सरहिंद। 

शहीदी का दृश्य जब ख्यालों में आता है तो रूह कांप जाती है साहिबजादा बाबा जोरावर सिंह जी (9 वर्ष) और साहिबजादा बाबा फतेह सिंह जी (7 वर्ष) की शहीदी का दृश्य जब ख्यालों में  आता है तो रूह कांप जाती है। 7 वर्ष व 9 वर्ष की छोटी-सी उम्र में पहाड़ जैसे जिगर, पौष माह की कड़कड़ाती ठंड, ठंडे बुर्ज पर अपनी दादी माता गुजरी जी के साथ बर्फ की सतह पर बैठ कर दादी मां को हौसला देते हुए कहा कि हम गुरु तेग बहादुर साहिब के पोते हैं, जालिमों का जुल्म हमें अपने धर्म से नहीं हिला सकता। 

सरहिंद के सूबेदार वजीर खान का डराबा व मौत का भय भी कलगीधर पातशाह के बेटों को नहीं डरा सकें, जब भी सूबा सरहिंद इस्लाम कबूल करने के लिए कहता तो दशमेश के लाडले बोले सो निहाल के जयघोष लगाते हुए मानने से इंकार कर देते। इस दृश्य को मैं जब भी अपने ख्यालों में लाता हूं तो हृदय कांप जाता है, पर साथ ही इस बात पर गर्व महसूस होता है कि हम उस कलगीधर के सिख हैं जिनके छोटे-छोटे पुत्र भी जालिमों के जुल्म की जड़ें हिलाने की ताकत रखते थे। हमें प्रेरणा मिलती है अपने इन महान शहीदों की शहादत से।

औरंगजेब के जुल्म के विरुद्ध नौवीं पातशाही ने 1675 ई. में धर्म की रक्षा के लिए शहादत दे दी तो उनके बाद गुरु गोबिंद सिंह जी ने मुगलों के साथ जुल्म से टक्कर लेने के लिए सिख कौम के अंदर कमाल का जज्बा भरा व 1699 के बैसाखी वाले दिन खालसा पंथ की स्थापना करके सिखों को संत सिपाही बना दिया। दसवीं पातशाही द्वारा तैयार की गई खालसा फौज किसी पर हमला करने के लिए तैयार नहीं की गई थी बल्कि निर्दोष, मासूम व बेसहारों का सहारा बनने के लिए खालसा पंथ की स्थापना की गई थी। गुरु गोबिंद सिंह जी की फौज के कारण आम लोग अपने आपको सुरक्षित समझने लगे थे। आनंदपुर साहिब में लोगों की शिकायतें सुनने के लिए गुरु साहिब दरबार लगाते थे और उस समय जो शिकायतें आती थीं वह मुगलों से ज्यादा पहाड़ी राजपूतों के विरुद्ध आती थीं। 

मुगलों ने गुरु साहिब के सामने गाय और कुरान की झूठी कसमें खाईं 
ये राजा आम लोगों पर बहुत जुल्म कर रहे थे। पहाड़ी राजा खालसा फौज की महानता देख कर ईष्र्या करने लगे, जिस कारण वे मुगलों के साथ मिल गए और आनंदपुर साहिब का घेराव कर दिया। इस समय पहाड़ी राजाओं और मुगलों ने गुरु साहिब के सामने गाय और कुरान की झूठी कसमें खाईं कि आप आनंदपुर साहिब छोड़ दो, हमारा आपसे कोई झगड़ा नहीं। कई दिन भूखे-प्यासे रहने के बाद सिखों ने भी गुरु जी को प्रार्थना की कि आनंदपुर साहिब का किला छोड़ दिया जाए तो गुरु गोङ्क्षबद सिंह जी ने सिखों की प्रार्थना स्वीकार करते हुए आनंदपुर साहिब का किला छोड़ दिया लेकिन राजपूत राजाओं और मुगलों ने विश्वासघात करते हुए पीछे से हमला कर दिया। इस दौरान रोपड़ के नजदीक सरसा नदी के पास पहुंच कर गुरु साहिब का परिवार बिछड़ गया। गुरु घर का रसोइया गंगू माता गुजरी जी और छोटे साहिबजादों को अपने घर खेड़ी ले गया। इसी दौरान ही सूबा सरङ्क्षहद ने यह ऐलान कर दिया कि जो भी व्यक्ति गुरु गोबिंद सिंह जी या उनके परिवार के किसी सदस्य को पकड़वाएगा उसे बड़ा ईनाम दिया जाएगा। जब गंगू को इस बारे में पता लगा तो उसने सोचा कि एक तो ईनाम की रकम मिलेगी और दूसरा माता गुजरी जी के पास जो सोना-चांदी व माया है वह भी मेरी हो जाएगी। नमकहराम गंगू ने लालच में आकर माता गुजरी जी और छोटे साहिबजादों को गिरफ्तार करवा दिया। 

