Edited By ,Updated: 17 Oct, 2024 05:49 AM
ई.वी.एम. पर संदेह और सवालों का निर्णायक समाधान तो चुनाव आयोग या फिर सर्वोच्च न्यायालय ही कर सकता है, लेकिन हरियाणा समेत तमाम राज्यों में हार में खुद कांग्रेसियों की भूमिका कम नहीं रहती। जिस 90 सदस्यीय हरियाणा विधानसभा के चुनाव में तमाम चुनावी पंडित...
ई.वी.एम. पर संदेह और सवालों का निर्णायक समाधान तो चुनाव आयोग या फिर सर्वोच्च न्यायालय ही कर सकता है, लेकिन हरियाणा समेत तमाम राज्यों में हार में खुद कांग्रेसियों की भूमिका कम नहीं रहती। जिस 90 सदस्यीय हरियाणा विधानसभा के चुनाव में तमाम चुनावी पंडित अनुमान लगा रहे थे कि कांग्रेस 60 पार जाएगी या फिर 70 भी पार कर जाएगी, वह बहुमत के आंकड़े से भी 9 कम यानी 37 सीटों पर सिमट गई। हरियाणा के इतिहास में भाजपा के रूप में पहली बार कोई राजनीतिक दल लगातार तीसरी बार सरकार बनाने का जनादेश पाने में सफल रहा। कुछ लोगों को यह ‘चमत्कार’ लग सकता है, पर ऐसा सोचना चुनाव जीतने की भाजपा की कोशिशों और हारने की कांग्रेसियों की कवायद, दोनों का ही अपमान है।
4 महीने पहले लोकसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस 5-5 सीटें जीतने में सफल रहे थे। तभी से मान लिया गया था कि हरियाणा में सत्ता विरोधी आंधी चल रही है। मत प्रतिशत और विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त के मामले में भाजपा के आगे रहने के बावजूद ऐसा कैसे मान लिया गया कि कांग्रेसी और चुनावी पंडित ही बेहतर जानते होंगे। बेशक विधानसभा चुनाव में कड़े मुकाबले का संकेत वह अवश्य था। लोकसभा चुनाव से सबक लेकर भाजपा खिसकते जनाधार को बचाने में जमीन पर जुट गई तो कांग्रेसी सत्ता में वापसी के हवाई किले बनाते हुए आपस में ही लडऩे लगे। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और ‘आप’ के बीच गठबंधन हुआ था। ‘आप’ भले ही अपने कोटे की एकमात्र कुरुक्षेत्र सीट जीत नहीं पाई, लेकिन गठबंधन भाजपा से 5 सीटें छीनने में सफल रहा। राष्ट्रीय राजनीति के दूरगामी समीकरणों के मद्देनजर भी राहुल गांधी चाहते थे कि विधानसभा चुनाव में ‘आप’, सपा और माकपा को कुछ सीटें देकर ‘इंडिया’ गठबंधन की एकजुटता की तस्वीर पेश की जाए। इससे राजनीतिक विकल्प के प्रति मतदाताओं का विश्वास भी बढ़ता, लेकिन सत्ता विरोधी भावना से ही चुनाव जीत जाने के प्रति आश्वस्त कांग्रेसियों ने उनकी भी नहीं सुनी।
पता नहीं कांग्रेसियों को किसने बता दिया था कि जनता उनकी ताजपोशी का फैसला कर चुकी है, इसलिए वे चुनाव जीतने की बजाय अपनी ‘चौधर’ की बिसात बिछाने में अपना समय और ऊर्जा लगाएं। यही किया भी गया। सपा से तो बात भी नहीं की गई। ‘आप’ से बातचीत हुई, पर उसे सिरे नहीं चढऩे दिया गया। एक ओर सत्ता विरोधी मतों का विभाजन रोकने के लिए कांग्रेस ने कोई कोशिश नहीं की तो दूसरी ओर इनैलो-बसपा और जजपा-आसपा गठबंधनों के अलावा ‘आप’ की अलग उपस्थिति ने उनका बिखराव सुनिश्चित कर दिया। रही-सही कसर गलत टिकट वितरण के चलते ललित नागर, शारदा राठौर और चित्रा सरवारा जैसे दमदार बागियों ने पूरी कर दी, जो कांग्रेस उम्मीदवारों से भी ज्यादा मत लेकर भाजपा की जीत में मददगार बने। बहादुरगढ़ से कांग्रेस के बागी राजेश जून तो जीत भी गए और अब भाजपा का समर्थन कर रहे हैं। 14 सीटों पर निर्दलियों और छोटे दलों को हार-जीत के अंतर से भी ज्यादा वोट मिले। क्या यह कोई सुनियोजित खेल था? राहुल गांधी अक्सर कांग्रेस कार्यकत्र्ताओं को ‘शेर’ बताते हैं।
हरियाणा की चुनावी सभा में उन्होंने कहा कि जंगल में शेर अक्सर अकेला पाया जाता है, लेकिन कांग्रेस में कई ‘शेर’ हैं, जो कभी-कभी आपस में भी लड़ जाते हैं। जाहिर है, उनका इशारा भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कुमारी सैलजा में टकराव की ओर था।
राहुल ने मंच पर ही दोनों के हाथ पकड़ कर मिलवाए भी, पर उससे दिलों की दूरी कम नहीं हुई और ‘शेरों’ के आपसी झगड़े में ही कांग्रेसी सत्ता की बगिया खिलने से पहले उजड़ गई। राजनीतिक विरोधियों से लडऩे से ज्यादा समय और ऊर्जा आपस में लडऩे में लगाने की कांग्रेसियों की फितरत पुरानी है। उसके चलते अक्सर सत्ता की जंग हार जाना भी नई बात नहीं है कांग्रेस के लिए, लेकिन उससे निजात की कोई कारगर कोशिश नजर नहीं आती। ई.वी.एम. पर उठते संदेह और सवालों के बावजूद इस सच से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि ‘मैं नहीं तो कोई भी नहीं’ की निजी सत्ता महत्वाकांक्षाओं से ग्रस्त कांग्रेसियों ने हरियाणा में हार खुद ही सुनिश्चित की। एकजुटता की तस्वीर से विपक्ष बड़ा राजनीतिक संदेश दे सकता था, पर राज्यों में कांग्रेस पर काबिज मठाधीश अपनी राजनीति से आगे देखते ही कहां हैं? इसीलिए तो कमलनाथ ने देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री के बारे में टिप्पणी की थी कि ‘कौन अखिलेश-वखिलेश?’
विधानसभा चुनाव में जिस सपा को एक-दो सीटों के लायक नहीं समझा गया, औंधे मुंह गिरने के बाद खिसियाते हुए उसके लिए फिर खजुराहो लोकसभा सीट छोड़ दी गई। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस के अहंकारी मठाधीशों का यही रवैया रहा। बेशक शीर्ष नेता होने के नाते चुनाव-दर-चुनाव हार की जिम्मेदारी और जवाबदेही से राहुल गांधी मुंह नहीं चुरा सकते, लेकिन अगर भविष्य में कांग्रेस की किस्मत बदलना चाहते हैं तो उन मठाधीशों से सख्त जवाबतलबी का समय आ गया है, जो जीत के दावे और वायदे करके मनमानी करते हैं।-राज कुमार सिंह