आज माता-पिता के पास अपनी औलाद के सवालों के जवाब देने के लिए वक्त नहीं

Edited By ,Updated: 28 Mar, 2025 05:01 AM

today parents do not have time to answer their children s questions

अपनी बेटी एना की सिफारिश पर मैंने नैटफ्लिक्स पर फिल्म ‘एडोलेसैंस’ देखी। अपने साप्ताहिक स्तंभों में मैंने कई बार उन पुस्तकों के बारे में लिखा है जो मुझे दिलचस्प लगीं। यह पहली बार है जब मैं किसी फिल्म के बारे में लिख रहा हूं क्योंकि कई महीनों के बाद...

अपनी बेटी एना की सिफारिश पर मैंने नैटफ्लिक्स पर फिल्म ‘एडोलेसैंस’ देखी। अपने साप्ताहिक स्तंभों में मैंने कई बार उन पुस्तकों के बारे में लिखा है जो मुझे दिलचस्प लगीं। यह पहली बार है जब मैं किसी फिल्म के बारे में लिख रहा हूं क्योंकि कई महीनों के बाद मैंने ऐसी फिल्म देखी जो देखने लायक थी। जैसा कि नाम से पता चलता है ‘किशोरावस्था’ एक 13 वर्षीय लड़के की कहानी है, जिसने स्कूल में अपनी ही कक्षा की लगभग उसी उम्र की एक लड़की की चाकू घोंपकर हत्या कर दी। चूंकि दोनों किशोर न तो दुश्मन थे और न ही दोस्त, इसलिए जासूसों के लिए अपराध के मकसद का पता लगाना कठिन था। पुलिस को किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए एक प्रशिक्षित मनोवैज्ञानिक की सेवाएं लेनी पड़ीं।

फिल्म की कहानी एक ठेठ अंग्रेजी शहर पर आधारित है। जिस परिवार से वह लड़का था वह मजदूर वर्ग का था। पिता प्लम्बर थे। मां भी काम करती थी लेकिन अपने पति जितने घंटे नहीं। यह दम्पति सुखपूर्वक विवाहित था।  उनकी एक बड़ी संतान 17 साल की लड़की थी, जिसमें अपने छोटे भाई की तरह भावनात्मक अस्थिरता का कोई लक्षण नहीं दिखता था। इस विषय पर लिखने में मेरी रुचि इसलिए है क्योंकि मैं निरंतर युवाओं के साथ बातचीत करता हूं। जब मेरी गतिशीलता में कोई बाधा नहीं थी, जैसा कि पिछले 3 या 4 वर्षों से है तो सप्ताहांतों को छोड़कर जो निकटतम परिवार के साथ समर्पित होते हैं, बातचीत लगभग प्रतिदिन होती थी।

अब बातचीत केवल उन लोगों तक ही सीमित रह गई है जो अपनी परेशानियां लेकर मेरे घर आते हैं। निम्न मध्यम वर्ग के माता-पिता मुझसे यह अपेक्षा रखते हैं कि मैं उनके किशोर बच्चों में समझदारी पैदा करने के लिए पुलिस को शामिल करूं। मुझे उन्हें यह समझाना पड़ता है कि पुलिस को भावनात्मक रूप से परेशान बच्चों या यहां तक कि वयस्कों से निपटने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया गया है। पुलिस का कोई भी हस्तक्षेप मामले को और जटिल बना सकता है। 

अपनी नौकरी के दौरान एक बार मैंने मदद के लिए टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साइंसिज की प्रोफैसर मृणालिनी आप्टे से संपर्क किया। उस दयालु महिला ने 2 युवा छात्रों एक लड़की और एक लड़के को, संबंधित पक्षों से बात करने के लिए कार्य दिवसों में अपराह्न 3 बजे से शाम 6 बजे तक मेरे कार्यालय में रखा।  यह जोड़ी वहां सफल हुई जहां हम पुलिस वाले निश्चित रूप से असफल हो जाते। मेरी पत्नी जो एक प्रशिक्षित शिक्षिका थीं, पुणे में शिवाजी प्रिपरेटरी मिलिट्री स्कूल में काम करती थीं, जब मैं वहां अधीक्षक के रूप में तैनात था। 1964 से 1968 तक सिटी पुलिस में, 1968 से 1974 तक मुम्बई के कैथेड्रल स्कूल में, 1974 से 1976 तक हैदराबाद के सैंट्रल स्कूल में जब मैं सी.आर.पी. में प्रतिनियुक्त था और दिल्ली में सेंट कोलंबा स्कूल, जहां 1976 से 1979 तक प्रतिनियुक्ति पर मेरी अंतिम पोस्टिंग थी।

