धर्म के आधार पर विभाजन की राजनीति बंद होनी चाहिए

Edited By ,Updated: 24 Jul, 2024 04:39 AM

the politics of division on the basis of religion must stop

हम मतभेद और विभाजन करने में आनंद क्यों लेते हैं और ब्याज को मूल क्यों समझ लेते हैं तथा धार्मिक असहिष्णुता के गंदे कड़ाहे में राम-रहीम का मंथन करना क्यों पसंद करते हैं, जो इस सप्ताह सुर्खियों में रहा है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि धर्मनिरपेक्ष...

हम मतभेद और विभाजन करने में आनंद क्यों लेते हैं और ब्याज को मूल क्यों समझ लेते हैं तथा धार्मिक असहिष्णुता के गंदे कड़ाहे में राम-रहीम का मंथन करना क्यों पसंद करते हैं, जो इस सप्ताह सुर्खियों में रहा है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि धर्मनिरपेक्ष सांप्रदायिक सिक्के के किस पहलू की ओर आप हैं अन्यथा उत्तर प्रदेश सरकार के उस निर्देश की आप क्या व्याख्या करेंगे जिसमें कांवड़ यात्रा मार्ग पर सभी भोजनालयों, स्टॉलों, फलों की रेहडिय़ों, जूस स्टाल वालों को मालिक का नाम लिखने के लिए कहा गया है, ताकि शिव भक्तों में कोई भ्रम न हो। 

क्या वास्तव में ऐसा है? हालांकि भाजपा की सहयोगी नीतीश की जद (यू), पासवान की लोजपा और चौधरी की आर.एल.डी. ने इस निर्देश की विपक्ष के साथ आलोचना की है क्योंकि यह पहचान के आधार पर लोगों को अलग कर रही है और संविधान के विरुद्ध है तथा इसका उद्देश्य मुसलमानों को निशाना बनाना और उन्हें अपनी पहचान प्रकट करने के लिए बाध्य करना है। उत्तर प्रदेश सरकार ने जो निर्देश दिया उसका अनुसरण भाजपा शासित उत्तराखंड और मध्य प्रदेश ने भी किया किंतु स्थिति नियंत्रण से बाहर जाने से पूर्व उच्चतम न्यायालय ने एक अंतरिम आदेश से इस पर रोक लगा दी और निर्देश दिया कि इन तीनों राज्यों में दुकानदारों को इसकी सूचना देनी होगी कि उनके भोजनालयों में किस प्रकार का भोजन प्रदान किया जाता है। उन्हें अपना नाम प्रकट करने की आवश्यकता नहीं है। 

प्रश्न उठता है कि क्या हम धीरे-धीरे धर्म के आधार पर विभाजन की ओर बढ़ रहे हैं या सांप्रदायिकता बढ़ा और एक व्यापाक सामाजिक ताने-बाने में स्थिति को ओर उलझा रहे हैं? स्पष्ट है कि धर्म के नाम पर छोटे-मोटे दुकानदारों पर निगरानी रखना न केवल भेदभावपूर्ण है, अपितु यह राज्य में लोगों के विश्वास को भी कम करता है क्योंकि कोई भी व्यक्ति किसी रैस्टोरैंट में उसके मेन्यू के आधार पर जाता है, न कि वहां काम करने वालों लोगों के धर्म के आधार पर। भाजपा की दृष्टि से, सरकार के इस आदेश से उसने दो उद्देश्यों को प्राप्त किया है। 

पहला यह साबित किया है कि कानून लागू किया जा सकता है और दूसरा, मुख्यमंत्री योगी हिन्दुत्व के एजैंडे पर बने हुए हैं, हालांकि उन्होंने इस आदेश को जारी करने का यह बहाना बनाया कि इससे भक्तों में भ्रम की स्थिति दूर होगी, पारदर्शिता आएगी और भक्तों की आस्था की शुचिता बनाए रखेगी। जबकि पिछले कुछ वर्षों से यात्रा शांतिपूर्ण रही है। अपने बचाव में उत्तर प्रदेश सरकार ने हवाला दिया है कि यह आदेश पहली बार 2006 में मुलायम सिंह यादव ने और उसके बाद मायावती ने भी जारी किया था। सरकार ने यह भी बताया कि खाद्य सुरक्षा मानक अधिनियम 2006 भोजनालयों में एफ.एस.आई. लाइसैंस और पंजीकरण संख्या को प्रकट करना अनिवार्य है। 

इसके अलावा राज्य में विधानसभा की 10 सीटों पर उपचुनाव होने वाले हैं और योगी इस निर्णय से मतदाताओं का धु्रवीकरण करना चाहते हैं। उनका मानना है कि इस कदम से हिन्दू वोट एकजुट होंगे और गाजियाबाद, पुन्डरकी और मीरापुर में भाजपा को लाभ मिलेगा, जो कांवड़ यात्रियों से प्रभावित हैं। गाजियाबाद के अलावा मीरापुर सीट अब तक आर.एल.डी. के पास है और पुन्डरकी सीट सपा के पास। गत वर्षों में भाजपा मुख्य हिन्दी भाषी क्षेत्र में स्वयं को हिन्दू बहुसंख्यकों की आस्था की हितैषी के रूप में प्रस्तुत करती रही है। 

कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने तीर्थ यात्रियों की भावनाओं का उल्लेख करते हुए कांवड़ यात्रा मार्ग के साथ मांस और मांसाहारी भोजन की बिक्री पर रोक लगा दी थी। ऐसे व्यवसाय में अल्पसंख्यक समुदाय के लोग अधिक लगे हुए हैं, तो इसलिए इस कार्रवाई को भेदभावपूर्ण माना गया। यह बात समझ में आती है कि हिन्दू धार्मिक यात्रा के दौरान शाकाहारी भोजन किया जाता है और उसी पर बल दिया जाता है तथा इसका एक सरल समाधान यह है कि शाकाहारी भोजन वाले शाकाहारी भोजनालयों में जाएंगे और शायद कांवडि़ए ऐसा कर भी रहे हैं। स्थानीय लोगों के अनुसार कांवड़ यात्रा मार्ग पर मांसाहारी भोजनालयों को खुला रखने की अनुमति नहीं दी जाती। 

फिर समस्या क्या है? कुछ शाकाहारी भोजनालय मुसलमानों द्वारा संचालित हैं और उन्होंने हिन्दुओं को गुमराह करने के लिए अपने भोजनालयों का नाम हिन्दू देवी-देवताओं के नाम पर रखा है, जिसके चलते कानून-व्यवस्था की स्थिति पैदा हो रही है। वह भोजन अपवित्र माना जाता है, जिसका मालिक मुसलमान हो, या उसमें काम करने वाले मुसलमान हों। कुल मिलाकर यह मुसलमानों के भोजनालयों और मुसलमानों को नियोजित करने वालों का बहिष्कार है। यदि यह अस्पृश्यता नहीं है तो क्या है और इसके चलते धार्मिक और जातीय आधार पर मतभेद बढ़ रहे हैं। हमारे नेतागण गत वर्षों में समाज में जहर फैलाने की कला में सिद्धहस्त हो गए हैं।

राजनीति ध्रुवीकरण, तुष्टीकरण, दिखावा और आदेशों तक सीमित हो गई है। ऐसे आदेश न केवल घृणा फैला, अपितु सांप्रदायिक मतभेद भी बढ़ा रहे हैं और हिन्दुओं को मुसलमानों के विरुद्ध खड़ा कर रहे हैं। नि:संदेह भाजपा की धुवीकरण की नई हिन्दुत्व राजनीति उन क्षेत्रों में भी पैर पसार रही है, जहां अल्पसंख्यकों की उपस्थिति नगण्य है और साथ ही वह नारा दे रही है ‘सबका साथ, सबका विकास’, जिसका तात्पर्य है कि मुसलमानों को एक अलग सामाजिक इकाई न माना जाए। फिर भी वह मानती है कि मुस्लिम सोच अभी भी समस्या की जड़ है। 

जहां तक विपक्षी दलों का सवाल है, अल्पसंख्यक विरोधी मुद्दे पर हिन्दुत्व ब्रिगेड को सबक सिखाने और आक्रामक हिन्दुत्व एकीकरण का विरोध करने के बावजूद वे मुस्लिम समर्थक नहीं दिखना चाहते। वे मुस्लिम सोच को भाजपा विरोधी मानते हैं और उसी के आधार पर वे अपनी राजनीतिक रणनीति बना रहे हैं। मतदाताओं के धु्रवीकरण का माध्यम धार्मिक यात्राओं को भी बनाया जाता है, जिससे वैमनस्य और घृणा की भावनाएं पनपती हैं। किसी को परवाह नहीं कि इससे सांप्रदायिक हिंसा फैलती है और धर्म के आधार पर विभाजन होता है। ऐसी घटनाओं से क्या प्राप्त होगा? कुछ भी नहीं। इनसे केवल आम आदमी निशाना बनता है। 

कुल मिलाकर धार्मिक राष्ट्रवाद के नाम पर स्वयंभू धार्मिक राजनीतिक प्राधिकारी  और उनके चेले, जो किसी समुदाय के लोगों को अछूत मानते हैं और जो अल्पसख्ंयक समुदाय में भय और घृणा फैलाते हैं, उन्हें सबक सिखाया जाना चाहिए, अन्यथा इस देश में कौन सुरक्षित रह पाएगा। समय आ गया है कि भारत को धार्मिक भेदभाव से मुक्त तथा राज्य से धर्म को अलग किया जाए अन्यथा हमारा देश भी ईरान या सऊदी अरब की तरह बन जाएगा। राज्य गैर-राजनीतिक होता है और संविधान के अलावा उसका कोई धर्म नहीं होता। वर्तमान राजनीतिकपरिदृश्य में यदि हमारे राजनेता राजनीति को धर्म से अलग कर पाएं तो सांप्रदायिक हिंसा की समस्या समाप्त हो जाएगी और इसके लिए हमें सुदृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। सभी धर्मों में इस बारे में सहमति बननी चाहिए कि वोट बैंक की राजनीति के लिए धर्म का इस्तेमाल नहीं किया जाए। किंतु भारत की खंडित राजनीति में आज इसकी कोई आशा नहीं दिखाई देती। 

समय आ गया है कि हमारे नेता राजनीति से विभाजनकारी निर्देशों को वापस लें और नफरत के बाजार में मुहब्बत की दुकान खोलें। संवैधानिक पदों पर बैठे हुए हमारे नेताओं से अपेक्षा की जाती है कि वे धैर्य और संयम से काम लें। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिकता सिक्के के किस पहलू की ओर आप हैं। उद्देश्य यह होना चाहिए कि शासन और समानता के मानदंड ऊंचे किए जाएं न कि उनमें गिरावट लाई जाए। राजनीतिक दलों को समझना होगा कि इससे होने वाली क्षति स्थायी है। घाव सदियों तक नहीं भरते। क्या वे इस ओर ध्यान देंगे?-पूनम आई. कौशिश

Trending Topics

Afghanistan

134/10

20.0

India

181/8

20.0

India win by 47 runs

RR 6.70
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!