एक ठंडे बुर्ज पर कैद कर लिया गया
दिसम्बर 1704 को माता जी और साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह और फतेह सिंह को सरहिंद के नजदीक एक ठंडे बुर्ज पर कैद कर लिया गया। पौष माह का महीना था। कंपकंपाती ठंड में उन्हें बगैर किसी गर्म कपड़े के ठंडे बुर्ज पर रखा गया। माता गुजरी जी व साहिबजादों पर मुकद्दमा चलाते हुए काजी को बुलाया गया और पूछा गया कि इन बच्चों को क्या सजा दी जाए-काजी ने कहा कि कुरान के मुताबिक छोटे बच्चों को सजा नहीं दी जा सकती, इसलिए इन्हें छोड़ दिया जाए। सूबा सरहिंद बच्चों को छोडऩे का हुक्म देने वाला ही था तभी सुच्चा नंद ने कहा कि बच्चो अगर तुम्हें छोड़ दिया जाए तो बाहर जाकर क्या करोगे? साथ ही यह भी झूठ बोला कि तुम्हारे पिता गुरु गोबिंद सिंह जी भी मारे गए हैं। साहिबजादों ने एक आवाज में कहा कि हम बाहर जाकर अपने पिता जी की तरह फौज तैयार कर जुल्म के खिलाफ डट कर लडेंग़े। यह सुनते ही सुच्चा नंद ने सूबेदार को कहा कि इन बच्चों को जीवित छोडऩे की गलती न की जाए। ये आम बच्चे नहीं, ये गुरु गोबिंद सिंह के बच्चे हैं, बड़े होकर आपके लिए ही बड़ी मुश्किलें खड़ी करेंगे। वजीद खान ने सुच्चा नंद की बात सुन कर मालेरकोटला के नवाब शेर खान को बुलाया और कहा कि अगर तूने गुरु गोबिंद सिंह से अपने भाई और भतीजे की मौत का बदला लेना है तो इन बच्चों को मार कर ले सकता है लेकिन नवाब शेर खान ने कहा कि मुझे इन मासूम बच्चों से बदला नहीं लेना। अगर कभी गुरु गोबिंद सिंह से टक्कर हुई तो मैदान में लड़ूंगा। 

नवाब शेर खान के जवाब के बाद सूबा सरहिंद ने बाबा जोरावर सिंह जी और बाबा फतेह सिंह जी को जिंदा दीवार में चिनने का हुक्म जारी कर दिया। इस समय मालेरकोटला के नवाब शेर खान ने हैरानी प्रकट करते हुए कहा कि आप इन मासूम बच्चों को न मारें-यह इस्लाम धर्म के उसूलों के खिलाफ है, इसलिए इन्हें छोड़ दो पर सूबेदार के सलाहकार सुच्चा नंद ने फिर जोर दे कर कहा कि आप इन्हें छोडऩे की गलती न करो क्योंकि ये बच्चे शेर के हैं और शेर व सांप के बच्चे बड़ों की तरह ही खतरनाक होते हैं। सुच्चा नंद से सहमति प्रकट करते हुए वजीर खान ने साहिबजादों को दीवारों में चिनवा दिया। इसी दौरान माता गुजरी जी भी ज्योति ज्योत समा गईं। इस साके से पहले बड़े साहिबजादों ने भी इसी दिसम्बर के महीने में ही चमकौर साहिब में मुगलों की फौज को लोहे के चने चबवाते हुए शहादत प्राप्त की। धन्य हैं श्री गुरु गोबिंद सिंह जी और धन्य है उनकी हिम्मत व हौसला जिन्होंने सारा परिवार ही कौम के नाम पर कुर्बान कर दिया। 

उन्होंने यह जंग भारत के लोगों को जुल्म से बचाने के लिए और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए लड़ी। इसलिए भारत के लोग कभी भी उनके अहसान का मूल्य नहीं चुका सकते क्योंकि अगर दशम पातशाह न होते तो भारत का क्या हाल होता। इस बारे में बाबा बुल्ले शाह ने कहा है ‘‘न कहूं जब की, न कहूं तब की, बात करूं अब की। अगर न होते गुरु गोबिंद सिंह, सुन्नत होती सबकी।’’-मनजिंदर सिंह सिरसा

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