‘हिमालय में’ ऋषिगंगा की तबाही

Edited By ,Updated: 09 Feb, 2021 03:55 AM

the destruction of the rishiganga  in the himalayas

रविवार की सुबह हिमालय में नंदा देवी हिमशिखर के कुछ हिस्सों में स्खलन की वजह से जान-माल की भारी क्षति हुई। उत्तराखंड के चमोली जिले में जोशीमठ के पास ‘रिणी’ गांव में शुरू हुई इस तबाही से राज्य और केंद्र की सरकार परेशान होती है। ऋषिगंगा पर निर्माणाधीन...

रविवार की सुबह हिमालय में नंदा देवी हिमशिखर के कुछ हिस्सों में स्खलन की वजह से जान-माल की भारी क्षति हुई। उत्तराखंड के चमोली जिले में जोशीमठ के पास ‘रिणी’ गांव में शुरू हुई इस तबाही से राज्य और केंद्र की सरकार परेशान होती है। ऋषिगंगा पर निर्माणाधीन पनबिजली परियोजना एक झटके में नक्शे से गायब हो गई है। आगे चल कर यह छोटी नदी धौलीगंगा में मिलती है। विकास के हैरतअंगेज कारनामे इस नदी पर भी निर्माणाधीन हैं, जिसे नुक्सान पहुंचा है। इस घटना को प्राकृतिक आपदा घोषित किया जाता है। 

दोपहर तक सरकारी तंत्र राहत और बचाव के कार्यों में जुट गया। एहतियात के तौर पर भागीरथी नदी का प्रवाह रोकने और तटीय क्षेत्रों को खाली करने का ऐलान किया गया। हालांकि शाम तक निचले क्षेत्रों में बाढ़ की आशंका पर नियंत्रण मुमकिन हो जाता है। इस हादसे का शिकार हुए लोगों को बचाने में लगे सुरक्षा बलों की तत्परता भी खूब है। साथ ही मानव निर्मित इस तबाही को आपदा करार देने की राजनीति पर चर्चा भी जरूरी है। 

बिना बरसात के अचानक आई बाढ़ में 100 से ज्यादा लोग बह गए। आठ साल पहले केदारनाथ की तबाही के दौरान भीषण बारिश से मुश्किलें बढ़ती गई थीं। इस बार हताहत होने वाले ज्यादातर लोग 11 मैगावाट क्षमता वाले ऋषिगंगा हाइड्रो-पावर प्रोजैक्ट के विनिर्माण में शामिल श्रमिक हैं। इसी विकास के लिए एन.टी.पी.सी. अपने नाम से मुंह फेर कर 520 मैगावाट क्षमता वाला तपोवन विष्णगाड़ प्रोजैक्ट इसी क्षेत्र में धौलीगंगा पर बना रही है। इन परियोजनाओं के लिए काम करने वाले श्रमिकों को सुरंगों में खोजने का बेहद मुश्किल काम आपदा प्रबंधन सेवा के जवानों ने संभाला। बहरहाल यात्रा सीजन दूर है। इसलिए इसके शिकार हुए यात्रियों की संख्या कम ही है। 

अकाल मृत्यु के शिकार हुए इन श्रमिकों, ग्रामीणों और यात्रियों के विनाश का कारण विकास है, जिसने इसे आमंत्रित किया है। स्वयं को कुदरत का अंग मान कर जीने की स्वदेशी संस्कृति के बदले आधुनिक सभ्यता के चमक-दमक में डूबने पर ऐसा ही होगा। ऋषिगंगा और धौलीगंगा हिमशिखरों के स्खलन में ऑलवैदर रोड, पनबिजली परियोजनाओं और विकास की तकनीकी का अहम योगदान है। सरहद पार तिब्बत में चल रहे विकास के कार्यों को भी इस परिधि से बाहर रखना उचित नहीं है। फलत: यह एक कृत्रिम तबाही को प्राकृतिक आपदा बताने की राजनीति साबित होती है। इसकी जड़ें बहुत गहरी जमी हुई हैं। 

