श्री राम समरस समाज के ‘पालक’ हैं

Edited By ,Updated: 09 Aug, 2020 03:56 AM

shri ram is the  guardian  of samaras society

युद्ध में विजयी होने के पश्चात श्री राम का कौन-सा रूप सामने आया है? व्यक्ति का असली परिचय उसकी घोर पराजय या विजय में होता है। न तो राम ने बाली वध के बाद किष्किन्धा पर कब्जा किया और न ही लंका पर। किष्किन्धा में सुग्रीव को राम राजा घोषित करते हैं।...

युद्ध में विजयी होने के पश्चात श्री राम का कौन-सा रूप सामने आया है? व्यक्ति का असली परिचय उसकी घोर पराजय या विजय में होता है। न तो राम ने बाली वध के बाद किष्किन्धा पर कब्जा किया और न ही लंका पर। किष्किन्धा में सुग्रीव को राम राजा घोषित करते हैं। रावण वध के पश्चात वे लक्ष्मण को आज्ञा देते हैं कि वह लंका जाएं और विधिवत रूप से विभीषण का राज्याभिषेक करें। श्रीराम द्वारा किया गया युद्ध लालच और राज्यलिप्सा से प्रेरित नहीं, अपितु धर्म की रक्षा हेतु है। इसलिए वह किष्किन्धा या लंका को अपना औपनिवेश नहीं बनाते। 

मर्यादा और मानवता अक्सर युद्ध की विभीषिका में कुचली जाती है। इस संबंध में वर्ष 1899 और 1907 के हेग कन्वैंशन में विभिन्न देशों ने युद्ध-नियमावली और युद्ध-अपराध के संदर्भ में बहुपक्षीय संधि हस्ताक्षर किया था। अर्थात शेष विश्व ने युद्ध के समय मानवीय मूल्यों और मर्यादा की रक्षा लगभग 150 वर्ष पहले की थी। किंतु सनातन भारत में यह जीवनमूल्य श्री राम के जीवनकाल से भी पहले चले आ रहे हैं। 

यह बात अलग है कि हेग कन्वैंशन के बाद भी प्रथम-द्वितीय विश्व युद्ध, हिटलर द्वारा यहूदियों के उत्पीडऩ, स्टालिन-लेनिन द्वारा वैचारिक विरोधियों (कैदियों) के दमन और चीन-जापान के बीच हुए युद्धों आदि में मानवता और मर्यादा की सीमा लांघी गई। मनुष्य का मनुष्य के प्रति वहशीपन पूरी वीभत्सता के साथ सामने आया। भारत ने भी इसका दंश झेला है। इस्लामी आक्रांताओं ने पिछले 800 वर्षों में जब-जब यहां के हिंदू शासकों पर विजय प्राप्त की, तब उन्होंने न केवल पराजितों का नरसंहार किया, साथ ही पराजित महिलाओं की अस्मिता रौंद दी, उनका बलात्कार किया, स्थानीय हिंदुओं को इस्लाम अपनाने या मौत चुनने के लिए बाध्य किया और उनके पूजा-स्थलों व मानबिंदुओं को ध्वस्त कर दिया गया। 

इसके विपरीत, श्री राम का आचरण कैसा है? जब राम लंका पर विजय प्राप्त करते हैं, तब वह विभीषण से रावण के शव का विधिवत संस्कार करने के लिए कहते हैं। भगवान वाल्मिकी जी के अनुसार, विभीषण अपने भाई के किए पर लज्जित है। वह अपने मृत भाई के साथ कोई भी संबंध नहीं रखना चाहता। वह रावण के अंतिम संस्कार करने में संकोच करता है। तब श्री राम कहते हैं, ‘मरणान्तानि वैराणि निर्वृत्तं न: प्रयोजनम्। क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव।।’ 

अर्थात हे विभीषण! बैर जीवन काल तक ही रहता है। मरने के बाद उस बैर का अंत हो जाता है। अब हमारा प्रयोजन सिद्ध हो चुका है, अत: अब तुम इसका संस्कार करो। इस समय यह जैसे तुम्हारे स्नेह का पात्र है, उसी तरह मेरा भी स्नेह भाजन है। यही नहीं, युद्ध के पश्चात पराजित रावण के परिवार और उसके सैनिकों की महिलाओं के साथ किसी भी प्रकार का दुव्र्यवहार नहीं हुआ। श्री राम, विभीषण से उन सभी महिलाओं को सांत्वना देने और अपने निवास स्थान लौटने का अनुरोध करते हैं। 

