महिलाओं की सत्ता में बराबरी के अधिकार की लड़ाई अभी बाकी

Edited By ,Updated: 21 Dec, 2024 05:27 AM

the fight for women s equal rights to power is still pending

6 दिसम्बर 2007 को सुप्रीम कोर्ट ने रूढि़वाद पर आधारित महिलाओं पर बंदिश लगाने वाले कानून को खारिज किया। यह ऐतिहासिक दिन था। इसके बाद धर्म, जाति, नस्ल, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाने वाले संविधान के अनुच्छेद 15 की...

6 दिसम्बर 2007 को सुप्रीम कोर्ट ने रूढि़वाद पर आधारित महिलाओं पर बंदिश लगाने वाले कानून को खारिज किया। यह ऐतिहासिक दिन था। इसके बाद धर्म, जाति, नस्ल, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाने वाले संविधान के अनुच्छेद 15 की महिलाओं के अधिकारों के संबंध में व्यापक व्याख्याएं हुई हैं। 

उक्त मुकद्दमे में याचिकाकत्र्ता थे अनुज गर्ग एवं अन्य तथा प्रतिवादी थी होटल एसोसिएशन ऑफ इंडिया एवं अन्य। न्यायमूर्ति एस.बी. सिन्हा और हरजीत सिंह बेदी की पीठ द्वारा पंजाब आबकारी अधिनियम-1914 की धारा 30 को चुनौती दी गई है, जो 25 वर्ष से कम आयु की महिला को किसी ऐसे परिसर में जाने से रोकती थी, जहां शराब या मादक पदार्थ का सेवन जनता द्वारा किया जाता है। इस तरह महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में कहा जा सकता है कि लैंगिक समानता का सिद्धांत भारतीय संविधान में निहित है। इसमें मूल अधिकार से जुड़ा 14वां अनुच्छेद भी शामिल है, जिसमें विधि के समझ समान संरक्षण प्राप्त है।

विद्वानों का मानना है कि वैदिक काल के प्राचीन भारत में महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में बराबरी का दर्जा हासिल था। हालांकि स्मृतिकाल में उनके स्तर में बदलाव आना शुरू हो गया है। चौथी शताब्दी ई.पू. के माने जाते अपस्तंभ सूत्र में नारी सुलभ आचरण संबंधी नियमों को 1730 में त्रयम्बकयज्वन ने स्त्रीधर्मपद्धति में संकलित किया था। इसका मुख्य छंद था ‘मुख्यो धर्म: स्मृतिषु विहितो भार्तृशुश्रुषानाम हि:’ अर्थात स्त्री का मुख्य कत्र्तव्य उसके पति की सेवा से जुड़ा है। मध्यकाल में बाहरी आक्रमणों के कारण भारतीय समाज में महिलाओं पर कई तरह की बंदिशें थोपी गईं, जिसने समाज में स्त्रियों के प्रति एक बहुत ही संकुचित सोच का निर्माण किया। इस सोच से स्वतंत्रता की लड़ाई अब तक जारी है। 

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान समाज सुधारक राजा राममोहन राय ने महिलाओं के खिलाफ सती प्रथा जैसी कुरीतियों को बंद कराया। महिला अधिकारों को आज सबसे जागरूक समझे जाने वाले केरल राज्य में 18वीं-19वीं सदी में दलित स्त्रियों से बेहद बुरा बर्ताव हो रहा था। उन्हें वक्ष ढंकने की इजाजत नहीं थी। पढऩा-लिखना मना था। उनका सार्वजनिक स्थानों पर प्रवेश वर्जित था और यहां तक कि उन्हें बाजारों में भी नहीं घुसने दिया जाता था। ऐसे में तिरुवनंतपुरम के पास एक गांव वेगनूर में पुलाया नामक दलित समुदाय में जन्मे अय्यनकली ने दलित महिलाओं को अधिकार दिलाने और लड़कियों को स्कूल में प्रवेश दिलाने के लिए आंदोलन किया। ऐसी ही समाज सुधारक और पहली महिला शिक्षक सावित्री बाई फुले ने स्त्रियों के अधिकारों, अशिक्षा, छुआछूत, बाल विवाह और विधवा को विवाह के अधिकार के लिए आवाज उठाई और अंधविश्वासों के खिलाफ लंबा संघर्ष किया। सावित्री बाई फुले ने अपने पति ज्योतिराव फुले के साथ मिलकर लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले।

आजादी के बाद भी स्त्रियों को अधिकारों के लिए लगातार लडऩा पड़ा। सरकारी नौकरियों तथा जन प्रतिनिधित्व अधिकार के लिए लंबी लड़ाई लड़ी गई। तब जाकर वर्ष 2023 में संविधान में 106वां संशोधन किया गया। महिला आरक्षण अधिनियम नारीशक्ति वंदन पारित किया गया। इसके तहत लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें आरक्षित की गई हैं, मगर इसे 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले लागू नहीं किया जा सका। यह परिसीमन के बाद ही लागू होगा। परिसीमन 4 साल से लंबित पड़े जनगणना का कार्य संपन्न होने के बाद ही उसके डाटा मिलने पर संभव होगा। यदि नए साल में जनगणना का काम शुरू हो जाता है तो संभव है कि इसके पूरे आंकड़े अगले साल तक मिल जाएंगे। ऐसे में वर्ष 2026 से पहले इसके लागू होने की संभावना नहीं बन रही है। इस कानून को पारित होने के बाद भी सत्तारूढ़ दल ने इसके 2026 तक प्रभावी हो जाने का अनुमान जताया था। हालांकि तब भी विपक्ष ने 2024 में इसे लागू न करने को लेकर सरकार की मंशा पर सवाल उठाए थे। 

मगर जब 2024 के लोकसभा चुनाव और बाद में हरियाणा, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर तथा महाराष्ट्र विधानसभाओं के चुनाव हुए तो किसी भी राजनीतिक दल ने महिलाओं को एक तिहाई टिकटें देने का साहस नहीं दिखाया। यानी महिलाओं के अधिकारों के नाम पर कुल जमा सारी बयानबाजी राजनीति करने तक सीमित है। अलबत्ता चुनावी राजनीति में महिलाओं ने अपनी ताकत दिखानी शुरू कर दी है। लोकसभा चुनाव में 19 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में महिलाओं ने पुरुषों के मुकाबले अधिक संख्या में मतदान किया। अगर समूचे भारत की बात करें तो 65.8 फीसदी महिला मतदाताओं ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया, जबकि पुरुषों की संख्या 65.7 फीसदी रही। राजनीति वह क्षेत्र है, जहां पुरुषों का वर्चस्व है। अमरीका जैसे विकसित देश में महिलाओं के राजनीतिक वर्चस्व को स्वीकार करने में हिचक है। वहां हाल ही में हुए चुनाव में सबने देखा कि चुनाव जीतने वाले डोनाल्ड ट्रम्प और उनके सहयोगियों ने उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस का मजाक उनके महिला होने को लेकर लगातार उड़ाया। मतदान का डाटा भी बता रहा है कि वहां पुरुषों ने ट्रम्प को ज्यादा वोट दिए। इसलिए सत्ता में बराबर की भागीदारी के लिए भारत में भी महिलाओं को अभी काफी लड़ाई लडऩी है। अभी तो सिर्फ एक तिहाई की बात हो रही है।-अकु श्रीवास्तव
 

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