धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता : मोदी का अगला हमला?

Edited By ,Updated: 21 Aug, 2024 05:13 AM

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अपने तीसरे कार्यकाल के पहले स्वतंत्रता दिवस संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ‘‘15 अगस्त, 1947 को 40 करोड़ भारतीयों का नियति से मिलन हुआ था। आज 140 करोड़ भारतीयों को वर्ष 2047 तक विकसित भारत की दिशा में कार्य करना चाहिए।’’

अपने तीसरे कार्यकाल के पहले स्वतंत्रता दिवस संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ‘‘15 अगस्त, 1947 को 40 करोड़ भारतीयों का नियति से मिलन हुआ था। आज 140 करोड़ भारतीयों को वर्ष 2047 तक विकसित भारत की दिशा में कार्य करना चाहिए।’’ यह बताता है कि मोदी सरकार पुन: अपने कार्य में व्यस्त हो गई है। यह भाजपानीत राजग सरकार का तीसरा कार्यकाल है और इस कार्यकाल में भी वे अपने मन की करेंगे, इस आम धारणा के विपरीत कि भाजपा को अकेले अपने दम पर लोकसभा में बहुमत प्राप्त नहीं हुआ तो वह अपने अंतिम मुख्य मुद्दे एक समान नागरिक संहिता को पृष्ठभूमि में छोड़ देगी। 

एक समान नागरिक संहिता भाजपा का एकमात्र मुख्य मुद्दा बचा हुआ है, जिसे अभी लागू नहीं किया गया है। किंतु प्रधानमंत्री मोदी ने लाल किले की प्राचीर से स्पष्ट शब्दों में इस तथ्य को रेखांकित किया कि एक समान नागरिक संहिता समय की मांग है क्योंकि वर्तमान नागरिक संहिता लोगों को धार्मिक आधार पर विभाजित कर रही है और भेदभावपूर्ण है। किंतु इसमें तीन मुख्य अंतर हैं। पहला, कि इस बात को जानते हुए कि विपक्ष इस विधेयक का विरोध करेगा और उनके कुछ सहयोगियों को भी इस पर आपत्ति हो सकती है, उन्होंने एक समान नागरिक संहिता को धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता का नाम दिया। इस बयान से धर्मनिरपेक्षता के प्रति अधिक समावेशी बदलाव देखने को मिला और इस प्रकार उन्होंने उन दलों पर भी निशाना साधा, जो स्वयं को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं। उन्होंने अंबेडकर का स्मरण कराया, जिन्होंने वैकल्पिक एक समान नागरिक संहिता की वकालत की थी और कहा था कि आरंभिक वर्षों में संसद यह प्रावधान बना सकती है कि एक समान नागरिक संहिता पूर्णत: स्वैच्छिक होगी। 

दूसरा, मोदी ने एक समान नागरिक संहिता या धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता को भाजपा की राजनीतिक विचारधारा, प्रतिबद्धता नहीं कहा, किंतु संविधान में उल्लिखित एक लक्ष्य के रूप में कहा और इस बात को अनेक बार उच्चतम न्यायालय ने भी रेखांकित किया। तीसरा, उन्होंने इस मुद्दे पर व्यापक सार्वजनिक बहस का भी आह्वान किया और उनका मानना है कि इससे भाजपा के एक वायदे के बारे में संविधान और न्यायालय का बल भी मिलेगा और इस पर सार्वजनिक बहस का आमंत्रण करना महत्वपूर्ण है। भाजपा अब तक धर्मनिरपेक्ष अथवा सैकुलर शब्द का उपयोग केवल एक लेबल के रूप में विपक्ष पर आरोप लगाने के लिए करती रही है। 

स्वाभाविक है विपक्ष ने इसकी आलोचना यह कहकर की कि यह मोदी के भारत की विविधता के प्रति असम्मान को दर्शाता है। विपक्षी दलों ने कहा कि लोकतंत्र का लक्ष्य सुशासन होना चाहिए न कि एकरूपता और मोदी दूसरी दिशा में जा रहे हैं। उन्हें इस बात को समझना होगा कि एक समान नागरिक स्वतंत्रता धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार और धार्मिक समूहों के व्यक्तिगत कानूनों में हस्तक्षेप करेगी और यह तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक कि धार्मिक समूह इस बदलाव के लिए तैयार न हों। इसके अलावा यह अपनी पसंद के धर्म को मानने की संवैधानिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है। 

संविधान ने विभिन्न समुदायों को अपने व्यक्तिगत कानूनों को अनुमति दी है। यह अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक मुद्दा है और भारत में रह रहे मुसलमानों के लिए हिन्दुत्व ब्रिगेड की नीति है। यह देश को विभाजित करेगा और इसकी विविधतापूर्ण संस्कृति को नुकसान पहुंचाएगा। मोदी ने स्पष्ट किया कि उत्तराखंड की एक समान नागरिक संहिता से राजनीतिक वातावरण का पता चलेगा कि किस तरह लोग इसे स्वीकार करते हैं और यह केन्द्र सरकार के लिए एक अनुकरणीय मॉडल बन सकता है। फिर जिसे पूरे भारत में लागू किया जाएगा। 

