Edited By ,Updated: 03 Oct, 2024 05:13 AM
भारतीय राजनीति को परिवारवाद किस प्रकार अपनी जद में ले चुका है, तमिलनाडु का हालिया घटनाक्रम उसका उदाहरण है। यहां द्रविड़ मुनेत्र कडग़म (द्रमुक) के मुखिया और मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने पार्टी के भीतर वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी करते हुए अपने 46 वर्षीय...
भारतीय राजनीति को परिवारवाद किस प्रकार अपनी जद में ले चुका है, तमिलनाडु का हालिया घटनाक्रम उसका उदाहरण है। यहां द्रविड़ मुनेत्र कडग़म (द्रमुक) के मुखिया और मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने पार्टी के भीतर वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी करते हुए अपने 46 वर्षीय पुत्र उदयनिधि स्टालिन को उप-मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया। 29 सितंबर को तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा उदयनिधि के साथ चार और मंत्रियों को पद-गोपनीयता की शपथ दिलाई गई। तमिलनाडु और द्रमुक में ऐसा पहली बार नहीं है, जब पिता मुख्यमंत्री और बेटा उप-मुख्यमंत्री रहे हो। वर्ष 2009 में एम.के. स्टालिन को भी उनके पिता और तत्कालीन मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि ने उप-मुख्यमंत्री बना दिया था।
जहां स्टालिन की चुनावी राजनीति की शुरूआत वर्ष 1984 में हुई, तो वहीं स्टालिन के बेटे उदयनिधि पहली बार वर्ष 2021 में विधायक चुने गए। डेढ़ साल बाद ही उदयनिधि मंत्रिमंडल में शामिल हो गए, तो अब वे राज्य के उपमुख्यमंत्री हैं। ये वही उदयनिधि हैं, जिन्होंने गत वर्ष सनातन संस्कृति की डेंगू-मलेरिया-कोरोना आदि बीमारियों से तुलना करते हुए उसे समाप्त करने की बात कही थी। करुणानिधि परिवार की तीसरी पीढ़ी उदयनिधि का हालिया प्रमोशन ऐसे समय हुआ है, जब द्रमुक अपनी 75वीं वर्षगांठ मना रहा है। वर्ष 1949 में सी.एन. अन्नादुरै ने पार्टी की स्थापना की थी। 1969 में उनकी मृत्यु के बाद पार्टी की कमान करुणानिधि के पास चली गई, जो तब प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने। उन्होंने अपने परिवार को राजनीति में आने के लिए प्रोत्साहित किया। अपने बेटे स्टालिन को उत्तराधिकारी बनाने की हठ ने वैको जैसे नेताओं को दरकिनार कर दिया, जो तब करुणानिधि के बाद पार्टी का नेतृत्व करने के लिए सबसे उपयुक्त थे। इस कलह के कारण 1994 में द्रमुक का विभाजन हो गया।
पार्टी में स्टालिन को अगली चुनौती उनके ही बड़े भाई एम.के. अलागिरी से ही मिली, जिन्हें 2014 में पार्टी से निकाल दिया गया। करुणानिधि की बेटी कनिमोझी पार्टी की लोकसभा सांसद है। द्रमुक के भीतर स्टालिन के बाद उदयनिधि के उभार के खिलाफ बहुत कम चुनौती दिखती है। गांधी जी परिवारवाद के मुखर विरोधी थे। स्वतंत्रता के बाद उनके बड़े बेटे हरिलाल ने लावारिसों की भांति मुंबई स्थित अस्पताल में दम तोड़ा था। परंतु गांधीजी के नाम पर राजनीति करते हुए स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी इकलौती पुत्री इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाकर देश में वंशवादी राजनीति का बीजारोपण कर दिया। उस कालखंड में अधिनायकवादी मानसिकता का परिचय देते हुए इंदिरा ने पं.नेहरू को जनता द्वारा चुनी केरल की तत्कालीन वाम सरकार को बर्खास्त करने और वहां राष्ट्रपति शासन थोपने के लिए विवश कर दिया था।
