Edited By ,Updated: 04 Jun, 2024 05:23 AM
कुछ ही घंटों में चुनाव परिणामों के आंकड़े टी.वी. के पर्दे पर नाचने लगेंगे लेकिन उन आंकड़ों के निहितार्थ और फलितार्थ को समझने के लिए टी.वी. के तमाशे से बाहर निकल कर सोचना होगा। ‘कौन बनेगा प्रधानमंत्री’ का उत्तर तो टी.वी. से मिल जाएगा लेकिन ‘क्या...
कुछ ही घंटों में चुनाव परिणामों के आंकड़े टी.वी. के पर्दे पर नाचने लगेंगे लेकिन उन आंकड़ों के निहितार्थ और फलितार्थ को समझने के लिए टी.वी. के तमाशे से बाहर निकल कर सोचना होगा। ‘कौन बनेगा प्रधानमंत्री’ का उत्तर तो टी.वी. से मिल जाएगा लेकिन ‘क्या बनेगा देश का’ वाला सवाल मुंह बाए खड़ा रहेगा। यह खबर तो मिल जाएगी कि सरकार किसकी बनेगी, लेकिन इस चुनाव के जरिए सरकार को जनादेश क्या मिला है यह हमें खुद समझना पड़ेगा। जिस चुनाव में लोकतंत्र, संविधान और देश का भविष्य दाव पर लगा हो उनके जनादेश की व्याख्या टी.वी. एंकरों के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकती।
जनादेश चुनाव के ऐतिहासिक संदर्भ पर निर्भर करता है। जब 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को 282 सीटें मिली थीं तो उसे अभूतपूर्व जनादेश के रूप में देखा गया था क्योंकि इससे पहले तीन दशक में किसी भी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। इसी तरह 1989 में कांग्रेस को 193 सीटें लेकर सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद चुनाव परिणाम को कांग्रेस के विरुद्ध जनादेश माना गया चूंकि वह 400 से अधिक सीटों के कीर्तिमान से नीचे उतरी थी। इसी तर्क के चलते 2004 के परिणाम को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के विरुद्ध जनादेश माना गया तो 1996 में मात्र 142 सीटें जीतने पर भी संयुक्त मोर्चे को सरकार बनाने का हकदार माना गया।
2024 के चुनाव परिणाम की व्याख्या करते समय हमें ऐतिहासिक संदर्भ को ध्यान में रखना होगा। सबसे पहले हमें इस सच को दर्ज करना होगा कि यह कोई बराबरी का मैच नहीं था। पिछले 10 साल से नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने इस देश में एकछत्र वर्चस्व बनाए रखा है। वर्ष 2014 की असाधारण सफलता के बाद 2019 के चुनाव में उस से भी ऊंची पायदान की चढ़ाई भाजपा ने चढ़ ली। इस बीच देश के अधिकांश विधानसभा चुनावों में जीत हासिल कर ली, जहां चुनाव न जीते वहां भी सरकार पर कब्जा कर लिया। जिन राज्यों में भाजपा की उपस्थिति नहीं थी वहां उसका दाखिला और विजय कोई साधारण घटना नहीं है। अब सवाल यह है कि 2024 का चुनाव भाजपा के राजनीतिक वर्चस्व के रथ को रोकेगा या नहीं।
चुनाव लडऩे की क्षमता की दृष्टि से यह बराबरी का मैच नहीं था। विपक्ष की तुलना में भाजपा के पास चुनाव लडऩे के लिए जितना पैसा था उसमें जमीन और आसमान का फर्क था। मुख्यधारा के अखबार, चैनल और समस्त मीडिया भाजपा के प्रचार में लगा हुआ था। चुनाव के पहले से ई.डी., सी.बी.आई., पुलिस और प्रशासन भी सत्ताधारी दल के कार्यकत्र्ताओं की तरह जुटे थे। चुनाव आयोग का रवैया खुल्लम खुल्ला पक्षपात का था। चुनाव लडऩे से ज्यादा विपक्ष की चिंता अपने उम्मीदवारों और कार्यकत्र्ताओं को जोड़े रखने की थी। चुनाव परिणाम का विश्लेषण करते समय इस बुनियादी असंतुलन को ध्यान में रखना पड़ेगा। इस संदर्भ में भाजपा का 400 पार का दावा उसकी सफलता की कसौटी बन जाता है।