उत्तराखंड ने व्यक्तिगत कानूनों जैसे विवाह पंजीकरण, बाल अभिरक्षा, तलाक, दत्तक ग्रहण, संपत्ति अधिकार, अंतर राज्य संपत्ति अधिकार आदि के बारे में एकरूपता स्थापित की है और इस संबंध में धार्मिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं रखा है। बहु विवाह, बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाया गया है और लिव इन संबंधों का पंजीकरण अनिवार्य किया गया है। इसमें विवाह, उत्तराधिकार, परिवार, भूमि आदि के संबंध में धार्मिक संबंधों और व्यक्तिगत कानूनों को धर्म से अलग रखा गया है। हालांकि आदिवासी और जनजातीय लोगों को इसके अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा गया है। 

एक समान नागरिक संहिता की आवश्यकता भेदभाव को प्रथा, परंपराओं के कारण उतपन्न हुई और इससे सामाजिक सुधार, विषमताओं और असमानताओं को दूर करने तथा मूल अधिकारों का सम्मान करने के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। इसके अलावा यह कमजोर वर्गों व धार्मिक अल्पसंख्यकों को सुरक्षा उपलब्ध कराता है और एकता के माध्यम से राष्ट्रवाद की भावना को बढ़ावा देता है। अनेक लोग एक समान नागरिक संहिता का यह कहकर समर्थन करते हैं कि यह व्यापक कानून है जो व्यक्तिगत मामलों को शासित करता है और इसमें धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा तथा विभिन्न सांस्कृतिक समूहों में सौहार्द होगा और असमानता दूर होगी तथा महिलाओं के अधिकारों का संरक्षण होगा। 

प्रश्न यह उठता है कि एक समान नागरिक संहिता में ऐसा क्या है कि भगवाधारियों के अलावा अन्य सभी राजनीतिक दल इसका विरोध करते हैं। इसे धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को बढ़ावा देने के रूप में क्यों माना जाना चाहिए या इसे हिन्दू विरोधी क्यों माना जाना चाहिए। यदि हिन्दू पर्सनल लॉ का आधुनिकीकरण किया जा सकता है और परंपरागत ईसाई प्रथाओं को असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है, तो फिर मुस्लिम पर्सनल लॉ को धर्मनिरपेक्षता की खातिर पवित्र क्यों माना जाता है? स्पष्ट है कि एक समान नागरिक संहिता में प्रावधान किया गया है कि एक सभ्य समाज में धार्मिक और पर्सनल कानून के बीच कोई संबंध नहीं है। 

इसके अलावा निरंतर बदलती भू सुरक्षा स्थिति में देश की एकता और अखंडता को सुदृढ़ किया जाना चाहिए और इसके लिए विभिन्न समुदायों के लिए विभिन्न कानूनों को रद्द और भारतीय समाज में सुधार लाया जाना चाहिए। वर्तमान में हिन्दू और मुसलमान दोनों अपने धर्म के मूल से दूर चले गए हैं और उन्हें धर्मान्धों और कट्टरवादियों द्वारा गुमराह किया जा रहा है और प्रत्येक आलोचना पर उनका कहना होता है कि धर्म खतरे में है। देश में अनेक धार्मिक प्रथाएं और परंपराएं हैं और उन्हें पर्सनल लॉ कानूनों के द्वारा शासित किया जाता है तथा जब  हम एक समाज के रूप में इन सबको त्यागने के लिए तैयार होते हैं तो फिर एक समान नागरिक संहिता लागू की जा सकती है। 

नि:संदेह एक समान नागरिक संहिता का मुद्दा संवेदनशील है और इसे लागू करना कठिन है, किंतु यह कदम उठाया जाना चाहिए। परंपराओं और प्रथा के नाम पर भेदभाव को उचित नहीं ठहराया जाएगा। लोगों में इस बारे में आम सहमति बनाई जाए, उनकी गलतफहमियों को दूर किया जाए और फिर एक समान नागरिक संहिता बनाई जाए। एक समान नागरिक संहिता कानूनों के प्रति अलग-अलग निष्ठाओं को दूर कर राष्ट्रीय एकीकरकण को भी बढ़ावा देगा और अंतत: किसी भी समुदाय को किसी भी प्रगतिशील कानून पर वीटो करने की अनुमति नहीं दी जाएगी और विशेषकर तब जब यह स्वैच्छिक हो और इसमें किसी मत या जीवन शैली को स्वेच्छाचारी बना कर किसी पर थोपने का प्रयास न किया जाए। 

समय आ गया है कि अलग अलग समुदायों के लिए अलग-अलग कानूनों को अस्वीकार किया जाए और भारत में सुधार लाया जाए क्योंकि अतीत के बूते पर प्रगति नहीं की जा सकती। धर्म के आधार पर भारत का विभाजन हुआ और 21वीं सदी में फिर इसकी पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए। हम कब तक पंडित, मुल्ला और बिशपों के आधार पर जीते रहेंगे और कब तक यह धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता का खेल चलता रहेगा।-पूनम आई. कौशिश
 

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