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चुनावी हार से बड़ी है एक सपने की मौत

Edited By ,Updated: 12 Feb, 2025 05:43 AM

the death of a dream is bigger than electoral defeat

सवाल यह नहीं है कि आम आदमी पार्टी (आप) का क्या होगा या कि अब केजरीवाल कहां जाएंगे? सवाल है कि वैकल्पिक राजनीति की किसी भी कोशिश का क्या भविष्य है? यह सवाल उन लोगों को भी पूछना चाहिए, जिन्हें ‘आप’ से कभी मोह नहीं रहा था या जिनका मोहभंग हो चुका है।

सवाल यह नहीं है कि आम आदमी पार्टी (आप) का क्या होगा या कि अब केजरीवाल कहां जाएंगे? सवाल है कि वैकल्पिक राजनीति की किसी भी कोशिश का क्या भविष्य है? यह सवाल उन लोगों को भी पूछना चाहिए, जिन्हें ‘आप’ से कभी मोह नहीं रहा था या जिनका मोहभंग हो चुका है। जहां तक आम आदमी पार्टी के राजनीतिक भविष्य का संबंध है, उसमें अभी कुछ वक्त अनिश्चितता बनी रहेगी। वैसे तो तीन चुनावों में शानदार प्रदर्शन करने के बाद एक चुनाव में पिछड़ जाना और वह भी सिर्फ 4 प्रतिशत मतों से, यह कोई ऐसी हार नहीं है जिसके बाद किसी पार्टी के अस्तित्व पर सवाल उठाए जाएं। लेकिन यह सादा तर्क ‘आप’ पर लागू नहीं होता। एक आन्दोलन से शुरुआत करने वाली यह पार्टी पूरी तरह से चुनावी पार्टी बन गई और जल्द ही संगठन को छोड़ सरकार तक सीमित हो गई। इसलिए चुनावी हार का धक्का ज्यादा भारी पड़ सकता है। 

शुरू से ही पार्टी की दिल्ली पर निर्भरता बहुत ज्यादा रही है, पंजाब सरकार भी दिल्ली दरबार से चलाने के आरोप लगते रहे हैं। इसलिए दिल्ली की हार का असर पूरे देश पर पडऩा स्वाभाविक है। अरविंद केजरीवाल को पार्टी का चेहरा ही नहीं, पार्टी का पर्याय बनाने का खमियाजा यह है कि उनकी व्यक्तिगत चुनावी हार का वही असर हो, जो युद्ध में सेनापति के गिरने का होता है। दिल्ली के बाहर ‘आप’ के लिए बहुत रास्ते खुले नहीं हैं। पिछले चुनाव में गोवा, उत्तराखंड और गुजरात में अच्छे वोट मिले थे, लेकिन आगामी चुनाव में उसे दोहराना संभव नहीं लगता। हरियाणा में घुसने की कोशिश कामयाब नहीं हुई। अन्य किसी नई जगह गुंजाइश नहीं दिखती। ले देकर अब सारा दारोमदार पंजाब पर टिका है। वहां सत्ता बचाए रखना एक टेढ़ी खीर हो सकता है। अगर आने वाले दिनों में पंजाब के विधायकों में बगावत की चर्चा को खारिज भी कर दिया जाए तो भी 2027 में होने वाले विधानसभा चुनाव में ‘आप’ के सामने अनेक चुनौतियां हैं। खजाने में पैसे नहीं हैं, सरकार का इकबाल नहीं है, मुख्यमंत्री में समझ नहीं है, पार्टी को दिशाबोध नहीं है। पंजाब के मतदाता में बहुत धीरज नहीं है और अगर पंजाब की सरकार भी चली जाती है तो पार्टी के अस्तित्व का संकट हो सकता है। 