यह सही है कालांतर में युद्ध नियमों के पालन में ह्रास होता चला गया। महाभारत का दौर इसका ज्वलंत उदाहरण है, जहां लाक्षागृह, द्यूत-क्रीड़ा, द्रौपदी चीरहरण, कौरव-पांडव द्वारा युद्ध के दौरान छल-कपट (अभिमन्यु, द्रोणाचार्य और दुर्योधन की हत्या) से श्री राम द्वारा स्थापित जीवन मूल्यों का क्षीण होना प्रारंभ हुआ। शायद वर्तमान समाज में जीवन-मूल्यों में गिरावट का यह बड़ा कारण है। 

भारत में श्री राम के जीवन दर्शन और परंपराओं का वास्तविक जीवन में अनुकरण करने का प्रयास भी हुआ है। वीर छत्रपति शिवाजी और अदम्य साहसी महाराणा प्रताप इसके उदाहरण हैं। जब-जब इन वीर पुरुषों ने मुगलों को युद्धों में पराजित किया, तब-तब विजितों (महिलाओं सहित) का मर्यादापूर्ण सम्मान किया। श्री राम का पराजितों से व्यवहार केवल रामायण के पन्नों तक सीमित नहीं है। लगभग 500 वर्ष पहले जहां अयोध्या स्थित राम मंदिर को जिहादी मानसिकता द्वारा ध्वस्त किया गया था, अब उसी विषाक्त दर्शन के मानस पुत्र श्री राम की छवि, उनके जीवन दर्शन और चरित्र को धूमिल करने का कुप्रयास कर रहे हैं।  इसके लिए वे श्री मद् गोस्वामी तुलसीदास जी कृत रामायण की चौपाई :

‘ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। 
सकल ताड़ना के अधिकारी।।’ की कपटपूर्ण विवेचना करते हैं। 

रामकथा को तुलसीदास जी ने अपने शब्दों में पिरोया है। इसमें विभिन्न पात्रों द्वारा बोले गए संवाद भी हैं। दुराचारी रावण अक्सर श्री राम, सीता और हनुमान के लिए अपशब्दों का प्रयोग करता है। क्या इन्हें गोस्वामी जी के शब्द कहना तार्किक होगा? परंतु माक्र्स-मैकॉले और जिहादी मानस पुत्रों ने उपरोक्त चौपाई की अपने एजैंडे अनुरूप व्याख्या की है। यह शब्द न ही राम के हैं और न रामायण के ऐसे चरित्र के, जिसे हिंदू पूजनीय मानते हों। राम लंका जाने के लिए समुद्र से मार्ग मांग रहे हैं। परंतु वह हठी है। 

राम की प्रार्थना को अनसुना कर देता है, तब राम को क्रोध आता है और वे कहते हैं, ‘बिनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति॥’ अर्थात 3 दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री राम जी क्रोध सहित बोले- ‘‘बिना भय के प्रीति नहीं होती।’’ इसके उत्तर में, जो डरा हुआ सागर कहता है, ‘प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥ ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताडऩा के अधिकारी॥’ अर्थात प्रभु ने अच्छा किया, जो मुझे शिक्षा (दंड) दी, किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं। 

श्री राम के स्नेह की कोई सीमा नहीं। सीता की रक्षा में अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले गिद्धराज जटायु को श्री राम उसके कर्मों से देखते हैं और पिता का दर्जा देकर उनका अंतिम-संस्कार करते है।  स्त्री के प्रति श्री राम का आचरण आदर्श है। उन्होंने बाली और रावण से युद्ध केवल स्त्री के सम्मान और शालीनता की रक्षा हेतु लड़ा। बाणों से घायल बाली जब राम से पूछता है- मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कवन नाथ मोहि मारा॥ तब राम उत्तर देते हैं-अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥ इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई॥ अर्थात छोटे भाई की पत्नी, बहन, पुत्रवधू और बेटी-ये चारों एक समान हैं। इन्हें जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने से कोई पाप नहीं होता॥ 

राम का जीवन-चरित्र जन्म, जाति और भौतिकता से ऊपर है। पुलस्त्य कुल में उत्पन्न महाज्ञानी ब्राह्मण- रावण का राम वध करते हैं, क्योंकि वह अपने आचरण से भ्रष्ट है। शबरी, हनुमान और गिद्धराज जटायु  उनके स्नेह के पात्र हैं। श्रीराम कर्म और भाव को महत्व देते हैं। आचरण धर्म से मर्यादित है। इन्हीं जीवन-मूल्यों के आधार पर वह रामराज्य की स्थापना करते हैं, और वह कल्पना आज के समय में गांधी जी का सपना बन जाता है। राम समसृष्टि हैं और समरस समाज के पालक हैं।-बलबीर पुंज 
 

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