उन्होंने पाया कि मुंबई के कैथेड्रल स्कूल के बच्चों को संभालना अधिक कठिन था जबकि हैदराबाद के सैंट्रल स्कूल के बच्चों को संभालना सबसे आसान था। इसका कारण समझना कठिन नहीं था। भारत में कम संपन्न वर्ग के बच्चों के भावनात्मक स्वास्थ्य पर उतना असर नहीं पड़ा है जितना कि आर्थिक रूप से अधिक संपन्न वर्ग के बच्चों पर पड़ा है। ब्रिटेन जैसे देशों में, जहां फिल्म ‘एडोलेसैंस’की शूटिंग हुई थी, बच्चों को भारत आने से पहले ही फेसबुक,व्हाट्सएप आदि जैसे सोशल मीडिया माध्यमों से परिचित कराया गया था।

प्रौद्योगिकी के संपर्क में आने वाले बच्चों पर यौन आचारों के वर्तमान रुझानों का प्रभाव पडऩे की संभावना उन बच्चों की तुलना में अधिक है, जिनकी प्रौद्योगिकी तक पहुंच कम है। किशोरावस्था में 13 वर्षीय नायक ने अपनी यौन इच्छाओं के साथ संघर्ष करना शुरू कर दिया था, जो उस उम्र में स्वाभाविक है। उसकी कक्षा के लड़कों ने निष्कर्ष निकाला था कि 80 प्रतिशत लड़कियां 20 प्रतिशत लड़कों की ओर आकर्षित होती हैं। नायक को लगता था कि वह ‘बदसूरत’ है और इसलिए लड़कियों का ध्यान आकर्षित करने लायक नहीं है।  उनके पिता ने उन्हें खेलों, विशेषकर फुटबॉल में रुचि दिलाने का असफल प्रयास किया था। लड़के का आई.क्यू. स्तर औसत से ऊपर था। वह पढ़ाई में तो अच्छा था लेकिन वह स्पष्ट रूप से यौवन के लक्षणों से परेशान था,जिसे उसके माता-पिता ने नोटिस तक नहीं किया था, उसे संबोधित करना तो दूर की बात थी।

मुंबई जैसे भारतीय शहरों में अधिक संपन्न लोगों के माता-पिता अपने जीवन में व्यस्त रहते हैं,पुरुष अपने काम में और महिलाएं अपने दोस्तों के साथ। कई लोग अपने बच्चों को मार्गदर्शन देने के लिए समय निकालते हैं। किशोरों को अपनी शंकाओं के उत्तर तथा युवावस्था में प्रवेश करते समय उनके द्वारा अनुभव की जाने वाली नई इच्छाओं के बारे में जानकारी की आवश्यकता होती है। उनके पिता के पास जवाब देने के लिए समय नहीं है, माताएं ऐसे विषयों में शामिल होने से हिचकिचाती हैं।
नायक अपने कमरे में खुद को बंद कर लेता था और अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए आवश्यक जानकारी खोजने के लिए कम्प्यूटर पर बैठ जाता था। हत्या के बाद उसके माता-पिता के बीच बातचीत,जिसमें वे यह निर्धारित करते हैं कि वे कहां असफल रहे, फिल्म के अंतिम एपिसोड में दिखाया गया है। यह उस बोझ को दर्शाता है जो माता-पिता को आज के समय में बच्चों के पालन-पोषण में उठाना पड़ता है। यह कोई आसान काम नहीं है  लेकिन अगर माता-पिता दोनों बिना कोई बहाना बनाए अपने बच्चों को प्रतिदिन समय दें तो यह काफी दिलचस्प हो सकता है।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी) 
 

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