समाज और कानून एक-दूसरे के पूरक लेकिन...

Edited By ,Updated: 13 Jul, 2024 05:24 AM

society and law complement each other but

हमारे देश में लगभग साढ़े 1200 कानून हैं और हर बार संसद में नए कानून बनते रहते हैं। इसी प्रकार राज्यों में भी होता है। इन कानूनों, नियमों, प्रतिबंधों और व्यवस्थाओं से उम्मीद की जाती है कि नागरिकों का जीवन आसान होगा और वे कभी भी जरूरत पडऩे पर इनके...

हमारे देश में लगभग साढ़े 1200 कानून हैं और हर बार संसद में नए कानून बनते रहते हैं। इसी प्रकार राज्यों में भी होता है। इन कानूनों, नियमों, प्रतिबंधों और व्यवस्थाओं से उम्मीद की जाती है कि नागरिकों का जीवन आसान होगा और वे कभी भी जरूरत पडऩे पर इनके अंतर्गत न्याय की गुहार लगा सकते हैं। 

समाज और कानून : भारत अनेक संगतियों यानी अच्छी बातों और उनके सामने अनेक विसंगतियों यानी खराब और विरोधी विचारों, परंपराओं तथा मान्यताओं से भरा देश है। यह धर्म, जाति, भाषा, पहनावा, रहन-सहन की बात नहीं है, वह तो विविधता लिए हुए ही हैं, एकता की तलाश करने की भावना से जुड़े हैं। कोई भी अपनी संस्कृति या धरोहर त्यागना तो दूर, तनिक बदलना भी नहीं चाहता। इन पर आंच आती दिखाई देती है तो रक्षा के लिए प्रदर्शन, हिंसा और अनेक असामाजिक गतिविधियां होती हैं। पुलिस, प्रशासन भी यथासंभव कानून के अनुसार कार्रवाई करता दिखाई देता है। 

प्रश्न यह है कि जब सब कुछ कानून में तय है तो क्यों उनमें कोई खामी यानी लूपहोल खोजने लगता है ताकि जो वह चाहता है, कर सके और कानून के उल्लंघन का ठीकरा भी उसके माथे पर न फोड़ा जा सके और लगे कि सब कुछ नियम और कानून के अनुसार हुआ है? यहीं से शुरू होता है रिश्वत यानी सुविधा शुल्क का खेल जो भ्रष्ट तरीके अपनाए बिना पूरा नहीं होता। इसका अर्थ यह हुआ कि कानून इस बात की गारंटी नहीं हैं कि उनके मुताबिक चलकर आप अपनी मंजिल पा सकते हैं। 

यह ऐसी स्थिति है जिसमें इस बात की दावत दी जाती है कि आपको काम कराना है और हमें करना है तो हमारी मेज की दराज खुली है, उसमें भेंट दीजिए और बाकी हम पर छोड़ दीजिए। यदि कोई इतनी-सी बात न समझे तो फिर वह नियमानुसार काम कराने के लिए दर-दर की ठोकरें खाए, अपना समय गंवाए और कुछ न हो तो अपने भाग्य को दोष देकर घर बैठ जाए!हमारे देश में लगभग हर बात के लिए नियम और कानून हैं, जैसे कि सड़क पर चलना, गाड़ी चलाना, किसी भी साधन से यात्रा, खरीदना, बेचना, उपभोक्ता संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण, वन और वन्य जीव तथा पर्यावरण रक्षण, खेतीबाड़ी, व्यापार, व्यवसाय, नौकरी, मानवाधिकार, प्राकृतिक या मानवीय आपदा, मतलब यह कि एक लंबी सूची है जो इसका भ्रम पैदा करती है कि यदि कुछ गलत होता है तो कानून, पुलिस, प्रशासन तथा अंत में सरकार तो है न जो हमें सुरक्षा देने के लिए मौजूद है। 

न्याय और अन्याय की परिभाषा : विडंबना यह है कि समय, काल, परिस्थिति और व्यक्ति की हैसियत के अनुसार ही न्याय और अन्याय की परिभाषा तय होती है। इसके अतिरिक्त यह तय करने में ही दिन, महीने और वर्ष निकल जाते हैं कि जिस तथाकथित अपराध के लिए कोई कार्रवाई की गई है, उसका स्रोत क्या है? हालांकि हरेक बात के लिए समय सीमा निर्धारित है परंतु न तो कोई कानून है और न ही किसी दंडाधिकारी में इस बात की उत्सुकता दिखाई देती है कि निर्धारित समय नामक प्रावधान का पालन हो। 

यह बेबुनियाद तर्क दिया जाता है कि चाहे कितने भी अपराधी बच जाएं पर एक भी निर्दोष को सजा न हो। यहीं से पक्षपात की शुरूआत होती है, जोड़-तोड़ की प्रक्रिया चलने लगती है, बच निकलने के प्रयास होते हैं और कानून के हाथ चाहे जितने भी लंबे बताए जाएं, उसके अंधे होने का कवच अपराधी को सुरक्षा प्रदान कर देता है।कानून और व्यवस्था की इसी कमजोरी के कारण आज संसद हो या विधान सभाएं, उनमें सजायाफ्ता, बाहुबली, घोषित उपद्रवी, हत्यारे, बलात्कारी और यहां तक कि आतंकवादी पहुंच जाते हैं। यही वे लोग हैं जिनकी किसी भी कानून को बनाने में सब से बड़ी भूमिका होती है। प्रतिदिन इस प्रकार के समाचार मिलते हैं कि दुर्घटना, जानबूझकर और संगठित बेईमानी, हेराफेरी, घोटाले के वास्तविक अभियुक्त पकड़े नहीं जाते, निडर होकर घूमते दिखाई देते हैं, ऐसी बातें उजागर होती हैं कि दांतों तले उंगली दबानी पड़ जाए और उन तक कानून पहुंच न सके तो फिर यह किसका दोष है? 

कानून का सम्मान नहीं निरादर होता है : आज भारी-भरकम और तड़क-भड़क से लैस बहुत से कानून होने के बावजूद हमारी हर्बल संपदा की चोरी और तस्करी विशाल पैमाने पर हो रही है। वन विनाश अपने चरम पर है। प्राकृतिक संसाधनों के शोषण और उनके प्रति गैर-जिम्मेदाराना रवैया रखने के कारण, अनेक कानूनों के होते हुए भी कुदरत का कहर बरस रहा है। यह सब इसलिए संभव हो पा रहा है क्योंकि हमने कानून तो बहुत बना दिए, लेकिन उनका आदर और सम्मान नहीं होता। इसके विपरीत उनका इस्तेमाल समाज के उस वर्ग को अपमानित और प्रताडि़त करने के लिए किया जाता है जो नियमानुसार चलना चाहता है। 

निष्कर्ष यह है कि कानून बनाए हैं तो उनका ईमानदारी से पालन करने की व्यवस्था पहले करनी चाहिए। हमारे यहां सजा से खौफ खाने का वातावरण बनाया जाता है न कि स्वयं ही कानून का पालन करने का। कानून तोडऩे वाला नायक और जो ऐसा न करे वह खलनायक माना जाता है। सजा या जुर्माना कोई अहमियत नहीं रखता बल्कि यह सोच है कि कानून का पालन अपने आप ही होना चाहिए। यह तब हो सकता है जब कानून इस तरह के हों कि भेदभाव किया ही न जा सके। क्या हमारे कानून इस कसौटी पर खरे उतरते हैं, जरा सोचिए?-पूरन चंद सरीन
 

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