आजादी से पहले देश उपनिवेशवाद का शिकार था। गांधी जी की कोशिशों के बावजूद आजादी के बाद इस मानसिकता से उबरने का वाजिब प्रयास नहीं किया गया। नतीजतन हिमालय और हिन्द महासागर में भी इसकी गिरफ्त कसने लगी। विकास के लिए निवेश की आड़ में औपनिवेशिक मानसिकता ही हावी है। यह कुदरत और कम्युनिटी का विनाश करके ही दम लेगी। विकास के इन नायाब सपनों को भू-राजनीतिक वास्तविकताओं से भी खाद-पानी मिलता है। 

चीन के हाथों 1959 में तिब्बत का पतन इसका उदाहरण है। इसके पहले ही अमरीका के राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने 1949 में दुनिया को विकासवाद का मंत्र दिया। इसकी वजह से अगले चार दशकों में दुनिया विकसित और अविकसित नामक दो भागों में बंट गई। हालांकि इसके तीन साल बाद 1952 में मेडलिन स्लेड (मीरा बेन) ने ‘समङ्क्षथग रॉन्ग इन हिमालया’ लिख कर दुनिया भर के लोगों का ध्यान हिमालय में चल रही उथल-पुथल की ओर आकृष्ट किया था। 

फिर डिवैल्पमैंट डैकेड्स के बाद 1989 में उत्तर विकासवाद की चर्चा अवश्य हुई। परंतु उदारीकरण और उपभोक्तावाद के नीचे दब कर यह दम भी तोड़ देती है। गांधी के सुंदर लाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट जैसे शिष्यों ने हिमालय की संस्कृति को परिभाषित करने का यत्न किया है। महिलाओं ने चिपको आंदोलन में शामिल होकर इसे साबित किया। इक्कीसवीं सदी में इसके प्रति सम्मान का भाव भी प्रदर्शन में सिमट कर रह गया है। यह बाजारूपन जनचेतना पर हावी है। शासक वर्ग के सामने नतमस्तक रीढ़विहीन राजनीतिक वर्ग की हिम्मत भी जवाब दे चुकी है। एक तरफ बिजली की जगमगाती रोशनी है और दूसरी तरफ अभूतपूर्व गहन अंधकार भी। 

हिमालय के शिवालिक रेंज में भूस्खलन एक गंभीर समस्या है। क्षीण होते वन और वनस्पतियों की बदलती प्रजातियां इसकी जड़ में हैं। ऐसे ही बर्फीले क्षेत्र में हिमशिखर के स्खलन से समस्या खड़ी होती है। आबादी से दूर होने के कारण अमूमन इसकी वजह से जान-माल की क्षति नहीं होती रही। परंतु विकास अब तेजी से पांव पसार रहा है। हिमालय में सुरंगों का जंजाल फैलता ही जा रहा है। इक्कीसवीं सदी में लोग वहां भी रेलगाड़ी की सवारी करने वाले हैं, जहां पर उनके पूर्वजों ने कभी ट्रेन को नहीं देखा था। इसके कारण समस्याएं तो खड़ी होंगी ही। ऐसी दशा में हिमशिखर के स्खलन से घटोत्कच के अंत की कहानी याद आती रहेगी। आज बचाव और राहत तक सिमटने के बदले इन समस्याओं के स्थायी समाधान की ओर ध्यान देना होगा। अन्यथा आम जनता इसे बाबुओं और राजनेताओं का विधवा-विलाप ही समझेगी। 

उत्तराखंड में महाकुंभ का महामंथन शुरू होने से पहले ऋषिगंगा और धौलीगंगा ने कुदरत के संदेश को व्यक्त किया है। हालांकि महामारी के प्रकोप के कारण इस प्राचीन परम्परा का सांकेतिक प्रदर्शन ही मुमकिन है। आधुनिकता के सामने आत्मसमर्पण कर रहे जम्मूद्वीप में पछवा हवा चल रही है। साधु-संतों की पंचायतें समस्याओं को दूर कर अर्थपूर्ण और प्रभावी प्रयास करने में क्या आज सक्षम हैं? यह सवाल मुंह बाए खड़ा है। साथ ही पूर्वा हवा के बहने की संभावना भी इसी कड़ी में छिपी है।-कौशल किशोर     

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