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कुछ लोगों ने अपनी पुरातनपंथी मानसिकता बरकरार रखी है

Edited By ,Updated: 16 Sep, 2024 06:34 AM

some people have retained their conservative mindset

मरीज के मन में किसी बेहतर अस्पताल में जाकर किसी वैकल्पिक विशेषज्ञ डाक्टर से इलाज कराने का ख्याल तभी आता है जब उसका चल रहा इलाज कारगर साबित नहीं हो रहा हो। जब दी जाने वाली दवाएं रोग को ठीक करने की बजाय उसे और अधिक कष्टकारी बना देती हैं, तो लाख...

मरीज के मन में किसी बेहतर अस्पताल में जाकर किसी वैकल्पिक विशेषज्ञ डाक्टर से इलाज कराने का ख्याल तभी आता है जब उसका चल रहा इलाज कारगर साबित नहीं हो रहा हो। जब दी जाने वाली दवाएं रोग को ठीक करने की बजाय उसे और अधिक कष्टकारी बना देती हैं, तो लाख आश्वासन देने के बावजूद भी मरीज कभी-कभी मजबूरी में आत्मदाह की ओर अग्रसर हो जाते हैं। ऐसी स्थिति आज के समाज में भी बन गई है। इन परिस्थितियों में, निराशा की दुनिया में डूबे भारत के लोगों का एक हिस्सा दक्षिणपंथी राजनीति का शिकार बन गया है। महंगाई, बेरोजगारी, कंगाली, भुखमरी, इलाज और शिक्षा संबंधी सहूलियतों की अनदेखी, पेट भरने लायक रोटी और पीने वाले पानी का जानलेवा होना, अमीरी-गरीबी का बढ़ता फर्क इत्यादि  चीजें  लाइलाज बीमारियां बनती जा रही हैं। 

न केवल नए स्वतंत्र हुए विकासशील देश, बल्कि अमरीका, जर्मनी, फ्रांस, इंगलैंड आदि सहित यूरोप के विकसित देश भी इन लक्षणों से मुक्त नहीं हैं। इन बीमारियों के घातक प्रभाव के कारण इन तथाकथित विकसित देशों के मजदूर-किसान, छात्र, कर्मचारी और अन्य मेहनतकश वर्ग हड़तालों-प्रदर्शनों के माध्यम से इतनी गंभीरता से अपनी नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं, जिसके बारे में तीन दशक पहले यहां के शासकों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा। पूंजीवादी मानसिकता की क्रूरता को समझने के लिए भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘‘पूंजीवादी विकास के परिणामस्वरूप जनसंख्या के कुछ भाग का विलुप्त होना आवश्यक है, जिसे रोका नहीं जा सकता।’’ यह कथन हमेशा याद रखने लायक है। इस व्यवस्था के कारण भारतीय लोगों की स्थिति न केवल आर्थिक रूप से खतरनाक होती जा रही है, बल्कि इससे होने वाली बीमारियों के परिणामस्वरूप खतरनाक सामाजिक समस्याएं भी उत्पन्न हो रही हैं। समाज में अविश्वास, कटुता, अनिश्चितता एवं असहिष्णुता का माहौल है। 

उधार ली गई बहुत छोटी रकम (यहां तक कि 100 रुपए तक) या जमीन के छोटे टुकड़े के लिए भी हत्याएं शुरू हो गई हैं। परिवारों में झगड़े खतरनाक स्तर तक बढ़ गए हैं। छोटे-मोटे विवादों को लेकर दो गुटों के बीच हिंसक झड़प देखना दिल दहला देने वाला वाक्या है। गैंगस्टरों की असामाजिक गतिविधियां, चोरी, डकैती आदि की घटनाएं सरकारों के नियंत्रण से बाहर हो गई हैं।  3 साल की फूल जैसी मासूम बच्चियां बलात्कार और हत्या की शिकार होती नजर आ रही हैं।यही कारण है कि ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वालों को उम्रकैद की सजा या फांसी की सजा होने के बावजूद इन अमानवीय अपराधों का सिलसिला थमने की बजाय और तेजी से बढ़ता जा रहा है। 