इस घटनाक्रम ने कांग्रेस में एक व्यक्ति और एक परिवार के साथ पूर्ण देश और पार्टी की पहचान को जोडऩे की गैर-लोकतांत्रिक परंपरा की नींव डाल दी। व्यक्तिवाद से प्रेरित होकर इंदिरा ने न केवल देश पर आपातकाल (1975-77) थोप दिया, बल्कि अपने छोटे बेटे संजय गांधी को अपना उत्तराधिकारी भी बनाना शुरू कर दिया। तब संजय बिना किसी अधिकार के तत्कालीन इंदिरा सरकार के कामकाज में दखल देते थे। जून 1980 में हवाई दुर्घटना में संजय की मौत के बाद राजीव औपचारिक रूप से राजनीति में आए, जो कालांतर में अपनी मां की निर्मम हत्या के बाद देश के प्रधानमंत्री बन गए। इसके बाद कुछ अपवाद को छोड़ दें, तो कांग्रेस पर प्रत्यक्ष-परोक्ष से नेहरू-गांधी परिवार (सोनिया-राहुल-प्रियंका) का प्रभुत्व है और पार्टी में योग्यता-प्रतिभा का स्तर इसी परिवार तक सीमित है।
पिछले सात दशकों में कांग्रेस ने जो वंशवाद प्रेरित राजनीतिक नजीर पेश की है, उसका नतीजा है कि देश में कई दल (छत्रप सहित) परिवारवाद से ग्रस्त हो चुके हैं, जो वर्तमान समय में सत्तापक्ष और विपक्ष—दोनों में मिल जाएंगे। समाजवादी पार्टी की स्थापना मुलायम सिंह यादव ने की थी। बाद में उनके बेटे अखिलेश यादव अपने पिता की भांति उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बने और आज पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं। मुलायम परिवार के अन्य कई सदस्य विभिन्न पदों (सांसद सहित) पर हैं। राष्ट्रीय जनता दल की स्थिति अलग नहीं है। इसकी शुरूआत लालू प्रसाद यादव ने की थी, जिसे अब उनके बेटे तेजस्वी यादव संभाल रहे हैं।
लालू की पत्नी राबड़ी देवी भी अपने पति की तरह बिहार की मुख्यमंत्री रही हैं। शरद पवार ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को वर्ष 1999 में खड़ा किया था, जो पारिवारिक कलह के कारण पिछले साल दो फाड़ हो गई। पवार की बेटी सुप्रिया सुले अपने पिता के दल में कार्यकारी अध्यक्ष और सांसद हैं। पार्टी टूटने से पहले शिवसेना की कमान भी बाल ठाकरे के बाद बेटे उद्धव और पोते आदित्य के हाथों में थी। तृणमूल कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी में बुआओं (ममता-माया) और भतीजों (अभिषेक-आकाश) का वर्चस्व है। कश्मीर की राजनीति में दशकों से दो परिवारों— अब्दुल्ला (शेख-फारुख-उमर) और मुफ्ती (सईद-महबूबा-इल्तिजा) का दबदबा है, जिसे धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण के बाद कड़ी चुनौती मिल रही है।
वर्तमान सत्ताधारी राजग सरकार के सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी भी परिवारवाद के आरोपों से घिरी है। इसकी स्थापना रामविलास पासवान ने की थी, जिनकी मृत्यु के बाद उनके भाई पशुपति कुमार ने पार्टी को संभाला, तो अब उनके बेटे चिराग पासवान पार्टी का नेतृत्व संभाल रहे हैं। इसी प्रकार तेलुगु देशम पार्टी को एन.टी. रामाराव ने स्थापित किया था, जिसकी अगुवाई उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू कर रहे हैं, जिनके बेटे नारा लोकेश अपने पिता की अगुवाई वाली आंध्र सरकार में मंत्री हैं। कर्नाटक से पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा द्वारा स्थापित जनता दल (सैकुलर) पर भी उनके ही परिवार का दबदबा है। यही स्थिति ओडिशा में बीजू जनता दल की भी है। पंजाब में शिरोमणि अकाली दल का नेतृत्व बादल परिवार के हाथों में है, जिसका बीते दिनों पार्टी के भीतर विरोध भी हुआ था।
वास्तव में, मौजूदा दौर में देश के दो ही राजनीतिक दल— भाजपा और वामपंथी दल ऐसे हैं, जो परिवारवाद के रोग से मुक्त दिखते हैं। इन दोनों, जो एक-दूसरे के वैचारिक तौर पर विरोधी हैं— वहां केंद्रीय स्तर पर किसी एक परिवार का नियंत्रण नहीं है। जब भारत 2047 तक विकसित होने का सपना देख रहा है, क्या तब इस दौरान भारतीय राजनीति के संकीर्ण परिवारवाद से मुक्त होने की उम्मीद की जा सकती है?-बलबीर पुंज