किसान की आवाज संसद तक पहुंची, मगर सरकार तक नहीं

Edited By ,Updated: 18 Dec, 2024 05:29 AM

the farmer s voice reached the parliament but not the government

एक दिन के लिए ही सही, कम से कम एक बार तो ऐसा लगा कि किसान के सवाल पर सड़क और संसद एक ही सुर में ही बोल रही हैं। इधर सड़क पर डटे किसान कानूनी एम.एस.पी. की मांग कर रहे हैं, उधर कृषि मामलों की स्थायी संसदीय समिति भी पहली बार एम.एस.पी. को कानूनी दर्जा...

एक दिन के लिए ही सही, कम से कम एक बार तो ऐसा लगा कि किसान के सवाल पर सड़क और संसद एक ही सुर में ही बोल रही हैं। इधर सड़क पर डटे किसान कानूनी एम.एस.पी. की मांग कर रहे हैं, उधर कृषि मामलों की स्थायी संसदीय समिति भी पहली बार एम.एस.पी. को कानूनी दर्जा देने की सिफारिश कर रही है। लेकिन इस जुगलबंदी के बावजूद सरकार की बेरुखी बरकरार है, उसका नवीनतम दस्तावेज फिर उस पुराने राग को दोहरा रहा है, जिसे किसानों ने तीन काले कानूनों की वापसी के साथ ही दफना दिया था। मानो सरकारी नीति न हुई, कुत्ते की दुम है, जो टेढ़ी ही रहेगी। सड़क पर खड़ा किसान कभी संसद को तो कभी सरकार को देखने पर मजबूर है।

किसान आंदोलन एक बार फिर उभार पर है। पंजाब-हरियाणा के खनौरी बॉर्डर पर संयुक्त किसान मोर्चा (अराजनीतिक) के बैनर तले किसान फिर धरना लगाकर बैठे हैं। मांगें वही हैं जो दिल्ली मोर्चा के समय अधूरी बची थीं- एम.एस.पी. यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी, किसानों की कर्ज मुक्ति और मोर्चा उठाते वक्त केंद्र सरकार द्वारा किए वादों को पूरा करना। लेकिन सरकार किसी भी कीमत पर किसानों को दिल्ली नहीं आने देना चाहती। किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल के आमरण अनशन का आज 23वां दिन है, लेकिन केंद्र सरकार का कोई भी प्रतिनिधि उनसे बात करने भी नहीं पहुंचा। हालांकि मूल संयुक्त किसान मोर्चा के अधिकांश किसान संगठन खनौरी धरने में शामिल नहीं हुए, लेकिन उन्होंने भी इस धरने के समर्थन में 16 दिसम्बर को देश भर में ट्रैक्टर मार्च आयोजित किए। इन्हीं मांगों को लेकर संयुक्त किसान मोर्चा ने भी नवंबर में सरकार को 3 महीने का अल्टीमेटम दिया है। अगर किसान आंदोलन की यह दोनों धारा जुड़ जाएं तो पिछली बार से भी बड़ा किसान आंदोलन खड़ा हो सकता है। 

संघर्षरत किसानों को एक अप्रत्याशित समर्थन संसद के वर्तमान सत्र से मिला, जब 17 दिसम्बर को संसद की कृषि, पशुपालन और फूड प्रोसैसिंग की स्थायी समिति ने अपनी पहली रिपोर्ट में किसान आंदोलन की अनेक मांगों को अपनी सिफारिशों में शामिल किया। इस समिति के अध्यक्ष कांग्रेस के सांसद और पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री सरदार चरणजीत सिंह चन्नी हैं। इस समिति में सभी दलों के सदस्य शामिल हैं और इसमें सत्तारूढ़ पक्ष का बहुमत है। सर्वसम्मति से इस बहुदलीय समिति ने सिफारिश की है कि एम.एस.पी. को कानूनी दर्जा दिया जाना चाहिए और मंत्रालय को इस बाबत एक रोडमैप तैयार करने की हिदायत भी दी है। समिति ने किसानों पर बढ़ते हुए कर्ज के बोझ को देखते हुए किसानों को कर्ज मुक्त करने की योजना बनाने और किसान सम्मान निधि को सालाना 6,000 रुपए से बढ़ाकर 12,000 रुपए करने की सिफारिश की है। 

