सीताराम येचुरी : देश ने एक महान सपूत खो दिया

Edited By ,Updated: 14 Sep, 2024 04:42 AM

sitaram yechury the country has lost a great son

वर्ष 1986 में मैंने पहली बार सीताराम येचुरी के बारे में सुना। मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जे.एन.यू.)में शामिल हुआ ही था और एक सहपाठी ने मुझे बताया कि हमें उनका भाषण सुनने जाना चाहिए। उन दिनों जे.एन.यू. में रात के खाने के बाद, रात 9 बजे के...

वर्ष 1986 में मैंने पहली बार सीताराम येचुरी के बारे में सुना। मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जे.एन.यू.)में शामिल हुआ ही था और एक सहपाठी ने मुझे बताया कि हमें उनका भाषण सुनने जाना चाहिए। उन दिनों जे.एन.यू. में रात के खाने के बाद, रात 9 बजे के आसपास छात्रावास के मैस में वार्ता आयोजित करने की परंपरा थी। सीताराम येचुरी एक ऐसे वक्ता थे जिन्हें मैं उनकी विचारधारा से असहमत होने के बावजूद हमेशा सुनने के लिए उत्सुक रहता था। उस दिन, जब मैंने उन्हें बोलते हुए सुना, तो मैं उनकी विद्वता, ज्ञान की गहराई और भाषा पर उनकी पकड़ से बस दंग रह गया। मुझे इस बात का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि विश्वविद्यालय छोडऩे के बाद, एक रिपोर्टर के तौर पर मैं वाम मोर्चे और इस तरह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी)  (सी.पी.आई. (एम) को कवर करूंगा, जिसके  येचुरी एक प्रमुख नेता और पोलित ब्यूरो के सदस्य थे।

जब साम्यवाद कमजोर पड़ रहा था : जे.एन.यू. में मेरे रहने के दौरान, चीन और क्यूबा जैसे देशों को छोड़कर, दुनिया भर में साम्यवादी आंदोलन लगभग कमजोर पड़ चुका था। सीताराम खुद जे.एन.यू. के पूर्व छात्र थे और मुझसे एक दशक से भी ज्यादा सीनियर थे। जब वे छात्र नेता थे, तब दुनिया 2 महाशक्तियों के बीच बंटी हुई थी। यह शीत युद्ध का दौर था। लेकिन 1984 में जब उन्हें सी.पी.आई. (एम) की केंद्रीय समिति में शामिल किया गया, तब तक साम्यवाद गहरे संकट में आ चुका था और मिखाइल गोर्बाचेव से बेहतर इसे कोई नहीं समझ सकता था।

तिनानमिन नरसंहार : उस समय, देंग शियाओपिंग चीन में मामलों की कमान संभाल रहे थे। उन्होंने 1989 में चीनी छात्रों के विद्रोह का डटकर सामना किया, तिनानमिन चौक पर उन पर टैंक चलाने में भी संकोच नहीं किया। यह जून का महीना था और मुझे अभी भी अच्छी तरह याद है कि जब छात्रों के खूनी दमन की खबर जे.एन.यू. पहुंची, तो वामपंथी छात्रों की आंखों में आंसू आ गए थे। पार्टी के अनुशासित सिपाही होने के नाते,  येचुरी, जिनकी पार्टी सी.पी.आई. (एम) ने सी.पी.आई. से अलग होने के बाद चीन की लाइन अपना ली थी, जे.एन.यू. में तिनानमिन में चीनी दमन का समर्थन करने और उसे उचित ठहराने आए थे, जिसमें सैंकड़ों लोग मारे गए थे। इससे पहले कि छात्र उन्हें एक शब्द भी बोलने से रोक देते वे केवल 10 शब्द ही बोल पाए ‘तिनानमिन स्क्वायर पर खून की एक बूंद भी नहीं बहाई गई’। जे.एन.यू. में सी.पी.आई. (एम) की छात्र शाखा स्टूडैंट्स फैडरेशन ऑफ इंडिया का वर्चस्व होने के बावजूद येचुरी को जल्दी वापस नहीं लौटने के लिए कैंपस छोडऩा पड़ा।