यह संकट इसलिए गंभीर हो सकता है, क्योंकि ‘आप’ ने उन नेताओं और कार्यकत्र्ताओं से किनारा कर लिया है, जिनकी नि:स्वार्थ मेहनत के दम पर पार्टी खड़ी हुई थी। धीरे-धीरे सब जगह या तो दूसरी पार्टियों से नेताओं को भर लिया गया है, या फिर वे कार्यकत्र्ता हैं, जिनकी नजर कुर्सी पर लगी है। ऐसे में अगर पुलिस प्रशासन या फिर सी.बी.आई. या ई.डी. को हथियार बनाकर ‘आप’ को तोडऩे की कोशिश होती है तो कितने ऐसे नेता इस मुश्किल वक्त में पार्टी के साथ खड़े होंगे? भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से पैदा हुई यह पार्टी राजनीति के स्थापित ढर्रे को बदलने के उद्देश्य से बनी थी, लेकिन पहले 3 साल के भीतर ही राजनीति को बदलने की बजाय इस पार्टी ने राजनीति के स्थापित कायदे के हिसाब से खुद को बदल लिया। दरअसल दिल्ली में 2015 के  चुनाव में मिली अप्रत्याशित सफलता इस पार्टी की बुनियादी विफलता से जुड़ी थी। जल्द से जल्द चुनावी सफलता के लिए पार्टी ने अपने बुनियादी मूल्यों और सिद्धांत को ताक पर रख दिया था। इससे सरकार तो बन गई, मगर पार्टी टूट गई। पार्टी के लोकपाल से लेकर पार्टी की सर्वोच्च समिति और जमीनी कार्यकत्र्ता तक वे सब लोग पार्टी से अलग कर दिए गए, जो कुछ आदर्श को लेकर पार्टी से जुड़े थे। पार्टी में हर स्तर पर अवसरवादी नेताओं को भर लिया गया। दिल्ली में घटी इस कहानी को अलग-अलग समय पर सभी राज्यों में दोहराया गया।

वैकल्पिक राजनीति का सपना तो उस वक्त ही मर गया था। लेकिन एक राजनीतिक विकल्प के रूप में ‘आप’ बनी रही और मजबूत भी हुई। भ्रष्टाचार विरोधी आदर्शवाद को छोड़कर अब पार्टी ने ‘गुड गवर्नैंस’ का नारा पकड़ा। दिल्ली सरकार की बड़ी तिजोरी के सहारे मुफ्त बिजली जैसी योजनाएं भी पेश कीं। सरकारी स्कूलों में सुधार और मोहल्ला क्लिनिक के सहारे ‘दिल्ली मॉडल’ की पेशकश की। हालांकि ‘शिक्षा क्रांति’ जैसे दावे अतिशयोक्तिपूर्ण थे, फिर भी इसमें कोई शक नहीं कि बहुत दिन बाद सरकारी स्कूलों की सूरत सुधरी। कुल मिलाकर दिल्ली के झुग्गी-झोंपड़ी या अनधिकृत कॉलोनियों में रहने वाले गरीब, प्रवासी और हाशियाग्रस्त समुदाय को कोई अपनी खैर-खबर लेने वाला मिला। स्थापित राजनीतिक घरानों के बाहर नया नेतृत्व उभरा। केंद्र सरकार और भाजपा के एजैंट की तरह उपराज्यपाल द्वारा तमाम अड़ंगे लगाने के बावजूद दिल्ली की जनता ने 2020 के चुनाव में ‘आप’ को फिर छप्पर फाड़ कर समर्थन दिया। दिल्ली मॉडल के इसी दावे के सहारे 2022 में पंजाब में भी ‘आप’ की लहर चली।

लेकिन अब तक पार्टी की बुनियादी कमजोरी ऊपर तक दिखने लगी थी। दिल्ली में ‘आप’ की तीसरी सरकार के पास महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा के अलावा और कुछ देने को बचा नहीं था। पंजाब सरकार की तिजोरी पहले से ही खाली थी, वहां कुछ बड़ा करने की गुंजाइश नहीं थी। उधर अहंकार में लिप्त नेतृत्व ने खुलकर वह सब करना शुरू कर दिया जो आम जनता में इस पार्टी की छवि को ध्वस्त कर रहा था। अब राजनीतिक तिकड़म सर्वोपरि हो गई। पार्टी ने भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करने की बजाय ङ्क्षहदू सांप्रदायिकता में भाजपा से होड़ करनी शुरू कर दी। आदर्शवाद तो पहले ही छूट चुका था, अब जमीनी पकड़ भी ढीली होने लगी। भाजपा, उसके द्वारा नियुक्त उपराज्यपाल और उसके इशारे पर काम करने वाले दरबारी मीडिया को इसी मौके का इंतजार था। केजरीवाल सहित जब बड़े नेता जेल में भेजे गए, तो अब जनता की सहानुभूति उनके साथ नहीं थी। इसकी परिणति दिल्ली के चुनाव परिणाम में हुई। ‘आप’ की हार का असली नुकसान सिर्फ इस पार्टी और इसके नेताओं को नहीं है। असली नुकसान यह है कि आने वाले कुछ समय तक राजनीति में आदर्श और ईमानदारी की बात करने वाले को शक की निगाह से देखा जाएगा। आम आदमी पार्टी ने भविष्य का रास्ता और मुश्किल कर दिया है।-योगेन्द्र यादव
 

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