विकास योजनाओं का हो ‘सोशल ऑडिट’

Edited By ,Updated: 05 Jul, 2024 05:22 AM

there should be a  social audit  of development plans

आज से कई दशक पहले देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने सार्वजनिक रूप से यह बात स्वीकार की थी कि जनता के विकास के लिए आबंटित धनराशि का जो प्रत्येक 100 रुपया दिल्ली से भेजा जाता है, वह जमीन तक पहुंचते-पहुंचते मात्र 14 रुपए रह जाता है।

आज से कई दशक पहले देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने सार्वजनिक रूप से यह बात स्वीकार की थी कि जनता के विकास के लिए आबंटित धनराशि का जो प्रत्येक 100 रुपया दिल्ली से भेजा जाता है, वह जमीन तक पहुंचते-पहुंचते मात्र 14 रुपए रह जाता है। 86 रुपए रास्ते में भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाते हैं। सारा विकास केवल कागजों पर ही होता है। परंतु बीते दशकों में प्रशासनिक भ्रष्टाचार के बावजूद नागरिकों को कुछ सुविधाएं अवश्य मिली हैं। लेकिन बीते वर्षों में जिस तरह के विकास का जो प्रचार हुआ उसने एक बार फिर से पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कही बात याद दिला दी।

इंद्र देव के कहर के कारण देश के कई भागों से काफी दर्दनाक दृश्य सामने आए। हर तरफ से तबाही के विचलित करने वाले दृश्यों को देख मन में यही सवाल उठा कि इस साल मानसून की पहली बारिश में ही जो हाल हुआ है क्या उसे वास्तव में प्राकृतिक आपदा माना जाए? क्या इस तबाही के पीछे इंसान का कोई हाथ नहीं? क्या भ्रष्ट सरकारी योजनाओं के चलते ऐसा नहीं हुआ? कब तक हम ऐसी तबाही को कुदरत का कहर मानेंगे? 

सरकार चाहे किसी भी दल या राज्य की क्यों न हो जनता के वोट पाने के लिए विकास कार्यों की अनेक जनोपयोगी व क्रांतिकारी योजनाओं की घोषणाएं की जाती हैं। ऐसी घोषणाओं को सुनकर हर कोई मानता है कि नेता जी ने एक बड़ा सपना देखा है और ये सारी योजनाएं उसी सपने को पूरा करने की तरफ एक-एक कदम है। बीते कुछ वर्षों में घोषित की गई योजनाओं में से कुछ योजनाओं का निश्चित रूप से लाभ आम आदमी को मिला है। वहीं दूसरी ओर घोषित कई योजनाएं केवल कागजों पर ही दिखाई दीं। यदि कोई प्रधानमंत्री या किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री जनता के कल्याण हेतु अनेक दकियानूसी परम्पराएं तोड़कर क्रांतिकारी योजनाएं लाते हैं, तो यह भी जरूरी है कि समय-समय पर वे इस बात का जायजा भी लेते रहें कि उनके द्वारा घोषित कार्यक्रमों का क्रियान्वयन कितने फीसदी हो रहा है। 

तीसरी बार प्रधानमंत्री बने मोदी जी हों या किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री  उन्हें जमीनी सच्चाई जानने के लिए गैर-पारंपरिक साधनों का प्रयोग करना पड़ेगा। ऐसे में मौजूदा सरकारी खुफिया एजैंसियां या सूचना तंत्र उनकी सीमित मदद ही कर पाएंगे। प्रशासनिक ढांचे का अंग होने के कारण इनकी अपनी सीमाएं होती हैं। इसलिए देश या सूबे के मुखिया को गैर पारंपरिक ‘फीड-बैक मैकेनिज्म’ का सहारा लेना पड़ेगा, जैसा आज से हजारों साल पहले भारत के पहले सबसे बड़े मगध साम्राज्य के शासक सम्राट अशोक किया करते थे। वह जादूगरों और बाजीगरों के वेश में अपने विश्वासपात्र लोगों को पूरे राज्य में भेजकर जमीनी हकीकत का पता लगवाते थे और उसके आधार पर अपने प्रशासनिक निर्णय लेते थे। 

आज के सूचना प्रौद्योगिकी के युग में यह बहुत आसानी से किया जा सकता है। यदि मोदी जी या देश के अन्य मुख्यमंत्री ऐसा कुछ करते हैं, तो उन्हें इसका बहुत बड़ा लाभ होगा। यदि वे ऐसा करते हैं तो उन्हें उपलब्धियों के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर आंकड़े प्रस्तुत करने वाली अफसरशाही और खुफिया तंत्र गुमराह नहीं कर पाएंगे  क्योंकि उनके पास समानांतर स्रोत से सूचना पहले से ही उपलब्ध होगी। ऐसी अप्रत्याशित स्थिति से निपटने का यही तरीका है कि अफसरशाही के अलावा जमीनी लोगों से भी हकीकत जानने की गंभीर कोशिश की जाए। यह पहल प्रशासनिक मुखिया को ही करनी होगी, फिर वह चाहे देश के प्रधानमंत्री हों या किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री।मिसाल के तौर पर इस साल की पहली मानसून की बारिश में ही देश के कई एयरपोर्टों, रेलवे स्टेशनों, ट्रेनों, सड़कों, पुलों आदि को हुए नुकसान को गंभीरता से लेना चाहिए। विपक्ष चाहे जैसे भी हमले करे पर केंद्र व राज्य सरकार को इन दुर्घटनाओं से सबक लेते हुए संबंधित राज्य सरकारों, मंत्रालयों, विभागों और अफसरशाही से समय बाधित रिपोर्ट लेनी चाहिए और दोषियों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए। 

इतना ही नहीं, घोषित की गई विकास की योजनाओं का ‘सोशल ऑडिट’ भी बहुत जरूरी है। इसके लिए देश के मुखिया या राज्य के मुख्यमंत्रियों को अपने विश्वसनीय सेवानिवृत अधिकारियों, पार्टी के समॢपत कार्यकत्र्ताओं और स्थानीय प्रबुद्ध नागरिकों की एक संयुक्त टीम बनानी चाहिए जो वस्तु स्थिति का मूल्यांकन करे और उन तक निष्पक्ष रिपोर्ट भेजे। यदि वे ऐसा करते हैं तो वे विपक्ष के हमलों का कड़ा उत्तर दे पाएंगे। ‘सोशल ऑडिट’ करने का यह तरीका किसी भी लोकतंत्र के लिए बहुत ही फायदे का सौदा होता है। इसलिए जो भी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ईमानदार होगा, पारदर्शिता में जिसका विश्वास होगा और जो वास्तव में अपने लोगों की भलाई और तरक्की देखना चाहेगा, वह  सरकारी तंत्र के दायरे के बाहर इस तरह का ‘सोशल ऑडिट’ करवाना अपनी प्राथमिकता में रखेगा। चूंकि चुनावी सभाओं में हर दल के नेता बार-बार ‘जवाबदेही’ व  ‘पारदर्शिता’ पर जोर देते हैं, इसलिए निर्वाचित होने के बाद उन्हें यह सुझाव अवश्य ही पसंद आएगा। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले समय में देश के कोने-कोने से जागरूक नागरिकों द्वारा प्रधानमंत्री व राज्यों के मुख्यमंत्रियों को इस तरह का ‘सोशल ऑडिट’ करवाने के लिए आह्वान किया जाएगा।-रजनीश कपूर  
 

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