कोर्ट ने जन सेवकों से पूछा-आजीवन प्रतिबंध क्यों नहीं?

Edited By ,Updated: 05 Mar, 2025 05:52 AM

the court asked the public servants why not a lifetime ban

राजनीति का नैतिकता, जवाबदेही और स्वस्थ परंपराओं से कोई लेना-देना नहीं है। अपराध और दोषसिद्धि हमारे राजनीतिक मौसम का स्वाद है। जब अपराध और सोना बोलते हैं, तो जुबान चुप हो जाती है। जो अपने मालिक को उसके स्टॉक के उतार-चढ़ाव वाले मूल्य के आधार पर भरपूर...

राजनीति का नैतिकता, जवाबदेही और स्वस्थ परंपराओं से कोई लेना-देना नहीं है। अपराध और दोषसिद्धि हमारे राजनीतिक मौसम का स्वाद है। जब अपराध और सोना बोलते हैं, तो जुबान चुप हो जाती है। जो अपने मालिक को उसके स्टॉक के उतार-चढ़ाव वाले मूल्य के आधार पर भरपूर लाभांश देता है! अब ऐसा नहीं है। जब सर्वोच्च न्यायालय अपनी बात कहता है और दोषी राजनेताओं पर चुनाव लडऩे या संसद या राज्य विधानसभाओं में नामांकित होने पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग करने वाली जनहित याचिका पर अपना फैसला सुनाता है। न्यायालय ने कहा- ‘एक बार कानून तोडऩे का दोषी पाए जाने पर लोग संसद और विधानसभाओं में कैसे वापस आ सकते हैं? इसमें हितों का टकराव स्पष्ट है। राजनीति के गैर-अपराधीकरण के मुद्दे की जांच आधी-अधूरी कवायद नहीं होनी चाहिए।’

ओह! यह आशंका तब सही साबित हुई जब केंद्र ने न्यायालय के तर्क पर सवाल उठाया कि दंडात्मक कानून के तहत जेल की सजा या दंड एक निश्चित अवधि के लिए होता है, जिसके बाद दोषी अपने अधिकारों को वापस पा लेते हैं और समाज में फिर से शामिल होने के लिए प्रेरित होते हैं। छह साल की सजा गलत या अपराधी विधायकों के लिए पर्याप्त थी। किसी व्यक्ति को, जिसने किसी अपराध के लिए जेल में अपना समय बिताया है, चुनाव लडऩे या राजनीति में फिर से प्रवेश करने से आजीवन प्रतिबंधित करना अनुचित रूप से कठोर, असंगत और अत्यधिक होगा। इसके अलावा, आजीवन प्रतिबंध लगाने का मतलब है कि आर.पी.ए. की धारा 8 को फिर से लिखना, जिसमें ‘छह साल’ की जगह ‘आजीवन’ शब्द का लिखना होगा।

सरकार ने कहा, ‘अदालतें संसद को कानून बनाने या किसी खास तरीके से कानून बनाने का निर्देश नहीं दे सकतीं... यह न्यायिक समीक्षा की शक्तियों और दायरे से परे है। यह पूरी तरह से संसद का अधिकार क्षेत्र है।’ एसोसिएशन ऑफ डैमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (ए.डी.आर.) के अनुसार, 514 लोकसभा सांसदों में से 225 (44 प्रतिशत) के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 29 प्रतिशत पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं, नौ पर हत्या, 30 पर हत्या के प्रयास और बाकी पर महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले दर्ज हैं, जिनमें 3 पर बलात्कार के आरोप हैं। इनमें से 21 भाजपा सांसद हैं और 50 प्रतिशत उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से हैं। इसके अलावा 22 राज्यों के 2,556 विधायकों पर जघन्य अपराधों के आरोप हैं। कांग्रेस के एक विधायक पर गैर इरादतन हत्या, घर में जबरन घुसने, डकैती और आपराधिक धमकी सहित 204 मामले दर्ज हैं। न्यायालयों द्वारा त्वरित निपटान के निर्देश के बावजूद सांसदों-विधायकों के खिलाफ 5,000 से अधिक आपराधिक मामले लंबित हैं।

