Edited By ,Updated: 29 Oct, 2024 05:42 AM
बहुत पहले एक बड़े संस्थान में काम करने वाली वरिष्ठ महिला पत्रकार ने बताया था कि कई संस्थानों ने उन्हें अपने यहां इसलिए नौकरी नहीं दी कि कल उनकी शादी हो जाएगी, परिवार बढ़ेगा तो दफ्तर का काम-काज प्रभावित होगा। कुछ दिन पहले एक लड़की ने बताया कि...
बहुत पहले एक बड़े संस्थान में काम करने वाली वरिष्ठ महिला पत्रकार ने बताया था कि कई संस्थानों ने उन्हें अपने यहां इसलिए नौकरी नहीं दी कि कल उनकी शादी हो जाएगी, परिवार बढ़ेगा तो दफ्तर का काम-काज प्रभावित होगा। कुछ दिन पहले एक लड़की ने बताया कि इंटरव्यू में उससे पूछा गया कि वह शादी कब करेगी और यदि शादी कर ली, तो तुरंत ही तो बच्चे पैदा नहीं करेगी। यानी कि तब से आज तक क्या कुछ नहीं बदला। बड़ी कंपनियों का यह दोहरा चरित्र स्त्रियों को लेकर क्यों है? एक तरफ कहते हैं कि अब लड़कियां, लड़के बड़ी उम्र तक शादी नहीं करते। क्योंकि दफ्तर के काम के 24 घंटों को देखें या परिवार की जिम्मेदारी उठाएं। पश्चिम में बहुत से लोग अब इस चौबीस सात की नौकरी का विरोध करने लगे हैं।
कई कम्पनियां ऐसे नियम भी बना रही हैं कि दफ्तर के काम के घंटों के बाद कर्मचारी के जीवन में नियोक्ता का कोई दखल नहीं होना चाहिए। उसे मैसेज या मेल पर भी कोई संदेश नहीं दिया जाना चाहिए। वर्क फ्रॉम होम की संस्कृति ने काम के घंटों को जिस तरह से बढ़ाया है, उस हिसाब से कर्मचारी के वेतन में भी वृद्धि नहीं होती। फिर दूसरी तरफ दुनिया भर में इस बात का रोना रोया जाता है कि परिवार बिखर रहे हैं, परिवार की संस्कृति नष्ट हो रही है, अनेक देशों में महिलाएं तमाम तरह के प्रलोभनों के बावजूद, संतान को जन्म देना नहीं चाहतीं क्योंकि उन्हें पता है कि बच्चे के जन्म के बाद, उन्हें दफ्तर में इस तरह से देखा जाएगा कि वे हमेशा अपने परिवार की समस्याओं में घिरी रहती हैं, काम पर ध्यान नहीं देतीं, इससे उनका करियर प्रभावित होगा।
औरतों के नौकरी करने में पिछले कुछ सालों में गिरावट भी देखी गई है। जब अपने यहां सरकार ने स्त्रियों के लिए 6 महीने के मातृत्व अवकाश की घोषणा की थी, तब बहुत से संस्थान यह कहकर उन्हें नौकरी देने से बचते देखे गए थे कि इन्हें 6 महीने का सवैतनिक अवकाश दें, इनकी जगह जो अस्थायी कर्मचारी लाएं उसे भी वेतन दें, तो ये दोहरा नुकसान क्यों झेलें। इसी तरह ‘मी टू’ के वक्त भी बहुत से लोगों ने कहा था कि वे स्त्रियों को नौकरी ही नहीं देंगे। न कोई स्त्री कर्मचारी होगी, न उन पर ऐसे आरोप लग सकेंगे क्योंकि कई बार झूठे आरोप भी लगा दिए जाते हैं। इसी तरह कोरोना के समय औरतों की नौकरियों में भारी कमी दर्ज की गई थी। नियोक्ता अगर इन बातों से प्रभावित न भी हों तो भी वे स्त्रियों के शादी करने से बहुत डरते हैं।
हाल ही में नौकरियों के बारे विश्व बैंक की दक्षिण एशिया अपडेट की रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में शादी के बाद स्त्रियों की नौकरी में 12 प्रतिशत तक की गिरावट दर्ज की गई। इसे मैरिज पैनल्टी का नाम दिया गया। यही नहीं बच्चे के जन्म के बाद भी बहुत-सी स्त्रियों ने नौकरी छोड़ दी। सच भी है कि दोहरी जिम्मेदारी निभाना एक मुश्किल काम है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि भारत और दक्षिण एशिया में 32 प्रतिशत स्त्रियां ही नौकरी करती हैं जबकि पुरुषों का प्रतिशत 77 है।
हालांकि इसके बहुत से सामाजिक कारण भी हैं जैसे कि हमारे यहां बहुत से घरों में स्त्रियों पर यह शर्त लगा दी जाती है कि वे शादी के बाद नौकरी नहीं करेंगी। हालांकि इस रिपोर्ट को पढऩे से लगता है कि इसमें शायद शहरी महिलाओं और विशेष तौर पर महानगरों की महिलाओं का आंकलन ही किया गया है क्योंकि गांवों में स्त्रियां शादीशुदा हों, कई बच्चों की मां हों, तब भी कृषि क्षेत्र में बड़ी तादाद में काम करती हैं। यही हाल मजदूर वर्ग और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं का भी है।
कई मजदूर स्त्रियां तो बच्चे के जन्म के अगले दिन ही ईंट ढोने का काम करती देखी गई हैं। घर के सारे काम तो हैं ही। उनके पास तो इतने संसाधन भी नहीं कि वे दोहरे, तिहरे काम की शिकायत कर सकें। उन्हें तो शायद ही कोई छुट्टी और मातृत्व अवकाश की सुविधा मिलती है। तमाम बड़े संगठनों और महिलाओं के लिए काम करने वाले कई संगठनों की नजरों से ये कामगार स्त्रियां अक्सर ओझल रहती हैं। ये किसी का रोल माडल भी नहीं हो सकतीं। इनके चमक-दमक से रहित उजड़े चेहरे, आखिर स्त्रियों से जुड़े तमाम उत्पादों के विज्ञापनदाताओं के भी किस काम के। जबकि जरूरत इन महिलाओं के लिए भी मानवीय स्थितियां बनाने की है।
ये भी स्त्रियां हैं, इनकी भी आशा और आकांक्षाएं होंगी, कोई इनके पास क्यों नहीं पहुंचता। इन्हें अपने जीवन में किस-किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता होगा। जिसे अंग्रेजी में हैंड टू माऊथ कहते हैं, ये औरतें उसी का प्रमाण होती हैं। आज काम है तो रोटी है, कल काम नहीं है, तो रोटी भी नहीं। अन्य सुविधाओं की तो बात कौन कहे। एक समय ऐसा था कि इन औरतों पर ध्यान देने की बातें खूब की जाती थीं। लेकिन जैसे-जैसे समय बदला है, ये औरतें हमारे तमाम विमर्शों से गायब हो चुकी हैं।-क्षमा शर्मा