जब येचुरी की छवि के बारे में मेरी धारणा बदल गई : 1995 में, जब मैं आज तक में शामिल हुआ, जो उस समय दूरदर्शन पर केवल 20 मिनट का समाचार शो था, मुझे वामपंथी दलों को कवर करने के लिए कहा गया। अब येचुरी और अन्य वामपंथी नेताओं से मिलना और उनसे बातचीत करना मेरा पेशेवर कत्र्तव्य था। लेकिन जिस क्षण मैं  येचुरी से मिला, उनके बारे में मेरी धारणा बदल गई। वह सबसे प्यारे आदमी थे जिनके साथ कोई शांतिपूर्ण बहस कर सकता था, भले ही आप उनसे ङ्क्षहसक रूप से असहमत हों। वह एक ऐसे व्यक्ति थे जो वास्तव में लोकतांत्रिक थे, हालांकि वे पार्टी के लोकतांत्रिक केंद्रीयवाद के अनुशासन से बंधे थे। उनमें कोई अहंकार नहीं था और मेरे विचार जानने के बावजूद उन्होंने कभी मेरे लिए दरवाजा बंद नहीं किया। सीताराम मेरे पूरे पत्रकारिता करियर में सबसे प्रतिभाशाली अकादमिक रूप से उन्मुख नेताओं में से एक थे। अपने जे.एन.यू. मित्र और सहयोगी प्रकाश कारत के विपरीत, वह एक व्यावहारिक राजनीतिज्ञ थे।

नरसिम्हा राव चुनाव हार गए और संयुक्त मोर्चे की अगुवाई वाले तीसरे मोर्चे ने ज्योति बसु को प्रधानमंत्री चुना, सी.पी.आई. (एम) ने मांग मानने से इंकार कर दिया। पार्टी के पोलित ब्यूरो ने सहमति जताई थी, लेकिन केंद्रीय समिति ने इस विकल्प को खारिज कर दिया। यह एक अजीब स्थिति थी। पार्टी के 2 सबसे बड़े नेता-ज्योति बसु और तत्कालीन पार्टी महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत की राय थी कि बसु को प्रधानमंत्री बनना चाहिए, लेकिन आखिरकार, केंद्रीय समिति में कारत के नेतृत्व में बहुमत ने जीत हासिल की। सीताराम येचुरी भी बसु के प्रधानमंत्री बनने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने कभी अपनी राय खुलकर नहीं जताई, लेकिन निजी तौर पर हमसे सांझा की। येचुरी 2015 में पार्टी के महासचिव बने, लेकिन तब तक देश की राजनीति पहचान से परे बदल चुकी थी; धर्मनिरपेक्षता, जो आजादी के बाद से भारत का परिभाषित सिद्धांत है, दम तोड़ रही थी।

येचुरी के लिए भारत का विचार सर्वोपरि था : सीताराम येचुरी के रूप में देश ने एक महान सपूत को खो दिया है, जो अपनी आखिरी सांस तक भारत की एकता में विश्वास करते थे, जिसके लिए वे कोई भी बलिदान देने को तैयार थे। वे दिल से कम्युनिस्ट थे, लेकिन उनका साम्यवाद अतीत की बात नहीं थी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनकी पार्टी ने उनकी बात नहीं सुनी और जब तक उन्हें कमान सौंपी गई, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।अलविदा, कॉमरेड-आशुतोष

Related Story

    Trending Topics

    Afghanistan

    134/10

    20.0

    India

    181/8

    20.0

    India win by 47 runs

    RR 6.70
    img title
    img title

    Be on the top of everything happening around the world.

    Try Premium Service.

    Subscribe Now!