एक ‘स्वच्छ’ मुख्यमंत्री ने यह तर्क देकर मुझे मात दे दी, ‘कौन सी नैतिकता और अपराध की बात कर रहे हैं। राजनीति से नैतिकता का क्या लेना-देना? सिर्फ इसलिए कि किसी उम्मीदवार का आपराधिक इतिहास है, इसका मतलब यह नहीं है कि वह सामाजिक कार्य नहीं कर रहा। मेरे पास आपराधिक पृष्ठभूमि वाले 22 मंत्री हैं, मैं किसी मंत्री के अतीत की परवाह नहीं करता। मेरी सरकार में शामिल होने के बाद, वे अपराधों में लिप्त नहीं हैं और आपराधिक गतिविधियों को दबाने में मदद करने के लिए तैयार हैं। लोगों से पूछिए कि उन्होंने उन्हें क्यों चुना है।’ कोई उनके तर्क का खंडन कैसे कर सकता है? लोकतंत्र के तुम-मेरी-पीठ-खुजाओ-मैं-तुम्हारी बाजार मॉडल में यह मानना गलत है कि नेता विचारधारा से संचालित होते हैं। इसकी बजाय, पैसे के साथ-साथ अपराध का तमाशा बनाकर लोगों की कल्पना पर कब्जा करने की प्रवृत्ति है, जो प्रदूषित और भ्रष्ट राजनीतिक घोड़ी को घुमाती है। ऐसे माहौल में, जहां अपराध और भ्रष्टाचार भारत का खौफनाक ओसामा बिन लादेन है, जो सरकार के दैनिक कामकाज के हर हिस्से में व्याप्त है और देश को अपने जाल में फंसा रहा है, अपराध करने का प्रलोभन हमेशा बड़ा, वास्तव में अनूठा होता है। इस राजनीतिक अपराध वेश्यालय में कोई भी हमारे नेता को पार्टी के फंड के लिए या अपने खुद के घोंसले को भरने के लिए पैसा बनाने से नहीं रोक सकता। यही प्रचलित संस्कृति है।

धन-बाहुबल के कारण लोकतंत्र में लगातार गिरावट आ रही है, ऐसे में अदालतें भी असहाय हैं। 2022 में भी, एक दुखी अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि अपराध जारी है, भले ही उसने पाॢटयों को विधानसभा चुनावों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को मैदान में न उतारने का आदेश दिया हो। ‘हम विधायिका से उन उम्मीदवारों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कह रहे हैं, जिनके खिलाफ आरोप तय किए गए हैं, लेकिन कुछ नहीं किया गया। दुर्भाग्य से, हम कानून नहीं बना सकते।’ 

इससे भी बदतर यह है कि अपराधी राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर ईमानदार उम्मीदवारों को पीछे छोड़ रहे हैं। एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार 45.5 प्रतिशत ‘अपराधी’ उम्मीदवार जीतते हैं, जबकि 24.7 प्रतिशत स्वच्छ पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार। दुखद बात यह है कि माफिया नेताओं की संख्या विधानसभाओं में तेजी से बढ़ रही है। अपराधियों का समर्थन करने की बजाय हमारी राजनीति को संवेदनशीलता बढ़ाने के लिए प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए। याद रखें, राजनीति को आचरण, विश्वसनीयता, अखंडता, दृढ़ विश्वास और साहस की आवश्यकता है। 

संसदीय लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है, जब खेल के नियमों का ईमानदारी से पालन किया जाए। हमारे राजनेताओं को एक सच्चाई याद रखनी चाहिए- लोकतांत्रिक व्यवस्था में सार्वजनिक जवाबदेही अपरिहार्य है। सत्ता के साथ जिम्मेदारी भी आती है। हमारे नेता अपने अहंकार और धोखे की गहरी नींद से जागें और सच्चाई को समझें। क्या कोई देश शर्म और नैतिकता की भावना से वंचित रह सकता है... और कब तक?-पूनम आई. कौशिश    

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