कोई हारे या जीते पर असली जीत जम्मू-कश्मीर की होना तय

Edited By ,Updated: 05 Oct, 2024 04:04 AM

the real victory is sure to be of jammu and kashmir

आज साफ-साफ बात करने का समय आ गया है। जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों का नतीजा कुछ भी आए व किसी की भी सरकार बने पर यह तय है कि चुनावी प्रक्रिया व नतीजे कई मायनों में जम्मू-कश्मीर से जुड़ी बहुत-सी भ्रांतियों व वर्जनाओं को तोडऩे वाले साबित होने जा रहे...

आज साफ-साफ बात करने का समय आ गया है। जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों का नतीजा कुछ भी आए व किसी की भी सरकार बने पर यह तय है कि चुनावी प्रक्रिया व नतीजे कई मायनों में जम्मू-कश्मीर से जुड़ी बहुत-सी भ्रांतियों व वर्जनाओं को तोडऩे वाले साबित होने जा रहे हैं। सही समझें तो ये नतीजे जम्मू-कश्मीर के नव-निर्माण में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहे हैं। इसके साथ-साथ यदि किसी स्वप्निल नव-निर्माण का सपना देखना हो तो उसके अतीत में दफन कुछ कड़वी सच्चाइयों पर दृष्टिपात भी कर लेना अच्छे भविष्य की सुरक्षा व उसके महत्व को समझने के लिए शुभ होता है।

चलिए उस खोज को आपके सामने रखते हैं जो आपको उस ङ्क्षबदू तक ले जाएगी जो कश्मीर में अलगाव के दरिया का सबसे पहले का स्रोत रहा, जहां से इसको पहली ङ्क्षचगारी मिली। ये खोज जम्मू-कश्मीर में 1987 को हुए विधानसभा चुनाव के बारे में है। तब हालात सामान्य दिखते थे। फिल्मों के शूटिंग शैड्यूल 1988 तक इस तरह के थे जैसे गर्मी के मौसम में पहलगाम दूसरा मुंबई हो। पर वहां की जनता के मन में सरकारों की कारगुजारी से बहुत निराशा व गुस्सा था। लोकतंत्र की यही खूबसूरती भी होती है कि जनता के मन का गुस्सा और गुबार वोट के माध्यम से निकल जाता है तो मानो सरकार बदलकर जनता के मन के प्रैशर कूकर की सीटी सारी भाप को रिलीज कर देती है। 

दुर्भाग्य से ऐसा 1987 के चुनाव में जम्मू-कश्मीर में न हो सका। तब केंद्र में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सर्वशक्तिमान सरकार थी। इधर कश्मीर में शेख शाही का कुनबा लगातार सत्ता में बना हुआ था। 1987 में जम्मू-कश्मीर में नैशनल कांफ्रैंस (नैकां) व कांग्रेस पार्टी ने मिलकर गठबंधन वाला चुनाव लड़ा। विधानसभा की कुल 76 सीटों पर कांग्रेस 31 सीटों पर लड़ी व नैकां 45 सीटों पर। इनके विरोध में कोई दूसरा राजनातिक दल तो टक्कर देने में सक्षम नहीं था पर कश्मीर की जनता में इस गठबंधन के खिलाफ गहरा असंतोष था। तब विभिन्न छोटे दलों या संस्थाओं के प्रतिनिधियों के तौर पर जम्मू-कश्मीर के युवाओं ने कमर कस ली परन्तु तकनीकी तौर पर उनका संगठन न होने के चलते वे निर्दलीय की श्रेणी में मान लिए गए। 

जिस प्रकार मौजूदा चुनाव में निर्दलीयों का काफी बोलबाला है, 1987 के चुनाव में तो उससे भी बहुत ज्यादा था। उस समय 344 निर्दलीय चुनाव मैदान में थे। वे एक-दूसरे से जुड़े थे पर उनका मजबूत राजनीतिक संगठन नहीं था। उस चुनाव में इस हद तक धांधली के समाचार आए कि पूरे देश के अखबार इस चुनाव में हुई गड़बड़ी से भरे हुए थे। जैसी कि आम धारणा है कि कश्मीर में लोग 15 से 18 फीसदी ही वोट देते हैं, उसके विपरीत 1987 में जम्मू-कश्मीर का मतदान 74. 88 फीसदी रहा। कांग्रेस ने 31 सीटों पर चुनाव लड़कर 26 सीटें जीतीं, कांग्रेस को मिला मत प्रतिशत 20.20 फीसदी था। नैकां ने 45 सीटों पर चुनाव लड़ा जिनमें से 40 जीतीं और वोट फीसदी रहा 32.98 फीसदी। आजाद प्रत्याशियों ने सभी 76 सीटों पर चुनाव लड़ा परन्तु सीटें मिलीं 8 और मत प्रतिशत 34.76 फीसदी रहा। 

इन नतीजों ने उन हारे नौजवानों, जिन्होंने व्यवस्था बदलने के लिए चुनाव लड़ा व सिस्टम ने हरवाने के बाद उनका जिस प्रकार थानों में उत्पीडऩ किया उस बेइज्जती को वे सहन नहीं कर पाए। याद कीजिए कि क्या 1987 में कभी कश्मीर में पत्थर चलते थे, गोलियां चलती थीं? अलगाव की कोई तेज बहने वाली हवा भी न थी। अमीरा कदल सीट से चुनाव हारा निर्दलीय मोहम्मद यूसुफ शाह बाद में सलाहुद्दीन बन गया व कितने हजार युवकों को उसने हथियार दिए, गिनती ही नहीं है। 

यदि ये जीत भी जाते तो सत्ता का सिस्टम उन्हें कुछ ही दिनों में व्यवस्था का हिस्सा बना लेता, पर धक्केशाही ने उन्हें पाकिस्तान के हाथों में धकेल दिया जिसका नतीजा सारे देश ने कई दशक तक भुगता। लेकिन इस बार हवा व फिजा बदली है। वैचारिक व सियासी विरोध के बावजूद जेल में बैठकर उमर अब्दुल्ला को 5 लाख वोटों से हराने वाले सांसद इंजीनियर रशीद भी इंटरव्यू के मौके पर कह ही गए कि जो भी हो पर मोदी साहिब ने चुनाव को इतना साफ-सुथरा करवा कर दिल जीत लिया है। मौजूदा चुनाव कोई हारे या जीते पर असली जीत कश्मीर की होना तय है और कश्मीरियों का दिल जीतने की बात करने वाले मोदी साहिब को कम से कम कोई कश्मीरी तो जुमलेबाज नहीं कह पाएगा। -अर्जुन शर्मा

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