पहली बार कृषि पदार्थों की अंतरराष्ट्रीय व्यापार नीति बनाते समय किसानों की भागीदारी की मांग को भी संसद के पटल पर रखा गया है। वैसे संसदीय समिति की सिफारिशें सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं हैं, फिर भी उम्मीद बंधती है कि किसान आंदोलन की आवाज अब सड़क से संसद की ओर रुख ले रही है। इस बीच सरकार का रुख जस का तस है। हाल ही में भारत सरकार के कृषि मंत्रालय ने 25 नवम्बर को एक 10 वर्षीय नीति ‘नैशनल पॉलिसी फ्रेमवर्क फॉर एग्रीकल्चरल मार्केटिंग’ का मसौदा जारी किया। किसानों से संबंधित इस दस्तावेज को सिर्फ अंग्रेजी में जारी किया गया और देश भर के किसानों से 15 दिन में प्रतिक्रिया मांगी गई। यह दस्तावेज आज भी उसी मानसिकता का शिकार है, जिसने 3 किसान विरोधी काले कानून बनाए थे। हालांकि कृषि बाजार राज्य सरकारों का अधिकार क्षेत्र है, फिर भी केन्द्र सरकार ने बिना राज्य सरकारों से सलाह किए यह दस्तावेज बनाया। यही नहीं, यह दस्तावेज कहता है कि राज्य सरकारों को भविष्य में अपनी कृषि विपणन नीति इस राष्ट्रीय दस्तावेज से जोड़कर बनानी पड़ेगी। 

जब किसान बाजार में जाते हैं तो उनकी सबसे बड़ी पीड़ा है कि उन्हें अपनी फसल का उचित दाम नहीं मिलता, इसलिए एम.एस.पी. की व्यवस्था बनी जिसे कानूनी दर्जा देने की मांग किसान कर रहे हैं। लेकिन कृषि बाजार पर केंद्रित इस दस्तावेज में न्यूनतम समर्थन मूल्य का जिक्र तक नहीं है। इसके बदले फसल बीमा की तर्ज पर फसल के मूल्य का बीमा करने की योजना का प्रस्ताव है। इस दस्तावेज से यह साफ है कि सरकार किसान को बाजार के भरोसे छोड़ देना चाहती है और उस बाजार को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी बदस्तूर जारी है। भले ही सरकार को ए.पी.एम.सी. के बरक्स प्राइवेट मंडियां खड़ी करने वाला कानून वापस लेना पड़ा था, लेकिन अब इस नीति दस्तावेज के सहारे सरकार वापस उसी प्रस्ताव को पिछले दरवाजे से लाना चाहती है। इस दस्तावेज में जिन ‘कृषि सुधारों’ का प्रस्ताव है, उनमें प्राइवेट मंडी बनाने की अनुमति देना, निर्यातकों और थोक व्यापारियों को सीधे खेत से खरीद की व्यवस्था और गोदाम को  मार्केट यार्ड मान लेने जैसे प्रावधान हैं, जो सरकारी मंडी की व्यवस्था को ध्वस्त करने के इरादे से लाए गए कानूनों को दोबारा किसानों पर लादने का षड्यंत्र है। 

यही नहीं, यह दस्तावेज कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की उस व्यवस्था को भी वापस लाने की सिफारिश करता है, जिसका कानून सरकार ने किसानों के दबाव में वापस ले लिया था। जाहिर है, अभी तक देश के तमाम किसान संगठनों तक सरकार की इस नई नीति की खबर पहुंची नहीं है। लेकिन ‘आशा-किसान स्वराज’ संगठन के संयोजक कविता कुरुगंटी और राजेंद्र चौधरी ने लिखित आपत्ति दर्ज करते हुए सरकार से इस मसौदे को वापस लेने की मांग की है। संयुक्त किसान मोर्चा ने भी इस दस्तावेज की प्रतियां जलाने का आह्वान किया है। आंदोलनकारी जानते हैं कि दिल्ली सरकार ऊंचा सुनती है। लगता है इस सरकार को अपनी मांग सुनाने के लिए किसानों के सभी संगठनों को  एकजुट होकर दोबारा सड़क पर उतरने का समय आ गया है।-योगेन्द्र यादव
 

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