आज के परिणाम में असली सवाल यह नहीं है अपनी सारी ताकत के दम पर भाजपा, उसके चुनावी सहयोगी और चुनाव के बाद जोड़-तोड़ के सहारे बने पार्टनर सरकार बनाने में सफल होंगे या नहीं। जाहिर रूप से इस चुनाव की शुरूआत से अंत तक ‘किसकी बनेगी सरकार’ की दौड़ में भाजपा आगे रही है। यहां एक बात तय है। अगर 400 पार के दावे के बाद भाजपा 2019 के अपने 303 के आंकड़े से पीछे रुक जाती है तो इसे भाजपा का वर्चस्व टूटने की शुरूआत की तरह देखा जाएगा। चाहे भाजपा दक्षिण और पूर्व के तटीय इलाकों में अपना विस्तार कर ले लेकिन उसके वर्चस्व की परीक्षा दक्षिण में कर्नाटक और पश्चिम में महाराष्ट्र से लेकर पूर्व में झारखंड और बिहार तक के हिन्दी पट्टी समेत उस विशाल भूभाग में होगी जिसमें भाजपा ने पिछले 2 चुनावों में अपना एकाधिकार बना लिया था। अगर यहां भाजपा का एकाधिकार टूटता है तो यह तय है उसे अगले कुछ महीने में महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड जैसे प्रदेशों में चुनावी हार का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे में मीडिया का गला कुछ खुल जाएगा। संभव है कि कोर्ट-कचहरी भी थोड़ी-बहुत हिम्मत दिखाने लगें और जाहिर है जमीन पर जनांदोलन भी मजबूत होंगे।
इससे नीचे गिरकर अगर भाजपा की अपनी सीटें बहुमत के आंकड़े यानी 272 से नीचे रह गईं तो इस परिणाम को भाजपा की हार के रूप में ही देखा जाएगा। चाहे ऐसे में भाजपा सरकार बनाने की स्थिति में होगी लेकिन यह माना जाएगा कि जनादेश उसके खिलाफ है। ऐसे में भाजपा की तीसरी सरकार का इकबाल बुरी तरह चोट खाएगा। एक और संभावना पर गौर कीजिए, चाहे उसकी संभावना आज कम दिखाई दे-अगर भाजपा की सीटें 250 से कम रह जाती हैं तो इसे सीधे-सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हार के रूप में देखा और पेश किया जाएगा।
अभी तक हमने उन्हीं संभावनाओं पर गौर किया है जिनमें भाजपा की सीटें पिछले चुनाव से घट सकती हैं लेकिन एग्जिट पोल इस संभावना को नकारते हैं। उनके अनुसार भाजपा अकेली 320 से 340 या उससे भी अधिक सीटें जीत लेगी, अपने एन.डी.ए. सहयोगियों के साथ 400 का आंकड़ा भी पार कर लेगी। अगर ऐसा होता है तो जाहिर है भाजपा का वर्चस्व कायम रहेगा। सत्ता के निरंकुश होने की संभावना बढ़ेगी, संवैधानिक संस्थाएं पहले से भी अधिक सिकुड़ सकती हैं। एक अंतिम बात। अगर एग्जिट पोल में दिखाए आंकड़े ही चुनाव परिणाम के रूप में सामने आते हैं तो संभव है कि अनेक विपक्षी दल इस परिणाम की वैधता और ई.वी.एम. पर सवाल उठाएं। देश के बड़े हिस्से और अनेक तबकों में चुनावी प्रक्रिया को लेकर अविश्वास बढ़ेगा, पिछले सत्तर साल में भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि यानी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव पर सवालिया निशान लगेगा।-योगेन्द्र यादव