1917 में जब आर्थिक रूप से पिछड़े देश रूस के मजदूरों ने एक सफल क्रांति के माध्यम से सत्ता पर कब्जा कर लिया और समानता वाले समाज के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया, तो सभी लातीनी देशों के शासकों के मन में भय की एक रेखा खिंच गई। क्योंकि इससे पहले उन्होंने कभी भी ऐसी राजनीतिक आर्थिक राज्य व्यवस्था की कल्पना नहीं की थी जहां अमीर और गरीब के बीच की खाई को पाटकर समानता स्थापित की जाए। इन शासकों को बड़ा भय यह सता रहा था कि यह व्यवस्था रूस से अन्य देशों में स्थापित हो जाएगी। दुनिया के पूंजीपतियों ने सोवियत संघ में स्थापित इस समाजवादी व्यवस्था को शुरूआती दौर में ही इसके फलने-फूलने की बजाय इसे नष्ट करने की जिम्मेदारी ले ली थी। इस प्रकार, साम्राज्यवादियों ने सोवियत संघ पर आर्थिक नाकेबंदी लगा दी और अपने आंतरिक शत्रुओं की विध्वंसक कार्रवाइयों से देश के सुचारू आर्थिक विकास को बाधित कर दिया। चूंकि सोवियत संघ के श्रमिकों ने इस संरचना को अपने बल पर बनाया था और वे इसे ही अपनी वास्तविक संरचना मानते थे, इसलिए देश की आम जनता ने पूरे धैर्य और बहादुरी के साथ आंतरिक और बाहरी दुश्मनों का सामना किया। 

सोवियत संघ की मेहनतकश जनता इस संरचना की रक्षा करते हुए तेजी से विकास करती रही। अपनी कमियों के बावजूद, सोवियत संघ ने समाजवादी तर्ज पर आश्चर्यजनक विकास के माध्यम से और एक प्रमुख सैन्य शक्ति बनकर दुनिया भर में राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों को अपना पूर्ण समर्थन दिया। इसके साथ ही उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान हुई आर्थिक क्षति की भी सफलतापूर्वक भरपाई की। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक बड़ी सैन्य शक्ति के रूप में उभरे मानवता के सबसे खतरनाक दुश्मन फासीवादी हिटलर और उसके सहयोगियों की सोवियत संघ को करारी शिकस्त देने में निर्णायक भूमिका थी। जब अमरीका ने बंगलादेश के स्वतंत्रता संग्राम को सैन्य बल से परास्त करने के लिए हिंद महासागर में अपना युद्धपोत भेजने की घोषणा की, तो उस समय यदि सोवियत संघ ने पूरी ताकत से बंगलादेश का समर्थन नहीं किया होता, तो इस राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम की हार निश्चित थी। इस बात को सोवियत संघ और समाजवाद के कट्टर दुश्मन भी मानते हैं। अगर ऐसा रहता तो आज इसराईल द्वारा फिलिस्तीनियों का जो नरसंहार किया जा रहा है, वह नहीं होता। और रूस-यूक्रेन युद्ध में नाटो देशों द्वारा विनाशकारी युद्ध हथियारों की बिक्री से की जा रही अंतहीन कमाई का आख्यान शायद नहीं रचा गया होता। 

हम वहीं वापस आते हैं जहां से हमने शुरू किया था। भारत सहित दुनिया भर के कामकाजी लोगों को जिन आर्थिक कठिनाइयों और अन्य कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, वे सीधे तौर पर पूंजीवादी व्यवस्था की देन हैं। इस व्यवस्था के संचालकों के पास इन कष्टों का कोई इलाज नहीं है और वे इसका दावा भी नहीं करते। बल्कि वे अपनी मनमौजी संरचना के जरिए पूंजीवादी विकास के परिणामस्वरूप आबादी के निचले हिस्से के चौतरफा विनाश को एक प्राकृतिक-सामाजिक घटना बता रहे हैं। भला, जिन लोगों ने अनगिनत पूंजी जमा करने के लिए यह खाई पैदा की है, वे अमीरी-गरीबी की खाई कैसे मिटा सकते हैं? इसका समाधान ऐसी सामाजिक-आर्थिक संरचना से ही हो सकता है, जहां सब कुछ ‘स्वयं’ की बजाय ‘सबके लिए’ हो। कुछ लोग, जिन्होंने अपनी पुरानी पिछड़ी मानसिकता बरकरार रखी है या जो नई व्यवस्था के समतावादी सिद्धांतों से परेशान हैं, वे अनिवार्य रूप से कुछ समय के लिए अपनी असामाजिक गतिविधियां जारी रखेंगे। लेकिन उस समय जनशक्ति, प्रशासनिक मशीनरी और आम लोगों की मदद से ऐसे तत्वों पर आसानी से काबू पाया जा सकेगा। नई व्यवस्था के विकसित होने से इन अपराधों में धीरे-धीरे कमी आएगी।-मंगत राम पासला

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