पक्ष-विपक्ष के हाव-भाव बदले

Edited By ,Updated: 29 Jun, 2024 05:01 AM

the attitude of the pros and cons changed

आमतौर पर सत्ता पक्ष और कई बार विपक्ष के लिए भी चुनावी जनादेश लट्टू या झाड़ू की तरह का होता है लेकिन सामान्य रूप से मतदाता बहुत बारीक निर्णय देता है। लोकतंत्र असल में बारीकी का ही खेल है और साम्यवाद की तरह लट्ठमार समानता, तानाशाही या बादशाहत की जगह...

आमतौर पर सत्ता पक्ष और कई बार विपक्ष के लिए भी चुनावी जनादेश लट्टू या झाड़ू की तरह का होता है लेकिन सामान्य रूप से मतदाता बहुत बारीक निर्णय देता है। लोकतंत्र असल में बारीकी का ही खेल है और साम्यवाद की तरह लट्ठमार समानता, तानाशाही या बादशाहत की जगह यह दुनिया भर में सफल होता गया है तो उसकी यह बारीकी ही असली चीज है और इसे 365 दिन और 24 घंटे राजनीति करने वाले राजनेता न समझ सके तो यह स्थिति चिंता की है। 

18वीं लोकसभा के लिए हुए हाल के चुनाव से आए जनादेश के मामले में ऐसा ही लगता है। चुनाव नतीजे आने और भाजपा को उसके दावे या उम्मीद से काफी नीचे तथा विपक्ष को कई राज्यों में उम्मीद से ज्यादा मिली सफलता के तत्काल बाद तो पक्ष और विपक्ष, दोनों के हाव-भाव से यह लग रहा था कि दोनों ने मतदाताओं के संदेश को ठीक से ग्रहण किया है। प्रधानमंत्री और भाजपा को अचानक एन.डी.ए. प्रिय हो गया, वे कई बार नजर चुराते भी लगे तो उनके  दरबार के सबसे ताकतवर बताए जाने वाले अमित शाह को ‘छुपाना’ शुरू कर दिया गया। मोदी जी अपने फोटो के फ्रेम में नीतीश और चंद्रबाबू ही नहीं प्रफुल्ल पटेल और ललन सिंह जैसों को भी आने दे रहे थे। विपक्ष तो न जीतकर भी जीतने से ज्यादा उछल रहा था। 

विपक्षी उत्साह बरकरार है लेकिन मोदी जी के रंग-ढंग पुराने लगने लगे हैं। मंत्रिमंडल के गठन से लेकर विभागों के बंटवारे या मोहन भागवत और इंद्रेश कुमार जैसों की बात का जवाब ही नहीं नीट घोटाले में मुंह न खोलने से भी यह रंग दिखने लगा था। लेकिन नई लोकसभा के पहले दिन उन्होंने जिस तरह विपक्ष पर हमला किया, उसके संविधान प्रेम को नाटक बताया और 50 साल पहले लगे आपातकाल के मुद्दे से कांग्रेस को घेरने का प्रयास किया वह साफ संकेत था कि वे जनादेश को बहुत साफ ढंग से अपने हक में मानते हैं, अपनी जीत को ऐतिहासिक और अपूर्व मानते है। अपने सांसदों की संख्या घटना, सहयोगी दलों पर निर्भरता और विपक्ष की बढ़ी ताकत से उनके मन पर कोई असर नहीं पड़ा है। वे अपने रंग से सरकार और राजनीति चलाने के मूड में हैं और हाल-फिलहाल वे नई स्थितियों अर्थात चुनाव से निकले जनादेश की कम से कम परवाह करने वाले हैं। 

विपक्ष की ताकत बढ़ी भले हो लेकिन अभी भी उसकी एकता ही नहीं कार्यक्रम और नजरिए का असमंजस प्रधानमंत्री को ताकत दे रहा है और जो व्यवहार उन्होंने नतीजे आने के 20 दिन में ही दिखाने शुरू किए हैं उससे लगता है कि उनकी तरफ से पिछला रवैया ही जारी रहेगा-अर्थात 24 घंटे चुनावी ङ्क्षचतन और तैयारी, हर काम का उद्देश्य चुनाव जीतना और इसमें विपक्ष को हड़पने और निगलने की जरूरत लगे तो उससे भी परहेज नहीं। 

