सिलाई, बुनाई, कढ़ाई बनाम तनाव

Edited By ,Updated: 30 Sep, 2024 05:35 AM

sewing knitting embroidery versus tension

यह 2011 की बात है। महीना अप्रैल का था। मैं स्विट्जरलैंड के नगर जिनेवा और फ्रांस की सीमा पर बने एक अस्पताल में बैठी हुई थी। रिसैप्शन पर और भी कई महिलाएं और पुरुष बैठे थे। दो गोरी महिलाओं के हाथ तेजी से चल रहे थे। उनमें से एक स्वैटर बुन रही थी और...

यह 2011 की बात है। महीना अप्रैल का था। मैं स्विट्जरलैंड के नगर जिनेवा और फ्रांस की सीमा पर बने एक अस्पताल में बैठी हुई थी। रिसैप्शन पर और भी कई महिलाएं और पुरुष बैठे थे। दो गोरी महिलाओं के हाथ तेजी से चल रहे थे। उनमें से एक स्वैटर बुन रही थी और दूसरी मफलर। लेकिन दोनों की ऊन का रंग एक ही था, सिलेटी। उन्हें देखकर चकित हुए बिना नहीं रहा जा सका क्योंकि हमारे यहां शायद ही कोई महिला स्वैटर या अन्य चीजें बुनती दिखती थीं, जबकि इस सदी के शुरू होने से पहले तक सर्दी आने से पहले ही दुकानें रंग-बिरंगी ऊन की लच्छियों से सज जाती थीं। अंदर ऊन के गोलों के डिब्बे सजे रहते थे। ऊन भी तरह-तरह की होती थी। लेकिन अब ऊन दिखाई नहीं देती क्योंकि ऊनी कपड़े भारी मात्रा में बाजार में मिलते हैं। वे सस्ते भी होते हैं। फिर कौन स्वैटर बुनकर समय बर्बाद करे। वर्ना तो कई महिलाएं ऐसी होती थीं कि अगर किसी ने स्वैटर पहना है और उन्हें वह डिजाइन पसंद आ गया तो वे देखकर घर आकर वैसे ही डिजाइन के नमूने बनाकर रख लेती थीं और बाद में स्वैटर, टोपी, जैकेट, मोजे, मफलर, शाल आदि बनाने में उनका इस्तेमाल करती थीं। 

यही हाल सिलाई का है। सिलाई मशीन ने कपड़े सीने में क्रांति कर दी। घर-घर में सिलाई मशीन होती थी। हर शहर में सिलाई केंद्र होते थे, जहां लड़कियां और महिलाएं सिलाई सीखने जाती थीं। शादी के वक्त लड़की के परिवार वाले सिलाई मशीन जरूर देते थे। इसी सिलाई मशीन के चलते न जाने कितनी असहाय महिलाओं ने अपनी गृहस्थी चलाई, परिवार को पाला-पोसा। पुरानी फिल्मों में भी ऐसे दृश्य बहुतायत से मिलते थे। किसी भी त्यौहार, उत्सव, शादी-ब्याह से पहले घर की महिलाएं, जिनमें माता, चाची, ताई, बहन, भाभी सभी अपनी-अपनी पसंद के कपड़े सिलती थीं। लेकिन अब घरों में कपड़े शायद ही सिले जाते हैं। यहां तक कि फटे कपड़ों को यदि कोई ठीक कराना चाहता है, तो वह किसी दर्जी की ही मदद लेता है। हालांकि इन दिनों दर्जी भी बहुत कम दिखाई देते हैं। क्योंकि सिले-सिलाए कपड़ों से बाजार भरा पड़ा है। वे जेब पर भी भारी नहीं पड़ते। इसी तरह कढ़ाई को ले लीजिए। घर में हाथ से कढ़े तकिए, चादरें, मेजपोश, कुर्सी की गद्दियां, रूमाल, साडिय़ां खूब दिखाई देती थीं। लड़के वाले जब लड़की देखने आते थे, तो उन्हें बताया जाता था कि फलां जो चादर बिछी है, उसे हमारी इसी लड़की ने काढ़ा है। कढ़ाई के टांके इतनी प्रकार के होते थे कि अब उनमें से बहुत से याद भी नहीं हैं, क्योंकि कढ़ाई करना बीते जमाने की बात हो गई। 

ये सब महिलाओं की विद्या और कलात्मकता थी, जो एक-एक करके बाजार के हवाले हो गई। इसका बड़ा कारण यह भी रहा कि पहले तो महिलाएं काफी समय घर में रहती थीं। वे अपने समय का सदुपयोग कढ़ाई, बुनाई, सिलाई आदि करके करती थीं। लेकिन अब वे पढ़-लिखकर नौकरी करती हैं। उनके पास इतना समय नहीं बचा। इसके अलावा इन सब कलाओं को घरेलू कहकर और पिछड़ेपन के खाते में डालकर इनका मजाक भी उड़ाया जाने लगा। वह समय भी याद किया जा सकता है, जब अनेक पत्रिकाओं के सिलाई, बुनाई, कढ़ाई विशेषांक आदि निकला करते थे। अब शायद ही कोई पत्रिका ऐसा करती है। पिछले दिनों एक शोध के बारे में पढ़ रही थी, तो ऐसी अनेक बातें याद आने लगीं। इस शोध में कहा गया है कि सिलाई, बुनाई, कढ़ाई आदि सिर्फ समय काटने के ही साधन नहीं, बल्कि इससे कलात्मकता बढ़ती है और इन्हें करने वालों का मानसिक स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। शोध करने वालों ने कहा कि इन कलाओं को अपनी दैनिक गतिविधियों में जरूर शामिल किया जाना चाहिए। इससे न केवल तनाव दूर होगा, बल्कि मन शांत भी रहेगा। इस शोध में सात हजार से अधिक लोगों को शामिल किया गया। इनमें से जो भी ऐसी गतिविधियों में शामिल हुए, वे अन्य से अधिक शांत थे। उन्हें तनाव भी नहीं होता था। 

शोध में यह पाया गया कि इन कलाओं में भाग लेने से तनाव संबंधी हार्मोन कम होते हैं। यह भी कहा गया कि व्यस्त जीवनशैली, जिसमें हमारी नौकरी भी शामिल है, उसके कारण तनाव बढ़ता है, इसलिए दैनिक जीवन में सिलाई, कढ़ाई, बुनाई आदि जरूरी है। ऐसा करने से भावनाओं को व्यक्त किया जा सकता है। जीवन की बहुत सी समस्याओं को हल करना आसान होता है। आत्मविश्वास बढ़ता है। मुझको लगा कि क्यों पुराने जमाने की स्त्रियां तमाम विपत्तियों का सामना करते हुए भी इन आफतों से मुक्त रहती थीं, शायद उसका कारण यही कलाएं रही हों। इंगलैंड में हुए इस शोध पर पता नहीं हमारे कुछ विमर्शकारों की नजर पड़ी कि नहीं। क्योंकि सिलाई, बुनाई करने वाली औरतों को ऐसे विमर्शों ने अनपढ़ और परिवारवादी कहकर खारिज कर दिया। अब कोई इन्हें दोबारा शुरू भी करना चाहे तो कैसे करे। एक बार जो कला चलन से बाहर हो जाती है, वह आसानी से नहीं लौटती। हालांकि इस तरह की ङ्क्षचताएं आजकल अक्सर व्यक्त की जाती हैं कि महिलाओं में तनाव बहुत बढ़ रहा है। तनाव जनित रोग भी बढ़ रहे हैं।-क्षमा शर्मा
    

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