Edited By ,Updated: 29 Sep, 2024 05:44 AM
ऐसा लगता है कि फिल्मी कलाकार ही राजनीति में नहीं आ रहे, हमारे राजनेताओं पर भी फिल्मी नाटकीयता का असर चढ़ता जा रहा है। एक दशक में ही 2 राज्यों की सत्ता और राष्ट्रीय दल का दर्जा हासिल करने वाली आम आदमी पार्टी (आप) के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल की...
ऐसा लगता है कि फिल्मी कलाकार ही राजनीति में नहीं आ रहे, हमारे राजनेताओं पर भी फिल्मी नाटकीयता का असर चढ़ता जा रहा है। एक दशक में ही 2 राज्यों की सत्ता और राष्ट्रीय दल का दर्जा हासिल करने वाली आम आदमी पार्टी (आप) के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक शैली हमेशा चौंकाने वाली रही है। वह कब कौन-सा राजनीतिक दाव चलेंगे, यह शायद उनके करीबी भी नहीं जान पाते। कथित शराब नीति घोटाले में गिरफ्तारी के बाद से ही भाजपा दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से केजरीवाल का इस्तीफा मांगते-मांगते थक गई, लेकिन वह जेल से ही सरकार चलाने की जिद करके उसे चिढ़ाते रहे।
यह सच है कि मुख्यमंत्री पद वापस ले लिए जाने पर चंपई सोरेन बगावत कर भाजपाई हो गए, लेकिन इससे हेमंत सोरेन की नैतिक बढ़त कम नहीं हो जाती। उन्होंने गिरफ्तारी के चलते इस्तीफा देने की नैतिकता दिखाई और तभी पद वापस संभाला, जब हाईकोर्ट से जमानत मिल गई। जमानत देते समय हाई कोर्ट ने जो टिप्पणियां कीं, वे हेमंत को गिरफ्तार करने वाली ई.डी. की साख पर ही सवालिया निशान लगाती हैं। बेशक नए मुख्यमंत्री का चयन ‘आप’ नेतृत्व और विधायक दल का विशेषाधिकार है। आतिशी की छवि को देखते हुए उनके चयन पर सवाल भी नहीं उठाया जा सकता, लेकिन बगल में केजरीवाल की कुर्सी रख दूसरी कुर्सी पर बैठकर शासन चलाने का फैसला कई असहज सवाल खड़े करता है। भारत के संविधान में ‘अप्रत्यक्ष शासन’ या ‘खड़ाऊं राज’ का कोई प्रावधान नहीं है। जब जमानत पर बाहर आने के 2 दिन बाद केजरीवाल ने ऐलान किया था कि वह 2 दिन बाद इस्तीफा दे देंगे, तभी एक मंत्री ने संकेत दिया था कि नया मुख्यमंत्री जो भी होगा वह केजरीवाल के नाम पर ‘खड़ाऊं राज’ ही चलाएगा। खुद आतिशी ने विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद कहा था कि वह विश्वास जताने के लिए आभारी हैं, पर दिल्ली का एक ही मुख्यमंत्री है और वह हैं अरविंद केजरीवाल।
यह सब कहना-सुनना राजनीतिक दाव-पेंच और चुनावी माहौल के लिए तो ठीक है, लेकिन 23 सितंबर को पदभार संभालते हुए आतिशी जिस तरह बगल में केजरीवाल की कुर्सी खाली रखते हुए दूसरी कुर्सी पर बैठीं और साफ-साफ कहा भी कि वह उसी तरह ‘खड़ाऊं राज’ चलाएंगी, जैसे 14 साल के लिए वनवास पर गए राम की जगह उनके छोटे भाई भरत ने चलाया था। नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण के बाद आतिशी ने जिस तरह राजनिवास में केजरीवाल के पैर छुए, उसे तेजी से लुप्त हो रहे संस्कार और शिष्टाचार का उदाहरण माना जा सकता है, लेकिन केजरीवाल को ‘राम’ बताते हुए स्वयं ‘भरत’ बनकर जिस ‘खड़ाऊं राज’ की बात आतिशी कह रही हैं, वह ऐसी नाटकीयता है, जो न सिर्फ आपत्तिजनक है, बल्कि विपक्ष को चुनावी मुद्दा भी उपलब्ध कराएगी। संविधान सम्मत शासन की शपथ लेने के बाद अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से मुंह मोड़कर किसी और के नाम पर ‘खडाऊं राज’ चलाना असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक है। बेशक विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में ऐसा करने वाली आतिशी पहली राजनेता नहीं हैं। उनसे पहले जयललिता की स्वामीभक्ति में पन्नीरसेल्वम ऐसा कर चुके हैं।
अपने दौर की चर्चित फिल्म अभिनेत्री भी रहीं, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता जब जेल गईं तो उनकी जगह मुख्यमंत्री बने पन्नीरसेल्वम भी उनका सिंहासन खाली छोड़ बगल में कुर्सी रखकर शासन चलाया करते थे। यह जानना भी दिलचस्प होगा कि जेल से जयललिता का फोन आने पर पन्नीरसेल्वम समेत पूरा मंत्रिमंडल खड़े होकर बात किया करता था। जयललिता की अजेय नजर आने वाली अन्नाद्रमुक का अंतत: क्या हश्र हुआ सबके सामने है। बेशक लोक-लुभावन चुनावी वायदों के जरिए ही सही, ‘आप’ ने एक नई राजनीति की शुरूआत देश में की है। अरविंद केजरीवाल देश के लोकप्रिय नेताओं में से एक हैं।
कथित शराब नीति घोटाले में गिरफ्तारी और इस्तीफा देने में विलंब से उनकी साख पर सवाल उठे हैं, पर दिल्ली विधानसभा के आगामी चुनावों में ‘आप’ की जीत में संदेह का कोई ठोस आधार नजर नहीं आता। वह संविधान और लोकतंत्र की भावनाओं को बखूबी समझ सकती हैं। संभव है, आतिशी के इस आचरण से अरविंद केजरीवाल प्रसन्न हों। उनके अनुयायी भी खुश हो सकते हैं, पर विवेकशील मतदाताओं को संविधान और लोकतंत्र का ऐसा मखौल पसंद नहीं आएगा। राजनेताओं को ‘देवता’ और ‘भगवान’ बनाने की चाटुकार प्रथा बेहद खतरनाक है। हाल ही में दिल्ली के पूर्व उप मुख्यमंत्री एवं शराब घोटाले के एक और आरोपी मनीष सिसोदिया ने भी बयान दिया कि राम-लक्ष्मण की जोड़ी को तोडऩे की कोशिश की गई। जाहिर है, वह केजरीवाल को ‘राम’ और खुद को ‘लक्ष्मण’ बता रहे हैं।-राजकुमार सिंह