मोदी की सत्ता और अमित शाह के प्रबंधन से कांग्रेस या सपा नहीं लड़ी, लोगों का गुस्सा चैनलाइज्ड होकर उनके पक्ष में गया। हल्का संगठित विरोध सिर्फ तमिलनाडु और बंगाल जैसे राज्यों में दिखा। यह प्रबंधन, साधन और सत्ता के सहारे चुनाव जीतने के भ्रम का टूटना भी था और यह कहने में हर्ज नहीं है कि अगर भाजपा की तरफ से एक-एक सीट के लिए इतनी चौकसी न रहती, इतना साधन न लगता और सत्ता का इतना खुला दुरुपयोग न होता तो उसे कम से कम 50 और सीटें कम मिलतीं। अकेले प्रधानमंत्री का रुख भले पुराने गियर में वापस आ गया हो लेकिन मुल्क, राजनीति और प्रतिपक्ष का रुख तो बदल चुका है। लोग महंगाई और बेरोजगारी पर जवाब चाहते हैं और आप मौजूदा नीतियों से बंधे हैं जिनसे इनका उपाय संभव नहीं है। 

आपने साफ-साफ सांप्रदायिक प्रचार करके भी नतीजा देख लिया और मुल्क जाति के विमर्श को आगे बढ़ा रहा है। आपको लगता है कि मंत्रिमंडल के गठन में कुछ पिछड़ों को लेने जैसी कर्मकांडी नियुक्तियों से बात बन जाएगी। आपको कांग्रेस मुक्त भारत के तहत विपक्ष की राज्य सरकारें गिरवाने का शौक रहा है(उनके अपने विरोधाभास भी रहे हैं) लेकिन अब आपको अपने और सहयोगी दलों की राज्य सरकारों से भी बेहतर ढंग से डील करना होगा। आप आंध्र, बिहार और ओडीश को पैकेज दें न दें लेकिन ज्यादा साधन देने होंगे। मुसलमानों और औरतों के प्रतिनिधित्व का सवाल भी आपको सुलझाना ही होगा क्योंकि संसद में जैसी विपक्षी महिला सांसद आ गई हैं या मुसलमानों ने जिस तरह नतीजों में असर डाला उनको आप आसानी से नजरअंदाज नहीं कर सकते। फिर महाराष्ट्र हो या हरियाणा, झारखंड हो या दिल्ली अभी जिन राज्यों के चुनाव आने वाले हैं वहां आपकी स्थिति इस चुनाव में दयनीय ही रही है। 

और इन सबके ऊपर आपको भाजपा और संघ परिवार को भी संभालने में ज्यादा परेशानी आनी है क्योंकि जनादेश सामने आते ही सिर्फ एन.डी.ए. के सहयोगी दल ही नहीं अपने अंदर से भी ऐसी आवाजें सामने आने लगी हैं जिन्हें आप जे.पी. नड्डा जैसों से बयान दिलवाकर नहीं निपटा सकते। अब तो विद्यार्थी परिषद खुलेआम धर्मेन्द्र प्रधान का इस्तीफा मांगने से लेकर देश भर में नीट कांड पर आंदोलन चला रहा है। मोहन भागवत और इंद्रेश कुमार ने सीधे-सीधे मोदी जी पर ही तीर बरसाए। यह सब इसी बात का संकेत करते हैं कि आप भले ही जनादेश को ठीक से न समझें या समझकर दर-किनार करें पर विपक्ष, सहयोगी दल, संघ जैसा समर्पित सहयोगी और भाजपा के सारे लोग भी जनादेश से ‘प्रभावित’ न हों और पुराना आचरण जारी रखें यह संभव नहीं है।-अरविन्द मोहन  
 

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