Edited By ,Updated: 22 Feb, 2025 05:45 AM
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राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक या व्यक्तिगत जीवन में यदि लगने लगता है कि छल-फरेब हुआ है तो बहुत कुछ उलट-पलट होना तय है। प्रश्न यह है कि जब ऐसी स्थिति बन जाए और दल, नेता या घर का सदस्य भी कहे कि एक बार फिर दूसरा अवसर दिया जाए तो क्या करना उचित होगा?
राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक या व्यक्तिगत जीवन में यदि लगने लगता है कि छल-फरेब हुआ है तो बहुत कुछ उलट-पलट होना तय है। प्रश्न यह है कि जब ऐसी स्थिति बन जाए और दल, नेता या घर का सदस्य भी कहे कि एक बार फिर दूसरा अवसर दिया जाए तो क्या करना उचित होगा? यदि जिसने विश्वास तोड़ा, वह गारंटी भी दे तब भी उसे सजा देंगे या सुनिश्चित करेंगे कि दोबारा ऐसा न हो।
दिल्ली की कहानी : दिल्ली है दिल वालों की लेकिन इसकी किस्मत है कि बार-बार उजड़ती बसती रहती है। आक्रांताओं द्वारा लूटी जाती रही और कमाल यह कि तहस-नहस कर दिए जाने के बावजूद फिर से उठ खड़ी होती है। वही सज-धज, वैसा ही रौब और दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल। शायद ही देश के किसी अन्य शहर की कहानी इस जैसी हो। आजादी के आसपास जन्मी पीढ़ी के लोगों की जुबानी बहुत से किस्से कहानियों में रोचक तथ्य मिल जाएंगे कि किस तरह यह नगर अपने इतिहास, संस्कृति और सभ्यता में अलग स्थान रखता है।
दिल्ली का राजनीतिक परिदृश्य यह रहा है कि यहां अधिकतर कांग्रेस का शासन रहा और उसके मुकाबले भाजपा का अतीत भारतीय जनसंघ और कम्युनिस्ट पार्टियां रहीं। अब हुआ यह कि केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद भी दिल्ली की सत्ता एक नए दल आम आदमी पार्टी के हाथों में चली गई जिसने कांग्रेस की शीला दीक्षित सरकार को इस वायदे और विश्वास के आधार पर हराया था कि वे ईमानदार, स्वच्छ और शिक्षित लोगों की सरकार देंगे। हालांकि शीला सरकार ने दिल्ली की कायापलट की थी लेकिन अरविंद केजरीवाल ने कुछ ऐसा करिश्माई नजारा दिखाया कि जनता ने उन्हें अपना नेता मान लिया। जितने भी लोग चुने गए उनमें से अधिकतर को राज-काज का अनुभव नहीं था, जिन्हें था उनकी हैसियत का लाभ उठाकर नजरअंदाज कर दिया गया और कुछ समय बाद से ही बहुत से निष्ठावान और परिवर्तन की उम्मीद लगाए दिल्ली वासी, विशेषकर युवा पीढ़ी निराश होने लगी और इस पार्टी से किनारा करने में ही भलाई समझी।
देखा जाए तो दिल्ली की समस्याएं ज्यादा नहीं हैं और क्योंकि जनसंख्या में फेर-बदल होता रहता है, इसलिए ये कभी गंभीर नहीं हो पातीं। मूलभूत सुविधाएं हरेक को मिल जाएं वही काफी है और अगर वह भी न मिलें तो निराशा होना स्वाभाविक है। सबसे बड़ी समस्या है प्रदूषण की। लगातार बढ़ते वाहनों, यमुना में कल कारखानों से निकलने वाले रसायनों के बेरोकटोक गिरने और केवल राजनीतिक लाभ के लिए बसाई गई अवैध कालोनियों और सड़कों की खराब हालत, इसका मूल कारण है।
इसी से जुड़ी स्वास्थ्य की समस्या है जो दूषित हवा, गंदे पानी के इस्तेमाल से जुड़ी बीमारियों के कारण होती है। राजधानी होने के नाते केंद्र सरकार का यहां दखल उतना ही होता है जितना केंद्र शासित प्रदेश में होता है और बाकी सब कुछ स्थानीय सरकार के अधीन है कि वह दिल्ली की आन, बान और शान कायम रखे। आने-जाने के साधनों को सुविधाजनक बनाना और दिल्लीवासी जिस जीवनशैली या लाइफ स्टाइल के अभ्यस्त हैं, प्रदान करना, बस इतना ही, यह भी न कर सके, तब क्या ही कहा जाए ?
धन, स्वास्थ्य और चरित्र की कसौटी : कहावत है कि धन की हानि होना कोई अधिक बड़ी बात नहीं है क्योंकि यह तो अपने पुरुषार्थ से दोबारा प्राप्त हो सकता है। केजरीवाल सरकार को जनता ने धन की कमी नहीं आने दी, उन्हें जरूरत से ज्यादा ही दिया, दिल खोलकर उनकी मदद की और बदले में यह उम्मीद की कि जो विश्वास उन पर किया, वे उसे कभी टूटने नहीं देंगे। इसके बाद आती है चरित्र की हानि। जरूरतमंद, निर्धन, असहाय और कमजोर लोगों की सहायता करने से किसी को कोई परेशानी नहीं होती लेकिन जब सरकार जनता के धन को अपनी वाहवाही के लिए मुफ्त बांटने लगे, तब अवश्य सोचने वाली बात है। बिना इस बात का अनुमान लगाए कि विद्युत उत्पादन और पेयजल की आपूर्ति करने में कितना धन व्यय होता है, बिजली और पानी के प्लांट लगाना कितना कठिन और महंगा है, आपने सब को मुफ्त देने की हिमाकत कर दी। तनिक भी विचार नहीं आया कि मुफ्तखोरी की लत लगाना अपराध है। बिना श्रम या पैसा खर्च किए कुछ भी देना, लेने वाले के चरित्र को गिराना है। जिसे दिया वह मना नहीं कर सकता क्योंकि सरकार के आदेश के अनुसार उसे दिया जा रहा है।
मुफ्त में सुविधाओं के दिए जाने की शुरूआत हुई, यहां तक कि महिलाओं को चाहे अमीर हो या गरीब, खाते में रुपया पहुंचने की बात कही। यह चरित्रहीन बनाने की कोशिश नहीं है तो और क्या है ? सोचकर देखिए, स्वयं दिल इस बात की गवाही नहीं देगा क्योंकि समर्थ होते हुए, मुफ्त का हाथ लगे तो वह हजम नहीं होगा। विडंबना देखिए कि अदालत भी इस मुफ्तखोरी पर रोक नहीं लगा सकती क्योंकि आदेश सरकारी है। दुर्भाग्य से मुफ्त की रेवड़ी का चलन देश के अनेक राज्यों में सत्ता हासिल करने का साधन बन रहा है। जो नई सरकार बनी है, वह भी कोई दूध की धुली नहीं कहीं जा सकती क्योंकि इसने भी मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने की योजनाओं को और अधिक पोषित करने का वायदा किया है।-पूरन चंद सरीन